एक प्रयास
(बहर- 2122 2122 2122)
लक्ष्य क्या जो खोजते हम दौड़ते हैं।
है कहाँ ये आज तक ना जानते हैं।।
ढूंढ साधन,साधने को लक्ष्य सोंचा,
ना सधा ये,सब 'स्व' को ही रौंदते हैं।
जग छलावे में भटकते इस तरह हम,
शांति के हित शांति खोते भासते हैं ।
*समर्पण हो पूर्ण,या लब सीं लिए हों,
क्या शिला भी प्रेम को पा सीलते हैं?
ना पहुंचू पर मुझे हो भान तो वह,
तब बढेंगे, आज तो बस खोजते हैं ।।
*संशोधित …
Added by Vindu Babu on July 18, 2013 at 5:00am — 22 Comments
(२१२२, २१२२,२१२२,२१२)
नफरतों की बात छोड़ें, प्यार की बातें करें
दुश्मनों को रहने दें, दिलदार की बातें करें ।
तोड़ दें हथियार सारे, फेंक दें तलवार भी
क्या बुरा जो हम कलम की धार की बातें करें ।
'गोधरा' के भूत को फिर याद कर होगा भी क्या
ईद-होली और कुछ त्यौहार की बातें करें ।
है सियासत, खेल-कारोबार है, सब कुछ तो है
मेज पर रक्खे हुए अखबार की बातें करें ।
गाँव कस्बे और फिर इस शहर की बातें हुई
आज छत पर बैठकर संसार की बातें करें…
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on July 18, 2013 at 1:10am — 15 Comments
नाम ही बस नाम बाकी रह गया है
कहाँ अब इंसान बाकी रह गया है
क्यों नही करता वो मुझको अब क़ुबूल
कौन का इम्तिहान बाकी रह गया है
बस तसल्ली है जो मेरे पास है
कौन सा सामान बाकी रह गया है
दिल मेरा कहता है वापस आएगा वो
क्या कोई तूफान बाकी रह गया है
अब कहाँ खुद्दारियों का है ज़माना
अब कहाँ ईमान बाकी रह गया है
अजय कुमार शर्मा
मौलिक अप्रकाशित
Added by ajay sharma on July 17, 2013 at 11:00pm — 10 Comments
जब सोचने का नज़रिया
बदल जाये तो
राहें भटक जाया करती हैं,
मंजिलें तब दूर कहीं
खो जाया करती हैं...
काफिले के संग
चल निकलो तो बात अलग,
वर्ना परछाईं भी अक्सर
साथ छोड़ जाया करती है...
वो लोग अलग होते हैं
जो डूब के पार निकलते हैं,
हौसलों से तो बिन पंख भी
ऊँची उडान भरी जाया करती…
Added by Priyanka singh on July 17, 2013 at 10:52pm — 17 Comments
!!! जमीं-फलक में हैं तारें, निकल के देखते हैं !!!
1212 1122 1212 112
लहर-लहर में कशिश है, मचल के देखते हैं।
हवा हवाई सफर से, बहल के देखते है।।
नदी कहे कि सितारें भरी हैं रेत हसीं।
लहर चमक के किनारे उछल के देखते हैं।।
हवा दिशा से कहे कामना सकल शुभ हो।
मगर तुफान कहे तो संभल के देखते हैं।।
ये अग्नि-वारि गगन में, धरा भुलाए नफरत।
प्रलय से कष्ट मिले हैं, संभल के देखते हैं।।
गगन से बरसे है…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 17, 2013 at 8:34pm — 16 Comments
की बोर्ड से चिपका
स्क्रीन की सुंदरता से मुग्ध
हर सवाल का जबाब
चेट्टिंग से चेट्टिंग तक
मोबाइल से चीटिंग करते
झूठ से भरमाते
फिर भी मुस्कुराते
आँखें कान नाक
सब अंधे
जिनसे हमेशा
रिसता है
ज़हरीला
फरेब
ऐसे रिश्ते
प्रेम की पराकाष्ठा है
आज का प्रेम
संदीप पटेल "दीप"
मौलिक व अप्रकाशित
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 17, 2013 at 3:09pm — 9 Comments
धरती तो आधार है, जा न सके उस पार
जन्म,मरण अरु परण का,धरती ही आधार|
पञ्च तत्व से जन्म ले,पाय धरा की गोद
हरेभरे उपवन खिले, प्राणी करे प्रमोद |
धरती गगन जहां मिले,लगे नीर की झील
हिरन दौड़ते खोजने, निकले मीलो मील |
हीरे मोती कुछ नहीं, जितनी धरा अमूल्य,
सभी मिले भूगर्भ में, बिन माटी सब शून्य|
निर्धन या धनवान हो, दो गज मिले जमीन,
साँसों की डोरी थमे, जाय संपदा हीन |
(मौलिक व्…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 17, 2013 at 12:00pm — 12 Comments
बहर: हज़ज मुसम्मन सालिम
वही दिलकश नज़ारा हो वही मौसम सुहाना हो,
वही खिलते हुए फूलों सा तेरा मुस्कुराना हो,
जुबां से कह नहीं पाया नज़र से तुम नहीं समझी,
बताना हो बड़ा मुश्किल कठिन उससे छुपाना हो,
पलटकर देखना तेरा ग़लतफ़हमी सही मेरी,
इसी धोखे के चलते बेवजह हँसना हँसाना हो,
अदा इक तो सनम कातिल खुदा से तुमने है पाई,
गिरे बिजली मेरे दिल पे जो तेरा भीग जाना हो,
चुराने आँखों से काजल फलक से आ गए…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on July 17, 2013 at 12:00pm — 41 Comments
सितारों जड़ी चुनरी नित-निश
लहर दिशा महके री।
झांक रही केसर
मुख नारी,
पर्वत ओट लिए
दृग कारी।
काजल रेख दूर
तक पारी,
गाल गुलाल
मुस्कान प्यारी।
अधर बीच बिजली री !
स्वर्ण किरन ने
ली अंगड़ाई,
शबनम करती
चली रूषाई।
कल कल धुन सुन
सरिता मचले,
गिरि से गिर कर
झरना उछले।
बांह बॅधें नहि मछरी !
पानी में केसर
मुख धोए,
हर हर गंगे
बोल सुहाए।
निखरा रूप
सलोना सुन्दर,
जल रक्त…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 17, 2013 at 8:19am — 14 Comments
भूख थी जेरे बह्स और प्यास भी था मुद्द'आ
फैसला होना नहीं था, मुल्तबी वह फिर हुआ
रहमतों की बारिशें होंगी, मुनादी हो गयी
और बातें छोडिये, पर रोटियों का क्या हुआ
लाख बोलो कान पर,जूँ तक नहीं अब रेंगता
क्या असर होगा इन्हें, दो गालियाँ या बददुआ
हाथ इनके हैं बहुत लम्बे, मगर डरना नहीं
चाहे संसद में गढ़ें वो नामुआफ़िक मजमुआ
वारदातें भी रहम की मांगती हैं हर नज़र
कुछ दरीचा हो यहाँ पर,…
ContinueAdded by Dr Lalit Kumar Singh on July 17, 2013 at 7:09am — 12 Comments
बर्तन की जाली में एक लोटा और कुछ चम्मच थे | सारे चम्मच लोटा को दुनिया का सबसे अच्छा बर्तन मानते थे, उसकी जय-जयकार करते थे, लोटा हमेशा उनको चमक - दमक की दुनिया से बचने नसीहतें देता था, हमेशा उनको बताता था कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी दिखती है, चम्मचों ! परदे के पीछे का खेल देखने की कोशिश किया करो, सच्चाई वहाँ छुपी होती है, बहुत लोग तुमको ऐसी नकली दुनिया में घसीटने की कोशिश करेंगे ऐसे लोगों से दूर रहो,,, और भी जाने क्या क्या .....…
Added by वीनस केसरी on July 17, 2013 at 2:04am — 19 Comments
ग़मों के घाव अभी भरे नही i
दवा में लगता मिला ज़हर है i i
बेनाम बस्ती में लोग रहते है i
उन्ही बस्तियों से बना शहर है i i
आदमी -आदमी को नहीं जाना i
ज़िन्दगी सात दिनों का सफ़र है i i
नदियाँ भी डरती है भरने से i
उनसे लगी बड़ी सूखी नहर है i i
खामोश आज सभी हवायें है i
वक़्त का उनपर भी असर है i i
मै भूला अपना रास्ता आज i
पता नहीं जाना मुझे किधर है i i
मौलिक /अप्रकाशित
दिलीप कुमार तिवारी
Added by दिलीप कुमार तिवारी on July 16, 2013 at 10:37pm — 7 Comments
दर्पण पे जमी हो धूल तो श्रृंगार कैसे हो,
भूखा हो जब आदमी तो प्यार कैसे हो .
पढ़ लिख कर सब बन गए दफ्तर के बाबू ,
खेतों में अनाज की अब पैदावार कैसे हो .
मंहगाई को जीद है अब छूने को आसमां,
गरीबों के घर तीज और त्यौहार कैसे हो .
मतलब नहीं है देश के आदमी को देश से,
राम जाने इस देश का बेड़ा पार कैसे हो .
ले चल मुझे अब दूर कहीं मुर्दों के शहर से ,
मुर्दों के शहर में गजल का कारोबार कैसे हो.
.…
ContinueAdded by Neeraj Neer on July 16, 2013 at 10:30pm — 13 Comments
इतना ओवर री एक्ट क्यूँ कर रही हो ऋतिका! मुंह कब तक फुलाए रखोगी ऐसा क्या कर दिया मैंने? तुम ही तो चाहती थी कि मैं तुम्हारी तरह समाज सेवा करूँ इसी लिए तो उस एक्सीडेंट के केस को अपनी कार में उठा के लाया पूरी कार ब्लड से गन्दी भी करवाई ,अपने हॉस्पिटल में एडमिट भी किया और ट्रीट मेंट भी कर रहा हूँ और क्या चाहिए तुमको ? और अच्छी खासी रकम भी तो ली है ये क्यूँ नहीं कहते!!! ,ऋतिका का दबा गुस्सा मानो अचानक ज्वाला मुखी बनकर फूट निकला ,केवल दो…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 16, 2013 at 9:42pm — 15 Comments
!!! दुर्मिल सवैया !!! ......8 सगण
बदरा बरसे हरषे धरती, नदिया-सर-खेत भरे जल से।
वन-बाग झकोर हवा पहिरे, फल जामुन-आम पके जल से।।
हर ओर घटा घन घोर घिरी, मन-मोर-चकोर कहे जल से।
विरही मन नारि छली मचली, नहि प्यास बुझे बरखा जल से।।
के0पी0सत्यम/ मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 16, 2013 at 9:27pm — 10 Comments
तुम्हारे साथ की सारी कोमल टहनियां!
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कोई परिंदा भी हो
कि खलिहानों में फसलें उगाई जाएँ,
कोई पखेरू भी हो
कि दीवारों पे पानी रखा जाए,
कोई भूला भटका राही भी हो
कि कोई राह निकाली जाए
कुछ शिकस्ता भी हो कि जो जोड़ा जाए,
कोई सरगिराँ भी हो कि जिसे मनाया जाए
कोई याद भी आता हो कि जिसे भूला जाए...
वीरान दयारों में वरना.....
क्या शहनाइयां क्या सिसकियाँ?…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 7:36pm — 2 Comments
जब भी देखता था रात को जमी से चाँद को
यही सोंचता था,कि
अगर चाँद इतनी दूर से इतना खूबसूरत, इतना चमकदार नजर आता है
तो पास जाकर क्या नजारा होगा ?
यही सोंचकर एक दिन चाँद पर जा पहुंचा
पर वहां ना वो खूबसूरती नजर आई ना वो चमक
कुछ नजर आया तो बस चाँद के गाल में गड्ढे
और चाँद जला जला सा.......
तब समझ आया कि ,
मै चाँद कि जिस चमक को चाँद की खूबसूरती समझता था
वो उसकी चमक नहीं थी
कमबख्त जलाता था खुद को रातों …
Added by Kavi Pawan "Baddan" on July 16, 2013 at 5:00pm — 1 Comment
गाँव की ज़िंदगी में एक सुकून सा क्या है? खाली, काली, सरपट दौड़ती सडकों की तनहाई और दोनों बगल खड़े मुख्तलिफ (विभिन्न) दरख्तों की खामोशी भी क्यूँ अच्छी लगती है? दूर खेतों और ढलानों में चर रहीं बकरियों और गायों को देख के ऐसा क्यूँ लगता है कि ये दुनिया की सबसे बेहतरीन आर्ट गैलरी है?....जीती, जागती, पल पल नक्शोरंग बदलती.
मंडला मध्यप्रदेश सूबे का मानों दिल हो- हरियाली और ताज़गी से भरा, कहीं पहाड़ियों के आँचल से ढका तो कहीं जंगलों के बेल बूटों से सज़ा. गाँव गाँव आदिम प्रजाति के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 4:20pm — 6 Comments
मेरी मां मुझे रोज़ १० पैसे देती थी, स्कूल जाने के पहले. वही बहुत था मेरे लिए टिफ़िन में पाचक खरीद के खाने के लिए- एक पैसे के न जाने कितने हुआ करते थे, सफ़ेद अथवा पीले-सुनहरे रंग की पारदर्शी प्लास्टिक की पन्नी में, बच्चों की उँगलियों से भी बहुत पतले और सतर, ...लम्बे लिपटे हुए.
कुछ न सही तो कभी लेमनचूस की अंडाकार चपटी गोलियां ही सही.... संतरे के रस अथवा कालेनमक के स्वाद वाली नारंगी-बैंगनी गोलियां जिन्हें खा कर हमारी जीभ का रंग भी बदल जाता था और हम जीभ निकाल-निकाल के अपनी बहन…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 4:09pm — 2 Comments
जुलाई की एक सर्द और भीगी-भीगी सी शाम आस्ताने (चौखट) पे आके खड़ी थी अन्दर आने को, दिन के उजाले कब के जा चुके थे दरीचों के रास्ते, बस बादलों के पीछे जैसे उनके सायों ने कुछ देर के लिए शाम के वुजूद को नुमूदार (ज़ाहिर) कर रखने का एहसान किया हो. कूचों में बहती पानी की धारें नालियों में जाके गिर रही थीं, तो नालियों में बहते तेज़ चश्मे (झरने, पानी के रेले) की घरघराहट आने वाली सन्नाटगी का खमोशियों से ऐलान कर रही थी. कभी-कभार किसी शख्स के गुजरने की आवाज़ उसके भारी जूतों की चरमराहट से कानों से आके…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 4:05pm — No Comments
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