न मौसम बदलता है,
न एहसान चढाता है
न जलता-जलाता,
बस खुद को लुटाता है
समझता है .मेरी व्यथा
जी जान से
मेरी थकान मिटाता है
दुबला जाता कैसे
मेरे गम में
और पाकर मुझे
कुप्पे सा फूल जाता है
चाँद की बात न कर
वह तो हर रात नया रूप
यौवन भरपूर..
मुझे रिझाने में जुटा
उसका यह सिलसिला तो
सदियों से है...
उसके…
ContinueAdded by Vasundhara pandey on August 6, 2013 at 1:30pm — 25 Comments
पीड़ा ने जब कभी
शब्दों के दंश बनकर तुम्हें डंसना चाहा
प्रेम ने स्मिति बनकर अधरों को बाँध लिया...
उपेक्षाओं ने जब कभी
तुम्हारे जीवनपर्यंत त्याग का प्रण लिया
स्मृतियों की अलकों के आलिंगन ने और भी जकड़ लिया...
भावनाओं के उद्रेकों ने जब कभी
भावुकता से काम लिया
तुम्हारी परिस्थितिजन्य उदासीनता ने
मेरे विवेक को थाम लिया.....
मेरे जीवन में न होकर भी होने वाली
ओ मेरी महानायिका!
हमारा…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 6, 2013 at 12:38pm — 2 Comments
आप जब से मेरी जिन्दगी हो गई ।
आप जब से मेरी जिन्दगी हो गई ।
सारी दुनिया से मेरी दुश्मनी हो गयी ॥
आप को जो हमराज मै कह गया ।
तो दोस्तो से मेरी दुश्मनी हो गयी ॥ 1 ॥
नूर चेहरे का तेरे चाँदनी दे गया ।
देख कर चाँद भी तुझको शरमा गया ।
जो चाँद पूनम का मै तुम्हे कह गया ।
तो चाँद से भी मेरी दुशमनी हो गयी ॥ 2…
ContinueAdded by बसंत नेमा on August 6, 2013 at 11:30am — 33 Comments
वक़्त फिर बदल गया. कुछ नया तो नहीं, कुछ पुराना भी न रहा. ज़िंदगी खुद अपनी पैमाइश में छोटी होती गई. यादों के काफिले सच की राह को छोटा कर गए. मंजिल की धुन में मौजूदगी का ख़याल न रहा. मौजूदा में डूबे तो मंजिल को भूल गए. जो मिला उसमें मुहब्बत न देख पाए और जो न मिला, उसे मुहब्बत की लुटी दुनिया समझके रोते रहे. सच और परछाइयों की कशमकश में दोनों ही नुक्सानज़दा हुए क्योंकि सच परछाइयों का अक्स है और परछाइयां सच की रूमानियत- और ज़िंदगी दोनों के तवाज़ुन…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 6, 2013 at 10:18am — 2 Comments
दिल ने जब भी खुद को कुरेदा है, मेरे खून के इलावा नाखून से तेरा खून भी चिपका है. अजब है ये इत्तेफाक.... कि मुसर्रत (खुशी) का न सही तुझसे दर्द का तो रिश्ता है. शायद इसलिए ही कि दर्दज़दा हुए जब भी तो मुझे अपना दर्द गरां (भारी) लगा क्योंकि इसमें तेरे दर्द की भी न चाही गई आमेज़िश (मिश्रण) थी.
नाखून से चस्पां (चिपका) खून का इक ज़र्रा ये खबर दे गया कि तुम अभी कहाँ हो, किधर हो, किस हाल हो, तुम्हारे चेहरे का रंग ज़र्द है या सुर्ख, तुम्हारी नसों में दौड़ता खून अभी थका है या पुरजोश,…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 6, 2013 at 10:14am — 2 Comments
तुम प्रेम प्रतिज्ञा भूल गई,
मैं भूल गया दुनिया दारी,
पहले दिल का बलिदान दिया,
हौले - हौले धड़कन हारी.
खुशियाँ घर आँगन छोड़ चली,
तुम मुझसे जो मुँह मोड़ चली,
मैं अपनी मंजिल भटक गया,
इन दो लम्हों में अटक गया,
मुरझाई खिलके फुलवारी,
हौले - हौले धड़कन हारी.
मन व्याकुल है बेचैनी है,
यादों की छूरी पैनी है,
नैना सागर भर लेते हैं,
हम अश्कों से तर लेते हैं,
हर रोज चले दिल पे…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on August 6, 2013 at 9:30am — 7 Comments
हमने तुम्हारी जात पर,जब लिख दिया तो लिख दिया
कुछ बेतुके जज्बात पर;जब लिख दिया तो लिख दिया
कितना सुहाना मुल्क है, तुमने कहा अखबार में
बीमार से हालात पर जब लिख दिया तो लिख दिया
जब से खुले बाजार की रख्खी गयी है नींव तो
हरदिन लगे आघात पर जब लिख दिया तो लिख दिया
नक्कारखाना बन गया, सुनता नहीं, कोई कहीं
दिन-रात के उत्पात पर जब लिख दिया तो लिख दिया
कश्ती भंवर में है परेशां, नाखुदा कोई नहीं
फिर…
ContinueAdded by Dr Lalit Kumar Singh on August 6, 2013 at 6:30am — 18 Comments
हे शान्त स्निग्ध जल की धारा
तुम कलकल कलरव की हो गान
हो लिपटे बेलों की वितान
तुम वसुन्धरा की शोभा हो
हे आन मान सरिता महान
तुझमे दिखता जीवन सारा
हे शान्त स्निग्ध जल की धारा
तुझमे निज-छवि लखते उडगन
यह विम्ब देख हर्षाता मन
सुषमा ऐसी नयनों मे बसा
रहता बस मे किसका तन मन
दिखता तुझमे चन्दा प्यारा
हे शान्त स्निग्ध जल की धारा
हे मिट्टी की सोंधी सुगन्ध
बाँधे सबको जो पाश…
ContinueAdded by आशीष यादव on August 5, 2013 at 11:30pm — 15 Comments
तुम एक दिन तपकर तो देखो
अपने महलों से निकलकर तो देखो
आओ हम वहां चलते हैं
जहां ईंट बनती है
वो मिट्टी जो रात भर गलती है
बार –बार कटती है ,
तब सांचे में ढलती है
फिर भट्टी में तपती है
तब कहीं वो ईंट बनती है
जो आपके महलों की नींव बनती है
मौलिक व अप्रकाशित
Added by hemant sharma on August 5, 2013 at 11:00pm — 15 Comments
इसी रास्ते से गुजरते रहे हम
दुआ जानते थे सो करते रहे हम
अब आये कभी गम तो फिर देख लेंगे
यही सोच कर बस संवरते रहे हम
उठाते बिठाते जगाते रहे है
मुकद्दर को झोली में भरते रहे हम
कोई है जो अन्दर, यही देखता है
कब उसकी निगाहों में गिरते रहे हम
समझ लें जो खुद को यही बस बहुत है
‘जो मैं हूँ’ , उसीसे तो डरते रहे हम
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Dr Lalit Kumar Singh on August 5, 2013 at 9:44pm — 8 Comments
वज्न / २१२२ २१२२ २१२
चाह थी जिनकी, हमारे मिल गये
गुम कहीं थे ख्वाब, सारे मिल गये.
एक धागा बेल के धड़ से मिला
बेसहारों को सहारे मिल गये
.
हम अकेले, भीड़ थी, तन्हाई थी
और तुम बाहें पसारे मिल गये
.
डूबती नैया के तुम पतवार हो
साथ तेरे हर किनारे मिल गये
.
देख तुमको, जी को जो ठंडक हुयी
यूँ कि नजरों को नजारे मिल गये
.
सच अगरचे, देख के अनदेख हो
झूठ जीतेगा, इशारे…
ContinueAdded by वेदिका on August 5, 2013 at 8:59pm — 49 Comments
( २१२२ २१२२ २१२ )
क्या हुआ कोशिश अगर ज़ाया गई
दोस्ती हमको निभानी आ गई |
बाँधकर रखता भला कैसे उसे
आज पिंजर तोड़कर चिड़िया गई |
चूड़ियों की खनखनाहट थी सुबह
शाम को लौटी तो घर तन्हा गई |
लहलहाते खेत थे कल तक यहाँ
आज माटी गाँव की पथरा गई |
कैस तुमको फ़ख्र हो माशूक पर
पत्थरों के बीच फिर लैला गई |
आज फिर आँखों में सूखा है 'सलिल'
जिंदगी फिर से तुम्हें झुठला गई |
-- आशीष नैथानी 'सलिल'…
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on August 5, 2013 at 8:00pm — 16 Comments
!!! हाथ नर मलता गया है !!!
बह्र-----2122 2122
भोर जो महका गया है।
सांझ को उकसा गया है।।
रास्ते का ढीठ पत्थर,
पैर से टकरा गया है।
चोट लगती दर्द होता,
आह पहचाना गया है।
ऐ खुदा अब तो बता दे!
राह क्यों रोका गया है?
जान कर अति दर्द उसका,
आंख जल ढरका गया है।
हाय ये तकदीर खेला,
खेल कर घबरा गया है।
कल यहां यमराज देखो,
काल को धमका गया…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 5, 2013 at 8:00pm — 16 Comments
Added by Ravi Prakash on August 5, 2013 at 7:27pm — 13 Comments
एक गज़ल =
============
मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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वही नग्मॆं वही रातॆं, वही ख़त और आँसू भी ॥
सतातॆ हैं हमॆं मिलकॆ, मुहब्बत और आँसू भी ॥१॥
कभी हँसना कभी रॊना,कभी खॊना कभी पाना,
सदा रुख़ मॊड़ लॆतॆ हैं,तिज़ारत और आँसू भी ॥२॥
हमारॆ नाम का चरचा, जहाँ दॆखॊ वहाँ हाज़िर,
नहीं जीनॆ हमॆं दॆतॆ, शिकायत और आँसू भी ॥३॥
हमॆं इल्ज़ाम दॆता है, ज़माना बॆ-वफ़ा कह कॆ,
नहीं अब…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on August 5, 2013 at 7:00pm — 26 Comments
साहित्य अपने आप मे एक बहुत बड़ा विषय है इस पर जितनी भी चर्चा की जाए कम ही होगी । साहित्य का शाब्दिक अर्थ स+ हित अर्थात हित के साथ या लोक हित मे जो भी लिखा जाय या रचा जाए वह साहित्य होता है। और धर्मिता का शाब्दिक अर्थ है ध + रम यहाँ ध अक्षर संस्कृत के धृ धातु का विक्षिन्न रूप है जिसका अर्थ है धारण करना और रम भी संस्कृत के रम् धातु से उद्भासित है जिसका अर्थ है रम जाना या तल्लीन हो जाना । इसी को धर्मिता कहते हैं । लोक हित को धारण कर उसी मे रम जाना ये हुई साहित्य धर्मिता। अब प्रश्न यहाँ यह उठता…
ContinueAdded by annapurna bajpai on August 5, 2013 at 6:55pm — 4 Comments
देहरी पर मन के
किसने रख दिए दो पाँव,
बस गया दो पल में जैसे
एक सुन्दर गाँव!
गुप्तचर आँखों ने ढूंढें
रूप के कुछ ठौर,
मन अपेक्षी हर कदम
कहता रहा, कुछ और.
कब मिले जाने इसे अब
कोई अंतिम ठांव!
चितवनों के गाँव में
बिखरे अगिन संकेत,
किन्तु जल की आड़ में
छलती गयी है रेत.
रूपसी खेलेगी मुझसे
और कितने दांव!
ले नदी सब नीर अपना
चल पड़ी किस ओर,
चंचला…
ContinueAdded by Saurabh Srivastava on August 5, 2013 at 5:44pm — 10 Comments
मधुशाला खुलती गयी, विद्यालय के पास,
आजादी जब से मिली, ऐसा हुआ विकास |
ऐसा हुआ विकास, मिले शराब के ठेके
आय करे सरकार, नेता रोटियाँ सेकें
शिक्षा पर हो ध्यान, उन्नत हो पाठशाला
शिक्षालय के पास, हो न कोई मधुशाला |
(२)
रंगत बदले मनुज अब, गिरगिट भी शर्माय
गिरगिट पुनर्जन्म धरे, नेता बनकर आय |
नेता बनकर आय, क्षमता और बढ़ जावे
पेटू बनकर खाय, खाकर डकार न लावे
ईश्वर करे सहाय, पाये न इनकी संगत,
सूझे न…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 5, 2013 at 3:00pm — 24 Comments
अच्छा !!!!
तो प्रेम था वो !!!
जबकि केंद्रित था लहू का आत्मिक तत्व
पलायन स्वीकार चुकी भ्रमित एड़ियों में !
किन्तु -
एक भी लकीर न उभरी मंदिर की सीढियों पर !
एड़ियों से रिस गईं रक्ताभ संवेदनाएं !
भिखमंगे के खाली हांथों की तरह शुन्य रहा मष्तिष्क !
हृदय में उपजी लिंगीय कठोरता के सापेक्ष
हास्यास्पद था-
तोड़ दी गई मूर्ति से साथ विलाप !
विसर्जित द्रव का वाष्पीकृत परिणाम थे आँसू…
ContinueAdded by Arun Sri on August 5, 2013 at 11:30am — 15 Comments
बार बार भीड़ में
ढूँढता हूँ
अपना चेहरा
चेहरा
जिसे पहचानता नहीं
दरअसल
मेरे पास आइना नहीं
पास है सिर्फ
स्पर्श हवा का
और कुछ ध्वनियाँ
इन्हीं के सहारे
टटोलता
बढ़ता जा रहा हूँ
अचानक पाता हूँ
खड़ा खुद को
भीड़ में
अनजानी, चीखती भीड़ के
बीचों बीच
कोलाहल सा भर गया
भीतर तक
कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती
शब्द टकराकर…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 11:30am — 34 Comments
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