"मैं जा रही हूँ घर छोड़कर, मुझे रोकना मत", फोन पर रितू को ये कहते सुनकर सलिल चौंक गया|
"क्या हुआ, मैंने तो सब कुछ भुला दिया है, तुम भी क्यूँ नहीं भूल जाती सब कुछ", उसने तुरंत पूछा|
"वही तो नहीं कर पा रही हूँ, मैं इंसान हूँ, तुम्हारी तरह देवता नहीं", बोलते बोलते वो सुबकने लगी|
"मैं आ रहा हूँ, एक बार मिलने के बाद बेशक चली जाना, मैं रोकूंगा नहीं", कहते हुए उसने फोन रख दिया और ऑफिस से निकल कर घर चल पड़ा| घर पहुँचा तो दरवाज़ा खुला हुआ ही था, वो अंदर कमरे में पहुँचा, रितू अपना…
Added by विनय कुमार on August 17, 2016 at 1:30pm — 8 Comments
Added by Manan Kumar singh on August 17, 2016 at 9:30am — 4 Comments
2122 2122 212 -
की मुहब्बत पर न जल जाना हुआ
जल उठूँ, ऐसा न मस्ताना हुआ
इक अक़ीदत बढ के मस्ज़िद हो गई *--- श्रद्धा
इक अक़ीदा चल के बुतखाना हुआ ---- विश्वास ,
वो न आयें, तो रहीं मजबूरियाँ
हम न पहुँचे तो ये तरसाना हुआ
बात उनकी सच बयानी हो गई
हम हक़ीक़त जब कहे , ताना हुआ
आपने कैसी खुशी बाँटी हुज़ूर
चेह्रा चेह्रा आज ग़मख़ाना हुआ
चाहते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 17, 2016 at 9:30am — 14 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 16, 2016 at 9:00pm — 6 Comments
बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२
आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै
फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै
दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै
स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै
आग प्यार की बुझने लग गई हो गर ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2016 at 9:00pm — 16 Comments
हौसला टूट चुका है, अब यकीन कहीं जख्मी बेजान मिलेगा,
कि जब तुम लौट कर आओगे तो सब वीरान मिलेगा ll
वो बरगद का पेड़ जहां दोनों छुपकर मिला करते थे,
वो बाग जहां सब फूल तेरी हंसी से खिला करते थे,
वो खिड़की जहां से छुपकर तुम मुझे अक्सर देखा करती थी,
वो गलियां जो हम दोनों की ऐसी शोख दिली पर मरती थीं,
वो बरगद,वो गलियां, वो बाग बियाबान मिलेगा,
कि जब तुम लौट कर आओगे……………l
खेत-खलिहान तक तुमको बंजर मिलेगा,
मेरी दुनिया का बर्बाद मंजर…
Added by Er Anand Sagar Pandey on August 16, 2016 at 6:30pm — 3 Comments
२२१ २१२१ १२२१ २१२
पगडंडियों के भाग्य में कोई नगर कहाँ ?
मैदान गाँव खेत सफ़र किन्तु घर कहाँ ?
होठों पे राह और सदा मंज़िलों की बात
पर इन लरजते पाँव से होगा सफ़र कहाँ ?
हम रोज़ मर रहे हैं यहाँ, आ कभी तो देख..
किस कोठरी में दफ़्न हैं शम्सो-क़मर कहाँ ?
सबके लिए दरख़्त ये साया लिये खड़ा
कब सोचता है धूप से मुहलत मगर कहाँ !
जो कृष्ण अब नही तो कहाँ द्रौपदी कहीं ?
सो, मित्रता की ताब में कोई असर कहाँ ?
क़ातिल…
Added by Saurabh Pandey on August 16, 2016 at 4:00pm — 27 Comments
इन्सां के लिए ... (क्षणिकाएं)
1 .
एक पत्थर उठा
शैतां के लिए
एक पत्थर उठा
जहां के लिए
एक पत्थर उठा
मकां के लिए
देवता बन
जी उठा
एक पत्थर
इन्सां के लिए
...... ..... ..... .....
२.
मैं आज तक
वो रिक्तता
नहीं नाप सका
जिसमें
कोई माँ
अपने जन्मे को
तन्हा छोड़
ब्रह्मलीन हो जाती है
मन को शून्यता की
क़बा दे जाती है
..... ..... ..... ..... .....
३.
हमने
प्रवाहित कर दी थी…
Added by Sushil Sarna on August 16, 2016 at 2:19pm — 10 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on August 16, 2016 at 1:16pm — 11 Comments
मैदान के किनारे सड़क के पार टपरी के बाहर वह माथे पर शिकन लिये बेचैन -सा बैठा है।अंदर बच्चा पिछले कई घंटों से रोये जा रहा था। पिछले कई दिनों से उसे बुखार है। सरकारी दवाई बेअसर थी। सामने पूरे मैदान में शामियाना लगा हुआ है। बैंड-बाजे की आवाज शोर बनकर कान को फाड़ने पर तुली हुई थी।
उसके घर में आज समस्त फसाद की जड़ ये बैंड-बाजा ही थी। पकवानों की सुगंध अमीर -गरीब का घर कहाँ देखती , बिना पूछे सीधे अंदर घुस आई।
पकवानों की सुगंध से मचलता खाने को तरसता बीमार बच्चा ,अब उसे कैसे…
ContinueAdded by kanta roy on August 16, 2016 at 10:57am — 6 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 15, 2016 at 11:04pm — 6 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 15, 2016 at 6:22pm — 1 Comment
ग़ज़ल ( जश्ने आज़ादी )
---------------------------
शिकवे गिले भुलाकर उल्फत को हम बढ़ाएं ।
मिल जुल के आओ जश्ने आज़ादी हम मनाएं ।
तोड़ें न मंदिरों को मस्जिद नहीं गिराएं ।
माहौल एकता का हम देश में बनायें ।
क़ुर्बानियों से जिनकी आज़ाद हम हुए हैं
हम उनके हक़ में आओ दस्ते दुआ उठायें ।
उल्फत से हम रहेंगे झगड़ा नहीं करेंगे
क़ौमी निशाँ के नीचे आओ क़सम ये खाएं।
गैरों ने जिस अदा से अपने वतन को लूटा
अपनों को भा गयी हैं शायद वही अदाएं ।
बस…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on August 15, 2016 at 1:47pm — 12 Comments
Added by Sushil Sarna on August 15, 2016 at 11:31am — 8 Comments
चौराहे नाके पर बालक
बेच रहा है आज तिरंगा
झंडे लेकर उससे इक दो
कुछ पैसे उसको दे डालो
फिर गाडी में उन्हें लगा कर
आज़ादी की रस्म निभा लो
खाली हाथों घर जो लौटा
बाप करेगा पी कर पंगा
शनि लेकर कल घूम रहा था
सरसों तेल व जलती बाती
भूखे बच्चे चौराहे पर
कब बीतेगी साढ़े साती
रोजी उसकी ही खा जाता
खादी जाली का हर दंगा
बीते न बस रस्मी…
ContinueAdded by pratibha pande on August 15, 2016 at 11:18am — 4 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 14, 2016 at 9:10pm — No Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 14, 2016 at 6:16pm — 8 Comments
भ्रम ....
कितनी देर तक
तुम अपने जाने से पहले
मुझे ढाढस बंधाते रहे
मेरी अनुनय विनय को
अपनी मजबूरियों के बोझ से
बार बार दबाते रहे
तुम्हारे दो टूक शब्दों का
मुझपर क्या असर होगा
तुमने एक बार भी न सोचा
बस कह दिया
मुझे जाना होगा
कब आना हो
कह नहीं सकता
मैं अबोध अंजान
क्या करती
सिर हिला दिया
नज़रें झुका ली
अपनी व्यथा
पलकों में छुपा ली
तुम्हारे कठोर शब्दों का…
Added by Sushil Sarna on August 14, 2016 at 4:30pm — 2 Comments
कुण्डलिया
हुलसी माँ की गोद में सुन्दर सुत अभिराम
जन्म समय जिसने किया उच्चारण श्री राम
उच्चारण श्री राम रामबोला कहलाया
सुख से था वैराग्य कष्ट जीवन भर पाया
कहते हैं ‘गोपाल’ बना तृण से वह तुलसी
जितना रहा अभाव भक्ति उतनी ही हुलसी
मनहर घनाक्षरी
किया रचना विचार भाषा में प्रथम बार
बह चली रस-धार भाव और भक्ति की
देख कविता का रंग विदुष समाज दंग
हुई…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 14, 2016 at 3:26pm — 4 Comments
2122 2122 2122 2122
शोध पेपर इक कहानी ऐसी बनते जा रहे हैं
जिसमे नित नव कल्पना के पंख लगते जा रहे है
सारी दुनिया के रसायन आज हैराँ सोचकर ये
हम जहाँ जुड़ ही नहीं सकते थे जुड़ते जा रहे हैं
आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जाने
शोध', चूहे -खरहों के पर प्राण हरते जा रहे हैं
मोतियों से दांत दिखला पेस्ट जो करते प्रचारित
नीम की दातून से निज दांत घिसते जा रहे हैं
रोज अखबारों को पढ़कर दे रहे हैं…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on August 14, 2016 at 11:09am — 5 Comments
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