Added by Dr. Vijai Shanker on August 7, 2018 at 7:59pm — 11 Comments
मौन
मौन में शाश्वत सुख है, शब्द में आक्रन्द है
शब्द नहीं अनिवार्य होते दो दिलों की चाह में
सब समझ लेते हैं प्रेमी सिर्फ़ अपनी आह मे
मन से मन का मेल है तो नीरवता भी छंद है
मौन मेंशाश्वत..........
शब्द की तो एक सीमा,अविरत होता मौन है
शब्द के तो बाण होते मौन कितना सौम्य है
मौन में तो सहजता है, शब्द में पाखंड है
मौन में शाश्वत ...........
क्या कहुँ,कितना कहुँ,किसको कदुँ क्योंकर कहुँ
सच्चा कहुँ,मिथ्या कहुँ,मैं ये कहुँ या वो कहुँ…
Added by Kishorekant on August 7, 2018 at 6:12pm — 4 Comments
पीड़ा के ताप से,
पिघल रही मन की हिमानी
दो आँखें हुई हैं यमुनोत्री गंगोत्री
कंठ क्षेत्र देव प्रयाग हुआ है
जहाँ अलकनंदा और भगीरथी
की धाराएं आकर मिल रहीं
और हृदय क्षेत्र-हरिद्वार को
भिंगों रहीं
आप इसे रोना कह सकते हैं
लेकिन मैं अपना दुःख बहा रहा हूँ
अपने बैलों के साथ मर चुके किसान के प्रति
अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूँ
शायद इससे अधिक कुछ कर नहीं सकता?
ना!!!!
सच ये है कि इससे ज्यादा कुछ करना ही नहीं चाहता
ख़ैर, …
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 6, 2018 at 11:00pm — 9 Comments
122 122 122 122
न जाने मुहब्बत में क्या चाहते हैं ।
जरा सी वफ़ा पर वो दिल मांगते हैं ।।
जिन्हें कुछ खबर ही नहीं दर्द क्या है ।
वही ज़ख़्म मेरा बहुत देखते हैं ।।
अगर वास्ता ही नहीं आपसे है ।
मेरा हाले दिल आप क्यूँ पूछते हैं ।।
असर चाहतों का दिखा फिर है उनका ।
अदाओं में चिलमन से जब झांकते हैं ।।
जो ठुकरा दिए थे मेरी बन्दगी को ।
मेरे घर का वो भी पता ढूढते हैं ।।
जुदाई में हमको ये तोहफ़ा…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on August 6, 2018 at 10:33pm — 7 Comments
(फाइ ला तुन _फ इ लातुन _फ इ लातुन _फे लुन)
घर की बर्बादी के हालात नज़र आते हैं |
उनके तब्दील खयालात नज़र आ ते हैं |
सिर्फ़ मेरी ही नहीं उनसे तलब मिलने की
वो भी मुश्ताक़े मुलाकात नज़र आ ते हैं |
जिनके वादों ने हसीं ख्वाब दिखाए मुझको
उफ़ बदलते हुए वो बात नज़र आ ते हैं |
उनकी यादों को भुलाऊँ तो भुलाऊँ कैसे
वो तसव्वुर में भी दिन रात नज़र आ ते हैं |
बे असर यूँ न हुईं मेरी वफाएँ यारो
उनके सोए हुए…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on August 6, 2018 at 6:49am — 26 Comments
"ए ऑटो वाले भैया! 'दिन्नू' तक के क्या लोगे?"
"..द..द..दिन्नू?"
"हां, भय्या 'दीनू जंक्शन'! मतलब नये नाम वाले 'डीडू यानि कि 'डीडीयू'!"
"पढ़ी-लिखी तो लगती हो आप! पूरा सही नाम 'दीनदयाल उपाध्याय' क्यों नहीं बोल पा रहीं? हम तो वहीं के चक्कर लगाते हैं न! आइए बैठिये; दस रुपये यहां से, बस!"
"भैया, पूरा नाम तो भाषण देने वाले ही कह पायेंगे! हमारे पास इतना टाइम कहां?"
"तो 'दीनसराय' कहो या फिर 'मुगलसराय' ही कहती रहो न! इसके लिए तो टाइम भी है…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 6, 2018 at 2:00am — 9 Comments
ये हवा कैसी चली है आजकल
सब यहाँ दिखते दुखी हैं आजकल
दुख किसीको है अकेला क्यों खड़ा
और किसीको भीड का ग़म आजकल
है शिकायत नौजवाँ को बाप से
बाप को लगता वो बिगड़ा आजकल
मायने हर चीज के बदले यहाँ
है नहीं अच्छा बुरा कुछ आजकल
बाँटकर खाने के दिन वो लद गये
लूटलो जितना सको बस आजकल
मुल्क के ख़ातिर गँवाते जान थे
क़त्ल करते मुल्कमें ही आजकल
क़ौल के ख़ातिर गँवायें जान…
ContinueAdded by Kishorekant on August 5, 2018 at 9:30pm — 9 Comments
"ऑफ़ ओह! शीला मैं तो तंग आ गया हूँ, तुम्हारे हाथ में चौबीसों घण्टे मोबाइल को देखकर।" शीला अपनी धुन में थी, नित्यक्रम से निबट कर टी.वी. के आगे अपना मनपसन्द सीरियल देख रही थी और साथ में उसकी उँगलियॉ मोबाइल पर लगातार चल रही थी। शीला की सास, और ससुर जी भी वहीं बैठे हुए थे। वे तपाक से बोले," शेखर की माँ! मुझे तुम्हारी जवानी याद आ रही है...।" शीला के कान चौकन्ने हो गये, वह उनकी तरफ देख रही थी। ससुर जी उसके देखने का आशय समझ गये; उन्होंने कहा,"अरे उस ज़माने में यह मुआ मोबाइल -शोबाइल नहीं था, तुम्हारी…
ContinueAdded by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 5, 2018 at 9:25pm — 11 Comments
2122 2122 212
जब सँभलना आदमी को आ रहा
घुट्टियों का खेल खेला जा रहा।1
पाँव भारी हो गए हैं शब्द के
अर्थ क्या से क्या निकाला जा रहा।2
क्या कुलाँचे भर सकेगा अब शशक
घाव घुटनों में मुआ चिपका रहा।3
थम गई थीं आँधियाँ दुर्द्वंद्व की
कौन जहरीली हवा भड़का रहा?4
चैन से नीरो बजाता बंसियाँ
धुन वही हर शख्स फिर-फिर गा रहा।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on August 5, 2018 at 8:03pm — 3 Comments
छटपटाहट
समझ नहीं पाता हूँ
उदासी से भरी गुमसुम निस्तब्धता
अनदीखे अन्धेरे में वेदना का
चारों ओर सूक्षम समतल प्रवाह
पास हो तुम, पर पास होकर भी
इतनी अलग-सी, व …
ContinueAdded by vijay nikore on August 5, 2018 at 8:00pm — 14 Comments
2122 2122 212
जब सँभलना आदमी को आ रहाAdded by Manan Kumar singh on August 5, 2018 at 7:30pm — 8 Comments
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 5, 2018 at 7:11pm — 3 Comments
2122-2122-2122-212
आप को जाना ही है तो आज कल इतवार क्यों।
तोडना गर दिल ही है तो प्यार और मनुहार क्यों।।
आप की नजरें बयाँ क्यों कर बहाना है नया ।
आप की यह भीगती पलकों में ये उपहार क्यों।।
शौख था गर भूलना ही भूल जाते बे -शबब।
खुशबुएँ ज़ेहनी , अभी भी कर रहे गुलजार क्यों।।
रोक लो यह छटपटाती रूह का एहसास है ।
जल चुका है आशियाँ जो खोज इसमें प्यार क्यों।।
देखना गर चाहते हो मेरे चेहरे में ख़ुशी।
हाथ में लेकर खड़े हो आप…
Added by amod shrivastav (bindouri) on August 5, 2018 at 1:01pm — 4 Comments
लघु रचना : यथार्थ ...
एक मैं
चल दिया
एक मैं को
छोड़कर
एक यथार्थ
आभास हो गया
एक आभास
यथार्थ हो गया
जिसका वो अंश था
उस अंश में
उस यथार्थ का
वास हो गया
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on August 5, 2018 at 11:05am — 13 Comments
"अरे रुको! तुम हमारी मिहनत को यूं बरबाद नहीं कर सकते! हटाओ अपनी ये झाड़ू! रोको अपना खोखला मिशन!" अपने माथे की ओर की अपनी डोर में टपकती मकड़ी की चुनौती सुनकर भय्यन के हाथ से मकड़जाल की ओर जाती झाड़ू डंडे सहित नीचे गिर पड़ी।
"न तो तुम जैसे आम आदमी हमारे शिकारों को बचा सकते हो, न ही तुम्हारे तथाकथित सेवक और सरकारी या प्राइवेट रक्षक! सबको भक्षक और ग्राहक बनाना हमें बाख़ूबी आता है, समझे!" उस बड़ी सी मकड़ी ने मकड़जाल में फंसे और तड़पते 'बड़े से कीड़े' को देखते हुए भय्यन से कहा - "हमारी पहुंच और…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 5, 2018 at 9:05am — 4 Comments
2122 1122 1122 22
कुछ धुंआ घर के दरीचों से उठा हो जैसे ।
फिर कोई शख्स रकीबों से जला हो जैसे ।।
खुशबू ए ख़ास बताती है पता फिर तेरा ।
तेरे गुलशन से निकलती ये सबा हो जैसे ।।
बादलों में वो छुपाता ही रहा दामन को ।
रात भर चाँद सितारों से ख़फ़ा हो जैसे ।।
जुल्म मजबूरियों के नाम लिखा जायेगा ।
बन के सुकरात कोई ज़ह्र पिया हो जैसे ।।
खैरियत पूँछ के होठों पे तबस्सुम आना ।
हाल ए दिल मेरा तुझे खूब पता हो जैसे…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on August 4, 2018 at 9:03pm — 14 Comments
एक ग़ज़ल.......
122 122 122 122
नजर है तो पढ़िए गजल झुर्रियों में
ये चेहरा कभी है रहा सुर्खियों में।
वतन को सजाने के वादे किए थे
सदा आप उलझे रहे कुर्सियों में।
मसीहा समझ के था अगुवा बनाया
मगर आप भी ढल गए मूर्तियों में।
चढ़ाया हमीं ने उतारेंगे हम ही
पलक के झपकते, यूँ ही चुटकियों में।
अरुण के इशारे समझ लें समय है
नसीहत को गिनिए नहीं धमकियों में।।
(मौलिक व अप्रकाशित)☺
Added by अरुण कुमार निगम on August 4, 2018 at 8:00pm — 5 Comments
हर तरफ बस दिख रहा इंसान है
हाँ, मगर अपनों से वो अंजान है
थे कभी रिश्ते भी नाते भी मगर
आजतो यह सिर्फ इक सामान है
जिसको कहते थे कभी काबिल सभी
सबकी नज़रों में वो अब नादान है
जिसको सौंपी थी हिफाज़त बाग़ की
बिक रहा उसका ही अब ईमान है
हर तरफ बैठे शिकारी घात में
चंद लम्हों का वो अब मेहमान है
था कभी गुलज़ार जो शाम-ओ-सहर
अब वही दिखने लगा शमशान है
जिसने देखे अम्न के सपने कभी
अब उसी का टूटता अरमान है …
Added by विनय कुमार on August 4, 2018 at 6:30pm — 11 Comments
1222,1222, 1222, 1222
चलो ये बोझ भी दिलपर उठाकर देख लेते हैं
किसीको हम ज़रा दिलमें बसाकर देख लेते हैं
जियेगें किस तरह तन्हाँ यहाँ साथी अगर छूटा
यहाँ जो बेवजह रूठा मनाकर देख लेते हैं .....
कहाँतक हार है अपनी ज़रा इसका पता करलें
यहाँ भी ईक नयी बाज़ी लगाकर देख लेते है....
कहो कैसे यक़ीं तुमको दिलायें आशनाई का.
लगेहैं जख्म जो दिल पर दिखाकर देख लेते हैं
जमींपर जो नहीं मिलते वो मिलते आसमानों पर
चलो…
Added by Kishorekant on August 4, 2018 at 5:30pm — 5 Comments
हँस पड़ती हूँ ,
अक्सर मैं,
मुझे तोड़ने में
मशगूल,
अपनी अमोल ऊर्जा,
व्यर्थ करते उन,
मिथ्या हितैषियों को
देखकर,
टूटन को नित,
यूँ पान करती
आई हूँ कि,
ये गरल तो मेरी
हर श्वांस में
घुला-मिला है,
इसे नित जीकर....
कि इसके बिना,
हल्की-हल्की सी,
श्वांसों पर यकीं
ना होना
लाजिमी है,
तिल भर भी तो,
नहीं बची है,
कोई जगह
जहाँ किसी को
अवसर मिले,
मुझे…
Added by Arpana Sharma on August 4, 2018 at 3:40pm — 6 Comments
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