हिंदी दिवस की शुभकामनाओं सहित ये रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ
ये गंगा सी निर्मल पावन ये स्वर रुपी कालिंदी है
इस जग में जो सबसे सुन्दर वो मेरी भाषा हिंदी है
ये सुन्दर सरल सजीली है,
भाषा ये बहुत सुरीली है
ये नव रस और छंदों से युक्त
मन भावन मधुर पतीली है
ये भारत माँ के माथें में सूरज सी दमके बिंदी है
इस जग में जो सबसे सुन्दर वो मेरी भाषा हिंदी है
ये प्रेम की मीठी भाषा है
भारत की प्राण पिपासा…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 14, 2012 at 1:02pm — 7 Comments
एक मेरी कल्पना , एक मेरी अर्चना
हिंदी में ही स्वर सजें, हिंदी में ही गर्जना
माथे की बिंदी भी कही क्यूँ , ढूँढती अस्तित्व अपना
क्यूँ नहीं हमने निभाया माँ , भाष्य का दायित्व अपना
बहके हुए है हम सदा से , भाषा इंगलिस्तान में
बोलने में क्यूँ लाज आये, हिंदी हिंदुस्तान में
राष्ट्र के माथे की बिंदी , क्यूँ सभी हम नोचते
क्यों नहीं ये प्रण भी लेते , हिंदी में ही बोलते
Added by Ashish Srivastava on September 14, 2012 at 12:30pm — 5 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on September 14, 2012 at 11:30am — 19 Comments
हिंदी दिवस पर समस्त ओ बी ओ के सम्मानित सदश्यों का हार्दिक शुभ कामनाए
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 14, 2012 at 11:00am — 10 Comments
हिन्दी अपनी जान है, हिन्दी है पहचान.
देश हमारा हिन्दवी, प्यारा हिन्दुस्तान.
प्यारा हिन्दुस्तान, जहाँ भाषा का मेला.
सबको दें सम्मान, करें नहिं कोई खेला.
'अम्बरीष' हो गर्व, देख माथे की बिंदी.
दुनिया भर में आज, छा रही अपनी हिन्दी..
--अम्बरीष श्रीवास्तव
Added by Er. Ambarish Srivastava on September 14, 2012 at 9:30am — 16 Comments
(१) फूटे बम चल जाए गोली,
नहीं निकलती मुँह से बोली |
बाहर आता खाने राशन,
क्या भई चूहा? नहिं रे "शासन" ||
(२) ताने घूँघट औ शरमाए,
तड़पा के मुखड़ा दिखलाए |
रोज दिखाए जलवा ताजा,
क्या मेरी भाभी? नहिं तेरा "राजा" ||
(३) चलते पूरी सरगर्मी से,
सुनते ताने बेशर्मी से |
बातों से पूरे बैरिस्टर,
क्या कोई लुक्खा? नहिं रे "मिनिस्टर" ||
(४) बातों से लगता है झक्खी,
नहीं भिनकने आती मक्खी |
डांटे मैडम बँधती घिग्गी,
क्या कोई पागल? नहिं रे…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 14, 2012 at 8:18am — 6 Comments
Added by Brajesh Kant Azad on September 14, 2012 at 12:00am — 5 Comments
भ्रष्टता के इस युग में
हर कोई समाज सुधारक है,
देखता है, विचारता है
समाज में व्याप्त घृणित बुराइयों को,
करता है प्रतिकार पुरजोर तरीके से
हर एक बुराई का,
लड़ता है सच के लिए,
बावजूद, क्यों अंत नहीं होता
किसी भी बुराई का,
बल्कि बढ़ती जा रही
बुराइयाँ, दिन-प्रतिदिन,
वजह मात्र एक,
हरेक मनुष्य सुधारता औरों को,
नहीं दिखती किसी को भी
कमियाँ अपनी,
करते नजरअंदाज
अपने अवगुणों को,
कैसे सुधरेगा समाज
जब…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 13, 2012 at 10:30pm — 10 Comments
भारत माता की वाणी
हिंदी से जुडा
पावन अवसर,
आओ करें संकल्प
करेंगे इसका प्रयोग
हर स्तर पर...
हम रहें कहीं भी
नहीं भूलते
जैसे अपनी माँ को,
याद रखेंगे वैसे ही
हम हिंदी की गरिमा को...
इन्टरनेट पर
जहाँ कहीं भी
अंग्रेजी हो मजबूरी,
वहाँ छोड़कर
हो प्रयास कि
हिंदी से हो कम…
Added by VISHAAL CHARCHCHIT on September 13, 2012 at 10:00pm — 6 Comments
Added by Sachin Dev on September 13, 2012 at 5:30pm — 7 Comments
आज पैंतीस साल बाद उसकी आवाज सुनी
Added by rajesh kumari on September 13, 2012 at 3:30pm — 23 Comments
जानूं नहीं ये मेरी उलझन
कहां ठिकाना पाएगी
कबतक जीवन यूं ही मुझको
चौराहों तक लाएगी
जिसको भी आवाज लगाई
वही मिला घबराया सा
घनी धुंध की परत लपेटे
सुबह भी था कुम्हलाया सा
जाने कौन गढ़े जा रहा
दीवारों पर ठिगने साए
खोह-कन्दरा-तमस छुपाके
नीले पड़ गए हमसाए
स्वर्ण छुआ तो राख मिली
राई-रत्ती भी खाक मिली
बस कोहरे ही रह गए हमारे
फूलों में भी आग मिली
जो करीब थे दूर हुए
सुख के पल कर्पूर हुए
शेष बची जो थोड़ी…
Added by राजेश 'मृदु' on September 13, 2012 at 2:00pm — 4 Comments
उत्तरदायित्व
कार्यालय में कुछ ज्यादा ही गहमागहमी का माहौल था । नये साहब प्रभार ग्रहण कर रहे थे जो कड़े अनुशासन और अपने सख्त स्वभाव के लिए जाने जाते हैं | प्रभार ग्रहण करने के साथ ही उन्होंने पहला सवाल दागा - "कार्यालय की कार्यावधि क्या है ? और, सभी कर्मी कब तक कार्यालय आ जाते हैं |"
"सर कार्यालय अवधि सुबह १० बजे से शायं ५ बजे तक है और सभी कर्मचारी अमूमन ११ बजे तक आ ही जाते हैं."
"अब ऐसा नहीं चलेगा, कल से सबकी उपस्थिति सुबह १० बजे देखी जायेगी…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 13, 2012 at 1:30pm — 36 Comments
मायूसियों ने आज फिर दस्तक दी
खयालो के बंद दरवाजो से निकल
मन के आँगन में बिखरने को
बेताब सी मायूसियाँ
लेकिन आस की एक लौ
जिससे रोशन है दिल की बस्तियाँ
मुस्कुरा के बोली बुझने ना देना मुझे
जीवन में आयेंगे कठोर थपेड़े
वक़्त की आंधियों में
हमने मिटती देखी हैं
इन थपेड़ो की गिरफ्त में कई हस्तियाँ
जिंदगी की उलझनों से…
Added by Kiran Arya on September 13, 2012 at 1:30pm — 20 Comments
न सूरज पश्चिम से ऊगे , न पूरव में होगा ढलना
इस युग में कैसे संभव हो फिर तेरा और मेरा मिलना
तुम फेसबुक की टाइम लाइन
मैं ऑरकुट बहुत पुराना हूँ
तुम काजू किशमिश के जैसे
मैं तो बस चना का दाना हूँ
तुम अमरीका के डालर…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on September 13, 2012 at 12:14pm — 16 Comments
एक राष्ट्र एक टोली, एक भाव एक बोली,
हिंदी से ही हो सकेगी, आप जान जाइए |
भाषा ये सनातनी है, शीलवाली, पावनी है,
शोला है सुहावनी है, विश्व को बताइए |
पूर्वजों ने भी कहा है, हिंदी ने बड़ा सहा है,
हिंदी को बढ़ावा दे के, विद्वता दिखाइए |…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on September 13, 2012 at 10:51am — 14 Comments
ये हादसे -
महज
अखबार की सुर्खियाँ
पढ़कर इन्हें
जगती नहीं संवेदना
बेस्वाद नहीं होतीं
चाय की चुस्कियां
ये हादसे............
देख- सुन
अत्याचार अनाचार
कछुवे की भांति निर्विकार
सर घुसा लेते हैं
विश्रांति की खोह में
सुस्ताते दो पल
और भूल जाते सब कुछ
जीने के मोह में
पाषाण बन जाती हैं
अनुभूतियाँ
ये..................
नुक्कड़, चौराहों में
दफ्तर, मुह्ल्लों में
उछलते हैं जब
मुद्दे यही
तो…
Added by Vinita Shukla on September 13, 2012 at 9:17am — 7 Comments
औलाद की कुर्बानियां न यूँ दी गयी होती .
शबनम का क़तरा थी मासूम अबलखा ,
वहशी दरिन्दे के वो चंगुल में फंस गयी .
चाह थी मन में छू लूं आकाश मैं उड़कर ,
कट गए पर पिंजरे में उलझकर रह गयी .
थी अज़ीज़ सभी को घर की थी लाड़ली ,
अब्ज़ा की तरह पाला था माँ-बाप ने मिलकर .
आई थी आंधी समझ लिया तन-परवर उन्होंने ,
तहक़ीक में तबाह्कुन वो निकल गयी .
महफूज़ समझते थे वे अजीज़ी का फ़रदा ,
तवज्जह नहीं देते थे तजवीज़ बड़ों की .
जो कह गयी जा-ब-जा हमसे ये तवातुर…
Added by shalini kaushik on September 13, 2012 at 1:21am — 2 Comments
राजनीति के मंच पर, चढ़ गए आज दबंग
फूट फूट कर रो रहे, ध्वज के तीनों रंग
गधा जो देखन मैं चला, गधा न मिलया मोय
तब इक नेता ने कहा, मुझसा गधा न कोय
उजली खादी पहन के, करते काले काम…
Added by Albela Khatri on September 12, 2012 at 9:30pm — 18 Comments
अमृत ही बरसाय (संशोधित दोहे)
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 12, 2012 at 6:00pm — 16 Comments
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