रद्दी - लघुकथा -
"अरे, ये क्या, सारी की सारी पुस्तकें वापस लेकर आ गये।"
"क्या करूं पुष्पा, तुम ही बताओ? पूरा दिन बाजार में घूमता रहा इतना भारी इतनी कीमती पुस्तकों का बैग लेकर, लेकिन कोई दुकानदार…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 30, 2021 at 7:05pm — 8 Comments
संगदिल फिर ज़िन्दगी है उससे टकराना भी क्या !
फोड़कर सर अपना यारो रोना-चिल्लाना भी क्या !!
कीमती आँसू हैं तेरे वो निशाँ जुल्म ओ सितम,
बंद दरवाजों के आगे सर को टकराना भी क्या !
कर खुदा की बन्दगी और एहतराम उसका कर ले,
लोग ही क़मज़र्फ हों गर उनको जतलाना भी क्या !
बढ़ रही तन्हाईयाँ है उम्र के बढ़ने के साथ,
खाली-खाली जीस्त है गर वो सर खुजलाना भी क्या !
नौंचनी हैं उनको लाशें क़ौम भी तो बाँटनी,
शहर सौदागर आये उनको…
Added by Chetan Prakash on October 29, 2021 at 6:30am — No Comments
ऊँचे तो वही उठ पाएंगे
जो सत्य की गहराई
झूठ का उथलापन
जान जाएंगे
जो सत्य को कमजोर समझते
विनम्रता का तिरस्कार करते
वैराग्य का उपहास उड़ाते हैं
वह बुद्धि बल से पंगु
अपनी दुर्बलता छिपाते हैं
जो सत्य को तोड़ते, मरोड़ते हैं
वे साहित्यकार नहीं
चाटुकार होते हैं
दिन कहाँ समान रहते हैं?
सत्य है, आज इसकी
कल उसकी झोली भरते हैं
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on October 27, 2021 at 10:36pm — 10 Comments
२२१/२१२२/२२१/२१२२
हँसना सिखाया हमने आँखों के आँसुओं को
सम्बल दिया है हरपल कमजोर बाजुओं को।१।
*
कहती है रूह उन की बलिदान जो हुए थे
पहचान कर हटाओ जयचन्द पहरुओं को।२।
*
शठ लोग अब पहनकर चोला ये गेरुआ सा
करने लगे हैं निशिदिन बदनाम साधुओं को।३।
*
उनको तमस भला क्यों जायेगा ऐसे तजकर
बैठे जो बन्द कर के दिन में भी चक्षुओं को।४।
*
कैसे वसन्त आये पतझड़ को रौंद के फिर
हर डाल…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 26, 2021 at 10:19pm — 14 Comments
2122 1122 1122 22 /112
1
शोर धड़कन का ज़माने को बताना चाहे
दिल करीब और करीब यार के आना चाहे
2
दिल की बैचेनी भी अब एक ठिकाना चाहे
थोड़ा ख़ुशियों के समंदर में नहाना चाहे
3
साथ जितना भी लिखा उसने तेरा मेरा सनम
ज़िन्दगी उतनी ही साँसों का तराना चाहे
4
ख़ुशबू बनकर मेरी साँसों में उतरने वाले
क्या तेरा दिल भी महक ऐसी न पाना चाहे
5
चंद अशआर महब्बत प सुना कर यह मन
बीच महफ़िल में तुम्हें…
ContinueAdded by Rachna Bhatia on October 26, 2021 at 9:16pm — 12 Comments
रहने भी दो अब सनम, आपस की तकरार ।
बीत न जाए व्यर्थ में, यौवन के दिन चार ।
यौवन के दिन चार, न लौटे कभी जवानी ।
चार दिनों के बाद , जवानी बने कहानी ।
कह 'सरना' कविराय, पड़ेंगे ताने सहने ।
फिर सपनों के साथ, लगेंगी यादें रहने ।
सुशील सरना / 25-10-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 25, 2021 at 1:30pm — 9 Comments
2122-1212-22/112
जाने क्या लोग कर गए होंगे
जी रहे हैं या मर गए होंगे (1)
वो भरी दोपहर गए होंगे
पाँव छालों से भर गए होंगे (2)
लड़कियाँ माँ की तर्ह सीधी हैं
लड़के तो बाप पर गए होंगे (3)
ख़ौफ़ होता है देख कर जिनको
आइना देख डर गए होंगे (4)
टेढ़े-मेढ़े जलेबी जैसे लोग
है ये मुमकिन सुधर गए होंगे (5)
दफ़्न माज़ी को जब किया होगा
याद के गड्ढे भर गए होंगे (6)
हमको जिन पर नहीं…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on October 24, 2021 at 10:00am — 8 Comments
वज़्न -1212 1122 1212 22/112
मसीहा बन के जो आसानियाँ बनाते हैं
गिरा के झोपड़ी वो बस्तियाँ बनाते हैं
ये आ'ला ज़र्फ़ हैं कैसे, बुलंदी पाते ही
उन्हें गिराते हैं जो सीढ़ियाँ बनाते हैं
है भूख इतनी बड़ी अब कि छोटे बच्चे भी
किताब छोड़ चुके बीड़ियाँ बनाते हैं
ग़िज़ा जहान में उनको नहीं मयस्सर क्यों
जो फ़स्ल उगा के यहाँ रोटियाँ बनाते हैं
उन्हें नसीब ने घर जाने क्यों दिया ही नहीं
सभी के वास्ते जो आशियाँ बनाते…
Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 23, 2021 at 10:00pm — 6 Comments
कुछ दर्द
एक महान ग्रन्थ की तरह होते हैं
पढना पड़ता है जिन्हें बार- बार
उनकी पीड़ा समझने के लिए ।
ऐसे दर्द
अट्टालिकाओं में नहीं
सड़क के किनारों पर
पत्थर तोड़ते
या फिर चन्द सिक्कों की जुगाड़ में
सिर पर टोकरी ढोते हुए
या फिर पेट और परिवार की भूख के लिए
किसी चिकित्सालय के बाहर
अपना रक्त बेचते हुए
या फिर रिश्तों के बाजार में
अपने अस्तित्व की बोली लगाते हुए
अक्सर मिल जाते…
Added by Sushil Sarna on October 22, 2021 at 1:30pm — 6 Comments
२१२२ १२१२ २२
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन
एक साँचे में ढाल रक्खा है
हम ने दिल को सँभाल रक्खा है
तेरी दुनिया की भीड़ में मौला
ख़ुद ही अपना ख़याल रक्खा है
दर्द अब आँख तक नहीं आता
दर्द को दिल में पाल रक्खा है
चल के उल्फ़त की राह में देखा
हर क़दम पर वबाल रक्खा है
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Anita Maurya on October 20, 2021 at 7:30pm — 7 Comments
वज़्न -2122 2122 2122 212
ख़ुद को उनकी बेरुख़ी से बे- ख़बर रहने दिया
उम्र भर दिल में उन्हीं का मुस्तक़र* रहने दिया (ठिकाना)
उनकी नज़रों में ज़बर होने की ख़्वाहिश दिल में ले
हमने ख़ुद को ज़ेर उनको पेशतर रहने दिया
उम्र का तन्हा सफ़र हमने किया यूँ शादमाँ
उनकी यादों को ही अपना हमसफ़र रहने दिया
उनसे मिलकर जो कभी होती थी इस दिल को नसीब
अपने ख़्वाबों को उसी राहत का घर रहने दिया
वो न आएँगे शब- ए- फ़ुर्क़त…
ContinueAdded by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 19, 2021 at 12:07pm — 4 Comments
मुखर्जी बाबू सेवा निवृत्ति के बाद इस बार दुर्गापूजा के समय बेटे रोहन के बार-बार आग्रह करने पर उसी के पास हैदराबाद में आ गए हैं। वैसे तो वे अपनी पत्नी के साथ भवानीपुर वाले मकान में ही रहते थे। रोहन, अपर्णा और बंटी के साथ हर-साल दुर्गा पूजा में अपने घर आते थे। वे लोग बाबा और माँ के लिए नए कपड़े आदि उपहार लेकर आते थे। मिठाइयां मुखर्जी बाबू खुद बाजार सेखरीदकर लाते थे। मिसेज मुखर्जी भी अपने पूरे परिवार के लिए घर में ही कुछ अच्छे-अच्छे सुस्वादु पकवान और मछली अपने हाथ से बनाती थी। उनकी बहू अपर्णा भी…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on October 17, 2021 at 10:30pm — 3 Comments
मीठे वादे दे रही, जनता को सरकार ।
गली-गली में हो रहा, वादों का व्यापार ।1।
जीवन भर नेता करे, बस कुर्सी से प्यार ।
वादों के व्यापार में, पलता भ्रष्टाचार ।2।
जनता को ही लूटती,जनता की सरकार ।
जम कर देखो हो रहा, वादों का व्यापार ।3।
जनता जाने झूठ है, नेता की हर बात ।
झूठे वादों को मगर, माने वो सौगात ।4।
भाषण में है दक्ष जो ,नेता वही महान ।
वादों से वो भूख का, करता सदा निदान ।5।
सुशील सरना /…
ContinueAdded by Sushil Sarna on October 17, 2021 at 4:30pm — 2 Comments
वज़्न - 22 22 22 22 22 2
उनसे मिलने का हर मंज़र दफ़्न किया
सीप सी आँखों में इक गौहर दफ़्न किया
दिल ने हर पल याद किया है उनको ही
जिनको अक़्ल ने दिल में अक्सर दफ़्न किया
ख़्वाब उनकी क़ुर्बत के टूटे तो हमने
इक तुरबत को घर कहकर घर दफ़्न किया
उनका शाद ख़याल आने पर भी हमने
कब अपने अंदर का मुज़तर दफ़्न किया
मुझमें ज़िंदा हैं मेरे अजदाद सभी
मौत फ़क़त तूने तो पैकर दफ़्न…
Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 16, 2021 at 8:30pm — 23 Comments
अपने दोहे .......
पत्थर को पूजे मगर, दुत्कारे इन्सान ।
कैसे ऐसे जीव का, भला करे भगवान ।1।
पाषाणों को पूजती, कैसी है सन्तान ।
मात-पिता की साधना, भूल गया नादान ।2।
पूजा सारी व्यर्थ है, दुखी अगर माँ -बाप ।
इससे बढ़कर सृृष्टि में , नहीं दूसरा पाप।3।
सच्ची पूजा का नहीं, समझा कोई अर्थ ।
बिना कर्म संंसार में,अर्थ सदा है व्यर्थ ।4।
मन से जो पूजा करे, मिल जाएँ भगवान ।
पत्थर के भगवान में, आ जाते हैं प्रान…
Added by Sushil Sarna on October 16, 2021 at 3:21pm — 7 Comments
122 - 122 - 122 - 122
(भुजंगप्रयात छंद नियम एवं मात्रा भार पर आधारित ग़ज़ल का प्रयास)
दिलों में उमीदें जगाने चला हूँ
बुझे दीपकों को जलाने चला हूँ
कि सारा जहाँ देश होगा हमारा
हदों के निशाँ मैं मिटाने चला हूँ
हवा ही मुझे वो पता दे गयी है
जहाँ आशियाना बसाने चला हूँ
चुभा ख़ार सा था निगाहों में तेरी
तुझी से निगाहें मिलाने चला हूँ
ख़तावार हूँ मैं सभी दोष …
ContinueAdded by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on October 14, 2021 at 3:13pm — 38 Comments
तमन्नाओं को फिर रोका गया है
बड़ी मुश्किल से समझौता हुआ है.
.
किसी का खेल है सदियों पुराना
किसी के वास्ते मंज़र नया है.
.
यही मौक़ा है प्यारे पार कर ले
ये दरिया बहते बहते थक चुका है.
.
यही हासिल हुआ है इक सफ़र से
हमारे पाँव में जो आबला है.
.
कभी लगता है अपना बाप मुझ को
ये दिल इतना ज़ियादा टोकता है.
.
नहीं है अब वो ताक़त इस बदन में
अगरचे खून अब भी खौलता है.
.
हम अपनी आँखों से ख़ुद देख आए
वहाँ बस…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 14, 2021 at 9:00am — 20 Comments
छोड़ बसेरा बचपन का अब, दूजे घर को जाना है
रीत बनी है इस जग की जो, उसको मुझे निभाना है
लेकिन मन में प्रश्न बहुत हैं, उनमें पापा खोने दो
पल भर में मैं हुई पराई, मुझको खुल कर रोने दो
घर आँगन की मधुर सुवासित, पापा मैं कस्तूरी थी
जन्मी थी तो बोले थे तुम, बिटिया बहुत जरूरी थी
कल तक तेरी ही गोदी में, पापा मैं तो सोती थी
तुम्हे न पाती थी जब घर में, मार दहाड़े रोती थी
भूल गए क्यों सारी बातें, मुझसे क्यों मुँह…
ContinueAdded by नाथ सोनांचली on October 13, 2021 at 10:52am — 9 Comments
वज़्न - 2122 2122 2122 212
ज़ीस्त की शीरीनियों से दूरियाँ रह जाएँगी
बिन तुम्हारे महज़ मुझ में तल्ख़ियाँ रह जाएँगी
वक़्त-ए-रुख़सत अश्क के गौहर लुटाएँगी बहुत
सूनी सूनी चश्म की फिर सीपियाँ रह जाएँगी
रेत पर लिख कर मिटाई हैं जो तुमने मेरे नाम
ज़ह्न में महफ़ूज़ ये सब चिट्ठियाँ रह जाएँगी
बातें मूसीक़ी-सी तेरी हैं मगर कल मेरे साथ
गुफ़्तगू करती हुई ख़ामोशियाँ रह जाएँगी
एक घर हो घर में तुम हो तुमसे सारी…
ContinueAdded by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 11, 2021 at 8:30pm — 10 Comments
वज़्न -221 2121 1221 212
हस्ती में उसकी ख़ुद को मिलाने चली हूँ मैं
यानी कि अपने आप को पाने चली हूँ मैं
दरिया सिफ़त हूँ आब है मुझ में उसी का और
जानिब उसी की प्यास बुझाने चली हूँ मैं
रौशन चराग़ सा वो रहे मुझ में इसलिए
मिश्कात* अपने दिल को बनाने चली हूँ मैं
जिस ख़ाक से बनी हूँ फ़ना उस में ख़ुद को कर
मिट्टी वजूद अपना बचाने चली हूँ मैं
जब वो है मेरे गिर्द हवा-सा तो किस लिए
अपने क़रीब उस को बुलाने चली हूँ मैं
रहकर बदन की क़ैद में…
ContinueAdded by Anjuman Mansury 'Arzoo' on October 10, 2021 at 5:42pm — 10 Comments
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