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October 2015 Blog Posts (158)

"एक और वार" - [लघु-कथा] (19)

हल्की 'टप्प' की आवाज़ के साथ स्मार्ट फोन की स्क्रीन पर दो बूँदें गिरीं । एक लम्बी साँस लेकर पश्चाताप और आक्रोश की ज्वाला फिर भड़क उठी। यह वही तस्वीर है न, जो शालिनी के बेहद क़रीबी 'दोस्त' ने ली थी, उस दिन मोबाइल पर।फोटो लेते समय ही उसकी आँखें फटी की फटी सी रह गयीं थीं। उस छिछोरे के हाव-भाव ही संदेहास्पद थे। शालिनी ने तो उसे जीन्स या शोर्ट्स पहनकर चलने को कहा था , लेकिन वह सलवार सूट पहन कर ही उस 'आत्म-रक्षा प्रशिक्षण कैम्प' में गई थी। शालिनी का कुशल व्यवहार उसे पसंद था, लेकिन वह समझ न सकी कि…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 17, 2015 at 11:34am — 3 Comments

तुमको मिली सजा है

2212 122 2212 122



रुसवा किया जो यारी, तुमको मिली सज़ा है।

फ़तवा हुआ है ज़ारी, पढ़लो मिली सज़ा है।।



बदनामियों की ज़द में, वो आ गए तो सदमा।

भिजवा दिया है भारी, सिसको मिली सज़ा है।।



उनकी निगाह में थी, जो भी हाँ छवि तुम्हारी।

हटवा दिया है सारी, भटको मिली सज़ा है।।



चोरी से चाहने की, उसनें ख़ता रपट में।

लिखवा दिया तुम्हारी, भुगतो मिली सज़ा है।।



खुद चाँद ने तुम्हारे, हिस्से की रात सारी।

लिखवा दिया है कारी, सुनलो मिली सजा… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 17, 2015 at 11:28am — 4 Comments

खडी परधानी में भऊजी

1222   1222    1222   1222



निशानी हार फूलो पे मुहर तुम सब लगा देना

खड़ा परधानी मेें देखो भऊजी को जिता देना





सुबह अब चार से पहले भऊजी रोज जागेगी

गली में हाथ जोडे़ मुस्‍कुरा कर वोट माँगेगी

बहुत खुश हैं न दॉंतो से जो पाते तोड़ अब रहिला

पता जब से चला उनको हुआ ये गॉंव है महिला

कहे बूढे़ सभी मुझसे, जरा उनसे मिला देना

निशानी हार फूलो पे मुहर तुम सब लगा देना

खड़ा परधानी मेें देखो भऊजी को जिता देना



रसोई में न काटे अब सुनो…

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Added by Akhand Gahmari on October 17, 2015 at 10:00am — No Comments

तरही ग़ज़ल नं-3 "मुसहफ़ी" की ज़मीन में

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन



बयाँ कैसे करूँ क्या उसकी अंगड़ाई का आलम था

तसव्वुर में न आए ऐसा ज़ैबाई का आलम था



बस इक नुक्ते प आकर रुक गई थी ज़िन्दगी मेरी

न वो वहशत का आलम था न दानाई का आलम था



कोई सुनता भी कैसे एक शाइर की सदा भाई

वतन में हर तरफ़ हंगामा आराई का आलम था



अँधेरे में गिरी सुई भी हम तो ढूँढ लेते थे

जवानी में तो कुछ ऐसा ही बीनाई का आलम था



ग़ज़ल कहने का मौक़ा ख़ूब हम को मिल गया यारों

नहीं था घर में कोई सिर्फ़ तन्हाई… Continue

Added by Samar kabeer on October 16, 2015 at 11:25pm — 12 Comments

प्रयास (लघुकथा)

"मधु ! पिता जी का खाना भेज दिया ?"

"हाँ ! बाबा हाँ ! रोज नियम से भेज देती हूँ।" रविवार रमेश स्वयं ही टिफिन लेकर चला जाता। उस दिन बाप -बेटे पुश्तैनी मकान में घण्टों बातें करते और शाम को घर लौटते समय पिता जी रमेश को हमेशा की तरह टोकते:

"बेटा ! बहु-बच्चों का ख्याल रखना।"

आज मधु की छोटी बहन-जीजा आये हुए, देखकर रमेश ने मधु को बिना कुछ बताये टिफिन सेंटर से खाना भर कर भिजवा दिया। मधु ने भी खाना भिजवा दिया। पिता जी की खुशियों का ठिकाना न था। आज रमेश प्रसन्नचित होकर घर पहुँचा तो मधु…

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Added by Vijay Joshi on October 16, 2015 at 7:00pm — 5 Comments

जैसे कि रेगिस्तान में बाकी नमी रही (ग़ज़ल )

तन्हाइयों के ढेर में ख्वाहिश दबी रही ,

जैसे कि रेगिस्तान में बाकी नमी रही

रोते रहे कुछ लोग और जलते रहे कुछ घर ,

पर निंदकों की बस्तियों में रोशनी रही

हमको बिठा के चल दिया ऑटो जब उसको छोड़ ,

मैं देखता रहा, वो मुझे देखती रही

सूखे के बावजूद भी उस दूब को देखो ,

जाने वो इस अकाल में कैसे बची रही

शायद वो समझती थी मुझे आईना, तभी ,

खुद रूप की गहराईयों को आंकती रही

हल है ये लोकतंत्र सियासत के हाथ का ,

जनता ही इस जुएं से मगर जूझती रही

बचपन…

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Added by Jayprakash Mishra on October 16, 2015 at 1:00pm — 2 Comments

कर्तव्यनिष्ठ - ( लघुकथा )

  कर्तव्यनिष्ठ - ( लघुकथा ) -

"सुषमा जी,यह क्या देख रहा हूं! कन्या गुरुकुल की लडकियों को  अस्त्र शस्त्र और मार्शल आर्ट्स  सिखाया जा रहा है!

"जी सर"!

"सुषमा जी, आपने किसकी अनुमति से यह शुरु किया है"!

"सर, इसकी अनुमति ज़िलाधीश महोदय ने दी है, जो कन्या गुरुकुल के अध्यक्ष हैं"!

"और इसका खर्चा कौन देगा"!

"उसकी व्यवस्था भी ज़िलाधीश महोदय ने किसी समाज़ सेवी संस्था के द्वारा कराई है"!

"मगर सुषमा जी इसकी क्या आवश्यकता थी"!

"सर आपने देखा नहीं,…

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Added by TEJ VEER SINGH on October 16, 2015 at 11:10am — 3 Comments

ये कैसा कन्या पूजन

एक हाथ से कन्या पूजन दूजे हाथ से कन्या हनन

माँ को खुश करने का कैसा है ये आयोजन

धन वैभव की चाहत में सुख संपत्ति के आगत में

मनाते सभी त्यौहार लक्ष्मी जी के स्वागत में

पर ये कैसा अनर्थ जो गृहलक्ष्मी पर भारी

घर अस्पताल में चलती इस लक्ष्मी पर आरी

माँ की ममता बेबस और निष्ठुर पिता का साया

उस घर में बेटी का जन्म क्यूँ न किसी को भाया

कैसी स्वार्थी कैसी निर्दयी ये दुनिया की मंडी

जहाँ बेबस है शक्ति स्वरूपा दुर्गा काली और चंडी

जिन हाथों से डाली जाती है…

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Added by DR. HIRDESH CHAUDHARY on October 15, 2015 at 10:00pm — 1 Comment

"प्यारी दुश्मन" -[लघु कथा] (18)

"प्यारी दुश्मन"- (लघु-कथा)



"तुम्हें जब अपने पास नहीं आने देती तो तुम अपनी समधन को क्यों नहीं बुला लेतीं ?"- पड़ोसन ने पार्वती से कहा।



"वो भी करके देख लिया, कह रही थी कि जब

तक दामाद जी खुद फोन करके नहीं बुलायेंगे, नहीं आऊंगी।" पार्वती ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा- "और बेटा कहता है कि मम्मी तुम्हारे होते हुए सासू माँ को बुलाने की क्या ज़रूरत है।"



पड़ोसन ने समझाते हुए कहा-" न तो तुम्हारी बहू पूरी दवायें ले रही है, न परहेज़ ढंग से कर रही है और न ही तुम्हें… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 15, 2015 at 8:27pm — No Comments

"प्यारी दुश्मन" -[लघु कथा] (18)

"प्यारी दुश्मन"- (लघु-कथा)



"तुम्हें जब अपने पास नहीं आने देती तो तुम अपनी समधन को क्यों नहीं बुला लेतीं ?"- पड़ोसन ने पार्वती से कहा।



"वो भी करके देख लिया, कह रही थी कि जब

तक दामाद जी खुद फोन करके नहीं बुलायेंगे, नहीं आऊंगी।" पार्वती ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा- "और बेटा कहता है कि मम्मी तुम्हारे होते हुए सासू माँ को बुलाने की क्या ज़रूरत है।"



पड़ोसन ने समझाते हुए कहा-" न तो तुम्हारी बहू पूरी दवायें ले रही है, न परहेज़ ढंग से कर रही है और न ही तुम्हें… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 15, 2015 at 8:27pm — 1 Comment

ग़ज़ल : हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

 

हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है

न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है

 

जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का

जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है

 

जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा

ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है

 

जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक

वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है

 

वो सुबूत माँगते हैं, वो…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 15, 2015 at 6:13pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गुमसुम क्यों नदी का तीर है---- ग़ज़ल----मिथिलेश वामनकर

2122 – 2122 – 2122 – 212

 

चाँदनी जब रात, गुमसुम क्यों नदी का तीर है?

मौन है जल किसलिए, पूछो कि क्यों गंभीर है?

 

प्यार के झुरमुट अंधेरों से लिपट सोते…

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Added by मिथिलेश वामनकर on October 15, 2015 at 2:44pm — 12 Comments

रूप मदिरा पान का पाकर निमन्त्रण फँस गये

2122 2122 2122 212



दिल की धड़कन का उन्हें देकर नियंत्रण फँस गये।

रूप मदिरा पान का पाकर निमन्त्रण फँस गये।।



चित्त की हर भित्ति पर बस रंग उनका दिख रहा।

भित्तियों पर उनकी छवि का करके चित्रण फँस गये।।



मन भ्रमर चञ्चल जो बंजारे सा था तो ठीक था।

उनमें ही अवधान का करके एकत्रण फँस गये।।



कल्पना की वाटिका में तितलियों की भीड़ थी।

मन के उपवन में उन्हें देकर आमन्त्रण फँस गये।।



इस तरह प्यासे नहीं थे चक्षु ये मेरे कभी।

दृष्टि से…

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 15, 2015 at 12:49am — 3 Comments

"प्यार-संस्कार" - (गीतिका) [2]

2122 2122 2122 21

आधार छंद- रूपमाला (मापनी-मुक्त)



चार दिन की चाँदनी है, चार दिन का प्यार,

प्यार का बीमार कहता, भावना व्यापार।

[1]



आज हम त्योहार पर ही, बांटते हैं प्यार,

काश हम हर 'वार' को ही, बांटते हर बार।

[2]



काश उन्हें पूछते हम, बेचते जो प्यार,

झेलते तन बेचकर ही, रोज़ अत्याचार।

[3]



भागते फिरते जुटाने, रोज़ धन को लोग,

तब तरसते खूब रहते, छोड़ कर सब प्यार।

[4]



जाग कर के रात को हो, मौन… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 14, 2015 at 10:15pm — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
राजधानी जो आये पता कर चले--(ग़ज़ल)-- मिथिलेश वामनकर

212—-212---212---212

 

पूछते रह गए आप क्या कर चले?

वो मेरी जिंदगी हादसा कर चले.

 

 गुमटियाँ शह्र से जो हटा कर चले…

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Added by मिथिलेश वामनकर on October 14, 2015 at 4:30pm — 23 Comments

अंजामे मुहब्बत .....

अंजामे मुहब्बत .......

कितनी अज़ीब हैं ज़िंदगी की राहें

हर मोड़

एक उलझी पहेली

हर राह पर फिसलन

हर नफ़स एक चुभन

गर्द में दफ़्न

वफ़ा और ज़फ़ा के अनसुने अनकहे

वो अफ़साने

जिन्हें सुनना चाहे

ये दिल बार बार

हर बार

कोई लफ्ज़ लबे दहलीज़ पे

इज़हार से शरम खाता है

और अश्के रवां रुखसार पे रुक जाता है

कह देती है सांस

साँसों में तपते अहसासों को

दे देती है खामोश धड़कनों को

अपनी धड़कनों की आवाज़

वो बात मुहब्बत की…

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Added by Sushil Sarna on October 14, 2015 at 2:16pm — 10 Comments

"सखेद" - [छंद- चौपईया/जयकरी पर आधारित]

[छंद- चौपईया/जयकरी पर आधारित मापनी मुक्त रचना]



रहो सोचते तुम मत आज,

कर लो जो करना है काज।

भले दूसरों की मत मान,

मन की अपने तुम लो जान । /1/



नुक्ता-चीनी करते टोक,

नेक काम पर थोपें रोक।

यही इस ज़माने का राज़,

कर्मयोगी समझ लो आज। /2/



होता शिक्षा का व्यापार,

रहे निर्धन वर्ग लाचार।

है योजनाओं का प्रचार,

फिर भी होते अत्याचार। /3/



टी.वी., फ़िल्मों को तू देख,

भूल गीता-क़ुरआन-लेख,

पाठ सिखाते सारे… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 14, 2015 at 2:00pm — 9 Comments

एम॰ बी॰ ए॰ बहू -( लघुकथा )-

सुनयना की शादी को अभी तीन महीने ही हुए थे कि उसकी सास का फ़ोन आगया,"समधन जी, ज़रा फ़ुरसत निकाल कर अपनी लाडली को ले जाना"! और आगे बिना कुछ कहे सुने फ़ोन काट दिया!शाम को सुनयना के मॉ बापू पहुंच गये उसके ससुराल!

"कोई भूल हो गयी क्या हमारी सुनयना से"!

"नहीं जी, भूल तो हमसे हुयी जो इसकी भोली सूरत और एम. बी. ए. की डिग्री से धोखा खा गये"!

"आखिर हुआ क्या, बहिनजी, कुछ बताइये तो सही"!

"कोई एक बात हो तो बतायें! बिना उठाये सुबह उठती नहीं, महारानीजी, बिस्तर पर ही चाय चाहिये,रसोई…

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Added by TEJ VEER SINGH on October 14, 2015 at 12:00pm — 6 Comments

नवरात्रि-उपहार....

दोहा छ्न्द-----नवरात्रि-उपहार

 

प्रथम शैलपुत्री मनन, है नवरात्रि विधान.

वृद्धि करें वन जीव जड‌, तप बल योग प्रमाण.1

ब्रह्मचारिणी मां प्रखर, दिव्य ज्योति की सार.

सकल सिद्धि यश विजय का, देती हैं उपहार.2

देवि चंद्र घंटा करें, रोग - दोष से मुक्त.

सुखद शांति सुख सम्पदा, वर देतीं उपयुक्त.3

दिव्य हास्य से प्रकट कर, सकल ब्रह्म रस छ्न्द.

खुले हृदय से बांटतीं, कूष्माण्डा मां कंद.4

शक्ति पांचवीं स्कंद…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 14, 2015 at 10:30am — 6 Comments

जाने कितने ग़म (ग़ज़ल)

1222 1222 1222 1222

हैं हँसते मुस्कुराते हम छिपाते जानें कितने ग़म।

हाँ चलते गुनगुनाते हम मिटाते जानें कितने ग़म।।



हमारे होंठ जब लरज़े सुनाएँ दास्ताँ अपनी।

अचानक रूबरू मेरे हैं आते जानें कितनें ग़म।।



कभी रोते हुए बच्चे कभी तो छटपटाती माँ।

विवशता युक्त आँखों से बताते जानें कितने ग़म।।



वो जो चलती हुई गाड़ी से पटरी पर गयी फेंकी।

बिलखती आँख के आंसूँ सुनाते जानें कितने ग़म।।



दिखी है लाश लटकी पेड़ पर जब अन्नदाता की।

निवाले में तभी से… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 13, 2015 at 11:39pm — 14 Comments

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