१२२२, १२२२, १२२२, १२२२,
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हुआ है तज्रिबा मत पूछ हम को क्या मुहब्बत में,........पहले तज़ुर्बा लिखा था जो गलत था .. अत: मिसरे में तरमीम की है.
लगा दीदा ए तर का आब भी मीठा मुहब्बत में.
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जो चलते देख पाते हम तो शायद बच भी सकते थे,
नज़र का तीर दिल पे जा लगा सीधा मुहब्बत में.
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ख़ुमारी छाई रहती है, ख़लिश सी दिल में होती है,
अजब है दर्द जो ख़ुद ही लगे चारा मुहब्बत में.
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रवायत आज भी भारी ही…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on October 17, 2013 at 9:00am — 16 Comments
1.
जो चाहते हो सब मिलेगा, कोशिश करके तो देख,
अंधेरा मिट जायेगा, एक दीप जला करके तो देख,
आंसू बहाने से कभी मंजिल नहीं है मिला करती,
तू मझधार में अपनी नाव कभी उतार करके तो देख।
2..
करके अहसान किसी पर जताया मत कीजिये,
अपने काम को दुनिया में गिनाया मत कीजिये,
मेरे बिना चलेगा नहीं यहां किसी का काम,
ऐसे विचार दिल में कभी लाया मत कीजिये।
3.
आओ अब अंधविश्वासों को भुला कर देखते है,
इस धरा पर प्रेम की गंगा बहा कर देखते…
Added by Dayaram Methani on October 17, 2013 at 12:00am — 13 Comments
हाथ में कुछ बीज
यूँ ही ले के कागजो
पे बोने आ गयी हूँ
विचारो के बीज
सबको कहाँ मिलते हैं
मुझे भी बस एक ही मिला
एक बाग़ लगाना है
इसलिए मुट्ठी
कस कर बंद हैं
इस बीज को वृक्ष
वृक्ष से फिर बीज
इसी तरह
तो लगेगा बाग़
माली ने बताया था
माली वो जो
सबके भीतर हैं
मुझे मिला था
एक रोज जब
उसी ने दिया था
ये एक बीज
''विचारो का बीज ''
"मौलिक व…
ContinueAdded by savita agarwal on October 16, 2013 at 8:30pm — 15 Comments
फ़िदा है रूह उसी पर, जो अजनबी सी है
वो अनसुनी सी ज़बाँ, बात अनकही सी है//१
.
धनक है, अब्र है, बादे-सबा की ख़ुशबू है
वो बेनज़ीर निहाँ, अधखिली कली सी है//२
.
कभी कुर्आन की वो, पाक़ आयतें जैसी
लगे अजाँ, कभी मंदिर की आरती सी है//३
.
ख़फ़ा जो हो तो, लगे चाँदनी भी मद्धम है
ख़ुदा का नूर है, जन्नत की रौशनी सी है//४
.
वो…
Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 16, 2013 at 5:00pm — 20 Comments
कहाँ है कील, शर, नश्तर कहाँ है
मेरा काँटों भरा, बिस्तर कहाँ है//१
.
उठा के मार, मंदिर में पड़ा ‘वो’
भला क्या पूछना, पत्थर कहाँ है//२
.
तभी सोंचू के, मैं क्यूँ उड़ रहा हूँ
अमीरों क़र्ज़ का, गट्ठर कहाँ है//३
.
लगे मय पी रहा है, आज वो भी
जहर पीता था, वो शंकर कहाँ है//४
.
बुराई झाँकती है, देख दिल से
छुपा उसको, तेरा अस्तर कहाँ है//५
.
सपोलें मारने से, कुछ न होगा
चलो खोजें छिपा, अजगर कहाँ…
ContinueAdded by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 16, 2013 at 4:30pm — 19 Comments
हर इंसान के जीवन में
एक लम्हा
ऐसा आता है /
वक़्त नहीं थमता,
वह लम्हा
रह जाता है खड़ा हुआ
ज्यों चित्रलिखित सा ।
और कभी
जब चलते चलते
थक जाता है वक़्त
तो
इस लम्हे की छाया में
कुछ देर बैठ कर सुस्ताता है|
और कभी
जब बदली छा जाती है ,
और मन का पंछी
घबरा जाता है
तो यह लम्हा
इन्द्रधनुष सा
आसमान में बिखर जाता है /
और ये मौसम पहले जैसा खुशगवार
फिर हो जाता है ।
मै तो ऐसा…
ContinueAdded by ARVIND BHATNAGAR on October 16, 2013 at 4:27pm — 15 Comments
Added by DEEPAK PANDEY on October 16, 2013 at 12:45pm — 11 Comments
ग़ज़ल -
२१२ २१२ २१२ २१२
वक़्त बदला, हैं बदले ख़यालात से
रौंदता ही रहा हमको लम्हात से .
क्यों मयस्सर नहीं जिंदगी में सुकूँ
जूझता ही रहा मैं तो हालात से .
माँगता था दुआ में तिरी रहमतें
उलझनें सौंप दी तूने इफरात से .
जुर्रतें वक़्त की कम हुईं हैं कहाँ
खेलती ही रहीं मेरे जज़्बात से.
तू बरस कर कहीं भूल जाये न फिर
भीगता ही रहा पहली बरसात से.
बात…
ContinueAdded by dr lalit mohan pant on October 16, 2013 at 11:00am — 16 Comments
आज फिर एक सफ़र में हूँ...
आज फिर किसी मंज़िल की तलाश में,
किसी का पता ढूँढने,
किसी का पता लेने निकला हूँ,
आज फिर...
सब कुछ वही है...
वही सुस्त रास्ते जो
भोर की लालिमा के साथ रंग बदलते हैं,
वही भीड़
जो धीरे-धीरे व्यस्त होते रास्तों के साथ
व्यस्त हो जाती है,
वही लाल बत्तियाँ
जो घंटों इंतज़ार करवाती हैं,
वही पीली गाड़ियाँ
जो रुक-रुक कर चलती हैं,
कभी हवा से बात करती हैं,
तो कभी साथ चलती अपनी सहेलियों से…
Added by Manoshi Chatterjee on October 16, 2013 at 8:33am — 14 Comments
2122 2122
खुश हुआ खुद को भुला कर
या कहूँ मै तुझको पा कर
खुद को भी मै ने सताया
दोस्ती को आजमा कर
ज़िंदगी का बोझ सर पे
चल रहा हूँ लड़खड़ा कर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 16, 2013 at 8:30am — 32 Comments
बर्ताव
बर्ताव का अर्थ -- स्पर्श !
मुलायम नहीं..
गुदाज़ लोथड़ों में
लगातार धँसते जाने की बेरहम ज़िद्दी आदत
तीन-तीन अंधे पहरों में से
कुछेक लम्हें ले लेने भर से…
Added by Saurabh Pandey on October 16, 2013 at 2:00am — 43 Comments
Added by shashi purwar on October 15, 2013 at 3:30pm — 14 Comments
दिले नादाँ पिया आना
दिले महफिल सजा जाना /
दिलों के जख्म सीले हैं
उन्हें मरहम लगा जाना /
सनम यह बेरुखी क्यों है ?
जरा आकर बता जाना /
सनम मुझसे खफा क्यों हो ?
वो हाले दिल सुना जाना /
नहीं तकरार करना अब
करें इज़हार आ जाना /
अभी मजबूरियां क्या हैं ?
कहे सरिता बता जाना //
..................................
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Sarita Bhatia on October 15, 2013 at 1:30pm — 16 Comments
धर्म अधर्म
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धर्म अधर्म
देशकाल की धुरी पर
नर्तन करता हुआ
ज्ञानियों / अज्ञानियों
की गोद में
पल पल मचलता
रंग बदलता
कुछ न कुछ कहता है
युग हो कोई
नयी बात नहीं
परोक्ष / अपरोक्ष
दिल के किसी कोने में
रावण रहता है
विष वमन
घायल तन मन
चिंतन मनन
जन जन छलता है
न कर मन मलिन
न हो तू उदास
रख द्रढ़ विश्वास
अत्याचारों की
जब जब अति…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on October 15, 2013 at 1:00pm — 17 Comments
1 २ १ २ २ / १ २ १ २ २/ १ २ १ २ २ /१ २ १ २ २
चलो चलें अब यहाँ से यारो, रहा न अपना यहाँ ठिकाना,
नहीं रहा अब, जो हम से रूठे, किसे भला है हमें मनाना.
***
था इश्क़ हमको, था इश्क़ तुमको, मगर बगावत न कर सकें हम,
न तुम ने छोड़ा, न बेवफ़ा हम, न तुम ने समझा, न हम ने जाना.
***
शराब छोड़ी, नशा बुरा था, नज़र से पी ली, नज़र मिलाकर,
नज़र नज़र में नशा चढ़ा यूँ, वो भूल बैठा मुझे पिलाना.
***
न फेरियें मुंह, अभी से साहिब, अभी सफ़र ये शुरू हुआ है,
कत’आ करो…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 15, 2013 at 1:00pm — 21 Comments
Added by Poonam Shukla on October 15, 2013 at 11:00am — 9 Comments
गीत (पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ)
पृष्ठ ह्रदय के जब मैं खोलूँ, केवल तुम ही तुम दिखते हो,
जैसे पूछ रही हो मुझसे, क्या मुझ पर भी कुछ लिखते हो।
तुम नयनों से अपने जैसे
कोई सुधा सी बरसाती हो,…
ContinueAdded by Sushil.Joshi on October 15, 2013 at 3:27am — 30 Comments
आजकल अक्सर
टीसती रहती हैं
माथे पर उभर आई नसें
मटमैली-लाल होकर
दुखने लगती हैं आँखें
चेहरे पर बरसती रहती है फटकार
पपडियाये होंठों से हठात
निकलती हैं सूखी गालियाँ
खोजती रहती हैं नज़रें
दूर-दूर तक
क्षितिज से टकराकर
खाली हाथ लौट आती हैं निगाहें
दिमाग में ख्यालों का अकाल
दिल में कल्पनाओं के टोटे...
सब तरफ एक सन्नाटा...
कोई आहट...न कोई…
Added by anwar suhail on October 14, 2013 at 9:00pm — 9 Comments
बह्र: 221/2121/1221/212
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दर पे कभी किसी के भी सज्दा नहीं किया
हमने कभी जमीर को रुसवा नहीं किया
हमराह मेरे सब ही बलंदी पे हैं खड़े
पर मैंने झूठ का कभी धंधा नहीं किया
जाने न कितनी रात मेरी आंख में कटी…
Added by शकील समर on October 14, 2013 at 9:00pm — 16 Comments
पहेली बूझ !
जगपालक कौन ?
क्यो तू मौन ।
नही सुझता कुछ ?
भूखे हो तुम ??
नही भाई नही तो
बता क्या खाये ?
तुम कहां से पाये ??
लगा अंदाज
क्या बाजार से लाये ?
जरा विचार
कैसे चले व्यापार ?
बाजार पेड़??
कौन देता अनाज ?
लगा अंदाज
हां भाई पेड़ पौधे ।
क्या जवाब है !
खुद उगते पेड़ ?
वे अन्न देते ??
पेड़ उगे भी तो हैं ?
उगे भी पेड़ !
क्या पेट भरते हैं ?
पेट पालक ??
सीधे सीधे नही तो
फिर…
Added by रमेश कुमार चौहान on October 14, 2013 at 4:30pm — 5 Comments
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