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November 2012 Blog Posts (173)

जाओ तूती

नक्‍कारों में

गूंज रही फिर

तूती की आवाज

नहीं जागना

आज पहरूए

खुल जाएगा राज



लाचार कदम

बेबस जनता के

होते ही

कितने हाथ

आधे को

जूठी पत्‍तल है

आधे को

नहीं भात



अकदम सकदम

जरठ मेठ है

और भीरू

युवराज

भव्‍य राजपथ

हींस रहे हैं

सौ-सौ गर्धवराज



आओ खेलें

सत्‍ता-सत्‍ता

जी भर खेलें

फाग

झूम-झूम कर

आज पढ़ेंगें

सारी गीता

नाग



जाओ

इस नमकीन शहर से

तूती अपने…

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Added by राजेश 'मृदु' on November 26, 2012 at 12:30pm — 2 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
मैं वही हूँ

देखा है

क्रूर वक़्त को,

पैने पंजों से नोचते

कोमल फूलों की मासूमियत

और बिलखते बिलखते

फूलों का बनते जाना पत्थर,

 

देखा है

पत्थर को गुपचुप रोते

फिर कोमलता पाने को

फूल सा खिल जाने को

मुस्काने को, खिलखिलाने को,

 

देखा है

अटूट पत्थर का

फूल बन जाना

फिर कोमलता पाना

महकना, मुस्काना, इतराना,

 

देखा है

सब कुछ बदलते

आकाश से पाताल तक

फिर भी मैं वही हूँ…

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Added by Dr.Prachi Singh on November 26, 2012 at 9:38am — 10 Comments

इक पुरानी ग़ज़ल

इक पुरानी ग़ज़ल से आप सब के साथ मैं भी अपने पुराने दिनों की याद कर रहा हूँ, ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
 

कर्म के ही हल सदा रखती है कन्धों पे नियति 

पर कभी फसलें मेरी बोनें नहीं देती मुझे 
मेरी देहरी ही बड़ा होने नहीं देती मुझे 
पीर पैरों के खड़ा होने नहीं देती मुझे 
फिर वही आँगन की परिधि में बँट…
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Added by ajay sharma on November 26, 2012 at 12:00am — 3 Comments

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम

छुपा के होठों से गम को अपने

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

बना लो गीतों को मेय का प्याला

छलकती बूंदों ही को कहो तुम |

 

ये गम की तड़पन से लिपट लो,

हवा दो आग को जितनी भी तुम |

सुख को हौले से फिर भी छू लो ,

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

 

मंजिल पे जख्मों को तो न देखो,

मंजिल को छू लो नयनों से अपने |

बसा के आँखों में कल के सपने,

लरज़ते अश्कों को रोक लो तुम |

 

आसान नहीं खुद को पहचान…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:17pm — 6 Comments

भारत माता की आरती

तेरे नयनों में भर आये नीर तो, लहू मैं बहा दूं माँ,

न्योच्छार तुझपे जीवन करूँ, क्या जिस्म क्या है जाँ |

 

तू धीर गंभीर हिमाला को

मस्तक पे धारण करे |

तू चंचल गंगा जमुना का

प्रतिक्षण वरण करे |

विविध भी एक हैं , देख ले चाहे जहां |

 

जब उठा के लगा दें

हम मस्तक पे धूल |

बसंत है चारों तरफ

खिले मुस्कान के फूल |

नफरत भी बन जाती है, प्रेम का समाँ |

 

तेरे बेटों की ओ माँ

बस यही है आरजू…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:16pm — 5 Comments

हर दुःख मुझे देता है प्रेरणा

हर दुःख मुझे देता है प्रेरणा

संघर्ष को और बढाने की |

हर हार मुझे देती है आशा

जय को करीब लाने की |

 

बिखर जाये जब मन मेरा

मैं उसके मोती चुन लेता हूँ |

निराशा के हर अंगारे को

मैं अमृत समझ के सहता हूँ |

 

ये निराशा मेरे प्रेम की भाषा

जल्दी ही बन जाने की |

हर दुःख मुझे देता है प्रेरणा.....

 

पतझर में जो झर गये पत्ते

आने पे सावन खिल जायेंगे |

मनुष्य यदि प्रयास करे तो

बिछड़े क्षण…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:14pm — 4 Comments

जाने कब क्या हो जाये

इस ज़िंदगी के किस पल में

जाने कब क्या हो जाये |

मिल कर सारे जहाँ की ख़ुशी,

ज़िंदगी ही खो जाये |

 

खुशियों के दर्पण के पीछे,

हम दीवाने हो जाते हैं |

दीवानगी में ये ना सोचे,

अक्स ही हमें सुहाते हैं |

सुख के हर इक अक्षर को, दुःख जाने कब धो जाये |

 

सुख तो इक आज़ाद पंछी,

पिंजरे में न रह पायेगा |

दिल का सूना पिंजरा भरने,

दुःख ही फिर से आ जाएगा |

जाने कब गम का आंसू, दामन को भिगो जाये…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on November 25, 2012 at 11:00pm — 6 Comments

मोहब्बत,,,

हमेशा हमेशा के लिए वो चली गई है दूर मुझसे

जाते जाते बोली मुझे मोहब्बत नहीं है तुझसे



लेकिन फिर भी अश्क थे उसकी नजरों में

वह कह तो गई नहीं है मोहब्बत मुझसे



आज भी सोचता हूँ मैं उसके कहे उस बात को

पागल…

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Added by Neelkamal Vaishnaw on November 25, 2012 at 8:00pm — No Comments

कार्तिक मास महत्त्व

देव उठे अरु लग्न हुए, सखि कार्तिक पावन मास यहाँ,

मत्स्य बने अवतार लिये,प्रभु कार्तिक पूनम सांझ जहाँ,

पद्म पुराण बताय लिखें, महिना इसको हि  पवित्र सदा,

मोक्ष मनुष्य प्रदाय करे,सखि कार्तिक स्नान व दान सदा/…

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Added by Ashok Kumar Raktale on November 25, 2012 at 7:45pm — 3 Comments

पत्नी का खतरनाक बाउंसर (हास्य व्यंग

सचिन तेंदुलकर बोंले -

पत्नी का गुस्सा तेज है

पत्नी के आगे निस्तेज है

हमने कहाँ पत्नी के आगे

सभी पति निस्तेज है

वे बोंले -

बाँल से भी खतरनाक है

बेलन बाँल से क्या कम

खरतनाक है ?

बाँल तो दूर से आती है

बेलन तो हाथ में रखती है ।

पत्नी के बाउंसर से -

हर पति डरता है,

कमाई ला झट से -

हाथ में धर देता है ।

फिर जरुरत पड़ने पर

हाथ फैलाना पड़ता है ।

यह कोई नयी बात नहीं है

हर युग में होता आया है

कृष्ण ने राधिका… Continue

Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 25, 2012 at 5:57pm — 6 Comments

जिंदगी की हैसियत मौत की दासी की है .

   

बात न ये दिल्लगी की ,न खलिश की है ,

जिंदगी की हैसियत मौत की दासी की है .

 

न कुछ लेकर आये हम ,न कुछ लेकर जायेंगें ,

फिर भी जमा खर्च में देह ज़ाया  की है .…

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Added by shalini kaushik on November 25, 2012 at 3:57pm — 8 Comments

ग़ज़ल - अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये

एक पुरानी ग़ज़ल....

शायद २००९ के अंत में या २०१० की शुरुआत में कही थी मगर ३ साल से मंज़रे आम पर आने से रह गयी...

इसको मित्रों से साझा न करने का कारण मैं खुद नहीं जान सका खैर ...

पेश -ए- खिदमत है गौर फरमाएं ............





अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये


शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये…



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Added by वीनस केसरी on November 25, 2012 at 2:59pm — 31 Comments

शांति

शांति 
------
पक्षियों का कलरव 

जल प्रपात 

समुद्र की गोद में 
क्रीड़ारत लहरें 
धुआं उगलते कारखाने 
फर्राटा  भरती  गाड़ियाँ 
शोर हर तरफ 
घुटता दम 
इसके बीच हम 
नहीं सुनायी देती 
नही दिखती 
अबला की चीत्कार 
भूखे नंगे सिसकते बच्चे 
नफरत की चिंगारी 
झुलसते…
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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 25, 2012 at 2:36pm — 10 Comments

चलो,वॉट करें।

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Added by MARKAND DAVE. on November 25, 2012 at 11:27am — 3 Comments

मदिरा सवैया

भारत के हम शेर किये नख के बल रक्षित कानन को।
छोड़त हैं कभि नाहिं उसे चढ़ आवहिं आँख दिखावन को।
भागत हैं रिपु पीठ दिखा पहिले निजप्राण बचावन को।
घूमत हैं फिर माँगन खातिर कालिख माथ लगावन को॥

Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 25, 2012 at 10:20am — 13 Comments

परिवार की इज्ज़त -लघु कथा

'स्नेहा....स्नेहा ....' भैय्या  की कड़क आवाज़ सुन स्नेहा रसोई से सीधे उनके कमरे में पहुंची .स्नेहा से चार साल बड़े आदित्य  की आँखें  छत  पर घूमते पंखें पर थी और हाथ में एक चिट्ठी थी .स्नेहा के वहां पहुँचते ही आदित्य ने घूरते हुए कहा -''ये क्या है ?' स्नेहा समझ गयी मयंक की चिट्ठी भैय्या के हाथ लग गयी है .स्नेहा ज़मीन की ओर देखते हुए बोली -'भैय्या मयंक बहुत अच्छा ....'' वाक्य पूरा कर भी न पायी थी  कि   आदित्य ने  जोरदार तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया और स्नेहा चीख पड़ी ''…

Continue

Added by shikha kaushik on November 24, 2012 at 10:30pm — 7 Comments

हिन्दी भाषा-1

जिनकी मातृ भाषा हिन्दी है वे हिन्दी का कितना प्रयोग करते हैं। यह सोचनीय है लेकिन एक अच्छी बात यह है हिन्दी बोलने वालों की,, कि वे दूसरी भाषाओं को आसानी से प्रयोग करने का प्रयास करते हैं और यही कारण है कि हिन्दी का प्रयोग भी बढता जा रहा है। यह सत्य उस तरह से है जैसे कोई दूसरे से अच्छा व्यवहार करता है तो सामने वाला भी उससे उतना ही अच्छा व्यवहार करता है।



उदहारण…
Continue

Added by सूबे सिंह सुजान on November 24, 2012 at 10:10pm — 2 Comments

छोटी छोटी खुशी कहीं गम ना दे जाये ।

छोटी छोटी खुशी कहीं गम ना दे जाये ।
पटाखों के ढेर में कोई बम ना दे जाये ।

कैसे यकीन करें जब यकीन नहीं होता,
झोली में रकम कभी कम ना दे जाये ।

कड़कती धूप में छाँव प्यारा लगता है ,
दरखत की शाख कहीं धम ना दे जाये ।

नम आखों देखते हैं जलता आशियाना,
दूसरों की आह बेबस रहम ना दे जाये ।

गिरते गिरते बचते ठोकर लगने के बाद ,
वर्मा संभलते कहीं निकला दम ना दे जाये ।

.
श्याम नारायण वर्मा

Added by Shyam Narain Verma on November 24, 2012 at 12:30pm — 3 Comments

बदल गयी तरकीब

काकी आई शहर से, सुनो शहर का हाल,

फ़ार्म हाउस बन रहे, धनवानों की चाल ।



धनवानों की चाल है, खेती का क्या काम

बचजाये बस आयकर,ये ही उनका काम ।



फार्म हाउस में हो रहे, कैसे कैसे काम,

नेता बने किसान है, छलक रहे है जाम ।



किसान खेतहीन हुए, जमींदार सब नाथ,

बँट में खेत जोत रहे, घरवाली के साथ ।



घरवाली को साथ ले, खेतो में जुट जाय,

दुपहरी की रोटी भी, छाँव तले ही खाय ।



जनता के इस राज में, बदल गयी तरकीब,

नेता सब मालिक बने, देखा… Continue

Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 24, 2012 at 10:00am — 13 Comments

गीत: हर सड़क के किनारे --संजीव 'सलिल'

गीत:

हर सड़क के किनारे

संजीव 'सलिल'

*

हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,

धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....

*

कुछ जवां, कुछ हसीं, हँस मटकते हुए,

नाज़नीनों के नखरे लचकते हुए।

कहकहे गूँजते, पीर-दुःख भूलते-

दिलफरेबी लटें, पग थिरकते हुए।।



बेतहाशा खुशी, मुक्त मति चंचला,

गति नियंत्रित नहीं, दिग्भ्रमित मनचला।

कीमती थे वसन किन्तु चिथड़े हुए-

हर सड़क के किनारे हैं उखड़े हुए,

धूसरित धूल में, अश्रु लिथड़े हुए.....

*

चाह की रैलियाँ,…

Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2012 at 8:16am — 9 Comments

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