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November 2016 Blog Posts (119)


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - ये अंदर से आयी है वो रोशनी है ( गिरिराज भंडारी )

122   122   122   122  

ये माना कि हर सम्त कुछ बेबसी है

मगर हौसलों की बची ज़िन्दगी है

 

बुझेगी नहीं चाहे आंधी भी आये  

ये अंदर से आयी है वो रोशनी है

 

लकीरें हथेली की सारी थीं झूठी

जो कहती थीं आगे खुशी ही खुशी है

 

वो भूँके या काटे, डसे आस्तीं को  

अगर आदमी था, तो वो आदमी है

 

बिना ज़हर वाले बने हैं गिज़ा सब

ये क़ीमत चुकाई यहाँ सादगी है

 

घराना उजालों का था जिनका, उनका    

सुना…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 10, 2016 at 9:33am — 5 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
चाहना उसकी मगर गल जाए वो...ग़ज़ल//डॉ. प्राची

वक्त के साँचे में जो ढल जाए वो।
फिर कहीं ना आपको खल जाए वो।

है उसे सौगन्ध पिघलेगा नहीं
चाहना उसकी मगर गल जाए वो।

सिसकियाँ भरती रही वो लाश बन
वक्त से कहती रही टल जाए वो।

आँधियाँ बन खुद बुझाते हो जिसे
कह रहे हो दीप सा जल जाए वो।

ज़िद तुम्हारी है हवा को बाँधना
दोष मत देना अगर छल जाए वो।

मौलिक और अप्रकाशित
डॉ.प्राची सिंह

Added by Dr.Prachi Singh on November 10, 2016 at 6:30am — 3 Comments

अजनबी की तरह (नज़्म) // आबिद अली मंसूरी!

जब चले थे कभी 

हम 
अनजान राहों पर..
एक दूसरे के साथ
हमसफ़र बनकर,
कितनी कशिश थी
मुहब्बत की..
उस
पहली मुलाकात में,
चलो..! फिर चलें हम
आज
उसी मुकाम पर
जहां मिले थे कभी..
हम
अजनबी की तरह!
===========
(मौलिक व अप्रकाशित)
___ आबिद अली  मंसूरी!

Added by Abid ali mansoori on November 9, 2016 at 10:25pm — 4 Comments

मिजारू, किकाजारू या इवाजारू (लघुकथा)) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

बारी-बारी से पुराने और नये नोटों को वह बार-बार बारीकी से देख रहा था। पास ही बैठे उसके दोस्त ने पूछ ही लिया- "ऐसा क्या खास देख लिया पुराने और नये नोटों में? क्या सोच रहे हो?"



"देख रहा हूँ ख़ुद बन्दर बने हुए मुस्कराते अपने बापू को!"



"गांधी जी के तीनों बन्दरों की बात कर रहे हो!"



"हाँ, मिजारू, किकाजारू और इवाजारू!"



"क्या मतलब?"



"जापानी संस्कृति के अनुसार आँखें बंद किए हुए वाला 'मिजारू', कान बंद किए हुए वाला 'किकाजारू' और मुंह बंद किए हुए वाला… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 9, 2016 at 8:32pm — 2 Comments

अब, क्या बोलूं मैं ...

अब ,क्या बोलूं मैं ...

अब

क्या बोलूं मैं



जब

मेरे स्वप्निल शब्दों ने

यथार्थ का

आकार लेना शुरू किया

तो भोर की

एक रशिम ने

मेरे अंतरंग पलों पर

प्रहार कर दिया

मैं अनमनी सी

सुधियों के शहर से

लौट आयी

यथार्थ की

कंकरीली ज़मीन पर

मेरी उम्मीदों की मीनारें

ध्वस्त हो कर

मेरी पलकों की मुट्ठी से

निःशब्द

गिरती रही

तिल-तिल जुड़ने की आस में

मैं रेशा-रेशा

उधड़ती…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 9, 2016 at 8:27pm — 6 Comments

हम ग्यारह हैं (कविता)

हमें साथ रहते दस वर्ष बीत गये

दस बड़ी अजीब संख्या है

 

ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक

मैं हूँ

तुम शून्य हो

 

मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं

मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो

 

हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें

क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे

तो हम ग्यारह होंगे

दस नहीं

-------

(मौलिक एवंं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 9, 2016 at 8:02pm — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
“गुल्लक” (लघु कथा 'राज ')

 “बच्चों  की बहुत याद आएगी बेटी  इस बार मिंटू तो  बड़ा भी हो गया है और समझदार भी बहुत अच्छी अच्छी बातें करता है दस दिन कैसे कटे पता ही नहीं चला| बहुत कम छुट्टी लेकर आते  हो बेटा” नाश्ता खत्म करके प्लेट बहू की तरफ बढाते हुए मिंटू को प्यार से दुलारते हुए  देशराज ने पास बैठे अपने बेटे चन्दन से कहा |

 “ज्यादा छुट्टी कहाँ मिलती है पापा  मिंटू के स्कूल की भी समस्या है और फिर खुशबू की शादी में भी तो आना है फिर छुट्टी लेनी पड़ेगी” चन्दन ने कहा |

“हाँ बेटा वो तो है” कहकर पापा चन्दन की…

Continue

Added by rajesh kumari on November 9, 2016 at 6:44pm — 10 Comments

मेरे चेहरे पे कुछ लिखा है क्या (ग़ज़ल)

2122   1212   22

मुझको इस तरह देखता है क्या

मेरे चेहरे पे कुछ लिखा है क्या

बातें करता है पारसाई की

महकमे में नया-नया है क्या

आज बस्ती में कितनी रौनक है

कोई मुफ़लिस का घर जला है क्या

खोए-खोए हुए से रहते हो

प्यार तुमको भी हो गया है क्या

दिल मेरा गुमशुदा है मुद्दत से

फिर ये सीने में चुभ रहा है क्या

ढूँढ़ते रहते हैं ख़ुदा को सब

आजतक वो कभी मिला है क्या

लापता आजकल हैं…

Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on November 9, 2016 at 3:59pm — 5 Comments

तांटक छंद // अलका

तलवों तले सपनो की चुभन, भूल नहीं तुम पाओगे।
अंधकार से जूझोगे जब , नवजीवन तब पाओगे।।
स्वयम की खोज करो तब ही विश्व तुम्हे अपनायेगा।
गोद तिमिर की जब छानोगे आलोक निकल आयेगा।।

.

प्राण भी व्याकुल करेंगे जब साथ अँधेरे पाओगे।
बीज सृजन का पाने को प्रलय के गर्भ में जाओगे।।
जन्म तुम्हे वरदान मिला विशेष .. शेष में पायेगा।
तू चले या रुके फर्क नहीं वक्त चलता जायेगा।।


"मौलिक व अप्रकाशित" 

Added by अलका 'कृष्णांशी' on November 8, 2016 at 4:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल -- मेरी ग़ज़ल का हर एक पहलू नया नया है ( दिनेश कुमार )

121 22 -- 121 22 -- 121 22



नया ज़माना है पा में घुंघरू नया नया है

मुहब्बतों का ये रक़्स हर-सू नया नया है



कहाँ से सीखा है यूँ नज़र से शिकार करना

तेरी कमाँ पर ये तीर-ए-अब्रू नया नया है



निग़ाह-ए-साक़ी से मत उलझना ए दोस्त मेरे

वो मय से छलके है रिन्द भी तू नया नया है



जवान बेटे को देख मुझको यही है लगता

कि मेरे शाने पे एक बाज़ू नया नया है



मैं तिफ़्ले-मकतब हूँ मीरो-ग़ालिब को पढ़ने वाला

मेरी ज़बाँ पे ये रंग-ए-उर्दू नया नया… Continue

Added by दिनेश कुमार on November 8, 2016 at 1:06am — 6 Comments

"दिल्ली -संवेदनाएं" -कविता /अर्पणा शर्मा

सुना है भयंकर कोहरा छाया,

शीत ने दिल्ली को कँपकँपाया,

प्राणवायु को भारी बनाया,

हर तरफ इक जहरीला साया,

प्रदूषण से त्रस्त हर जीव,

जीवन श्वसन है लड़खड़ाया,

स्व-करनी भोगने का समय आया,

क्यों सब देखें दाँयें-बाँयें,

क्यों मर गईं सबकी सँवेदनाएं,

क्यों सरकार से सब अपेक्षाएँ,

और सब पर्यावरण की धज्जी उड़ाएं,

प्रबुद्ध वर्ग हो-हल्ला करे,

नियमों को अमलीजामा कौन पहनाए,

सब तरह के आक्रमण, विध्वंस,

झेल गई दिल्ली बिचारी,

अब आई इसके जीवन की… Continue

Added by Arpana Sharma on November 7, 2016 at 11:08pm — 2 Comments

हाथ में हाथ मिला कर देखो (ग़ज़ल)

२१२२ ११२२ २२

खुशनुमा ख्वाब सजा कर देखो,

रात में चाँद बुला कर देखो.

 

नींद आँखों में कहाँ है यारो,

सारे ग़म अपने भुला कर देखो.

 

नफरतें कर रहे हो क्यूँ मुझ से,

हाथ में हाथ मिला कर देखो.

 

तिश्नगी लव पे क्यूँ  तेरे छाई,

जाम हाथों से पिला कर देखो.

 

आज गर्दिश में है तेरी  ‘आभा’,

उस के ग़म दूर भगा कर देखो

 

 

....आभा 

अप्रकाशित एवं मौलिक 

Added by Abha saxena Doonwi on November 7, 2016 at 10:32pm — 4 Comments

हाँ रोते को हँसाना चाहता है(ग़ज़ल)/सतविन्द्र कुमार राणा

1222 1222 122
हाँ रोते को हँसाना चाहता है
ये दिल ऐसा बहाना चाहता है।

है जीना ठीक खातिर दूसरों की
यही सबको बताना चाहता है।

हमेशा से शरारत को बढ़ाया
शराफत आजमाना चाहता है।

जमीं जो बर्फ रिश्तों पे दिखाई
उसी को अब गलाना चाहता है।

फ़िजा में फैलता है जो कुहासा
उसे ही तो हटाना चाहता है।

चला इंसानियत की राह 'राणा'
वही खुद मुस्कराना चाहता है।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 7, 2016 at 9:35pm — 4 Comments

दिल को दरिया बना लिया हम ने (ग़ज़ल)

2122 1212 22

आपको आस-पास रखते हैं
फिर भी खुद को उदास रखते हैं

दिल को दरिया बना लिया हम ने
और लब हैं कि प्यास रखते हैं

लोग मिलते हैं मुस्कुरा के गले
दिल में लेकिन भड़ास रखते हैं

आदमी हम भले हैं मामूली
दोस्त पर ख़ास-ख़ास रखते हैं

लोग तकते हैं "जय" तुम्हारी राह
अब भी जीने की आस रखते हैं

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on November 7, 2016 at 8:00pm — 2 Comments

कितना सरल होता है कुछ कहना

कितना सरल होता है कुछ कहना



कहना है कुछ ?

हाँ , तो कह दो न

कहना ही तो है ।



जुबाँ से ही तो कहना होता है न

बिना सोचे समझें भी कह सकते है

पूछे कोई तो कहना

जुबाँ फ़िसल गयी भाई ।



कहना किसीसे कभी कभी

चुभ जाता है

कभी किसीसे कुछ कहने पर

वो खुश हो जाता है ।



कहा -सुनी हो जाये

तो बढ़ जातीं हैं दूरियाँ कभी ।

कभी सुनने के लिए

कान तरस जाते हैं ।



कहो जो कहना चाहते हो

पर सुनो भी तो

तो दूजा कहना… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 7, 2016 at 5:00pm — 3 Comments

बड़ी बात , छोटी सी कविता - डॉo विजय शंकर

हुकूमतें लाजवाल
हाकिम कामयाब
जनता त्रस्त बेहाल ,
अपने अपने नसीब हैं।

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on November 7, 2016 at 7:57am — 4 Comments

सबसे अपावन क्रोध है, क्रोध ना मन में जनें !

थी भोर की बेला सुहानी, भीड़ गंगा तट जुटी !  

इक वृद्ध सन्यासी चला, गंगा नहा अपनी कुटी !

ओढ़े दुशाला राम नामी, गेरुवा पट रंग था !

 कर में कमंडल था सुशोभित, भस्म चर्चित अंग था !!

 

प्रभु नाम का शुभ जाप करता, साधु कुछ…

Continue

Added by Satyanarayan Singh on November 6, 2016 at 10:09pm — 4 Comments

तुम्हारी ज़िन्दगी में ....

तुम्हारी ज़िन्दगी में ....

चलो

तुम ही बताओ

आखिर

कहाँ हूँ

मैं

तुम्हारी ज़िन्दगी में

नसीमे सहर में

स्याह रात के सितारों में

बरसात की बूंदों में

झील के माहताब में

या

तुम्हारी बन्द पलकों के

ख्वाब में

आखिर

कहाँ हूँ

मैं

तुम्हारी ज़िन्दगी में

तेज़ पानी में

बहती कागज़ की

कश्तियों में

साहिलों के बाहुपाश में लिपटी

सागर की लहरों में …

Continue

Added by Sushil Sarna on November 6, 2016 at 3:30pm — 4 Comments

‘वागीश्वरी’ सवैया पर एक प्रयास

१२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२२ १२

भजो राम को या भजो श्याम को या, भजो नित्य ही मित्र माँ बाप को |

चुनों धर्म का मार्ग सच्चा हमेशा , बढ़ावा न देना कभी पाप को,

सिखाना सभी को सिखाना स्वतः को, भुलाना यहाँ व्यर्थ संताप को,

नई ये हवाएं कहें क्या सुनो तो, सुनो थाप को वक्त की चाप को ||

तजो लाज सारी करो कर्म अच्छे, रहोगे जहां में तभी शान से |

न लेना किसी का न देना किसी का, जिलाता यही मार्ग सम्मान से,

बिना कर्म पाते सभी दुःख देखो,…

Continue

Added by Ashok Kumar Raktale on November 5, 2016 at 10:53pm — 9 Comments

अजनबी गलियाँ

अजनबी गलियाँ

चलते चलते
महसूस हुआ
गलियाँ बेगानी लगीं
देखते रहे
इधर उधर
नज़रे बैमानी लगीं
थे बहुत अपने यहाँ
पर सभी बेगाने लगे
खोजा बहुत उन सबको
शायद कोई अपना लगे ।
तंग गलियों में
चिपके हुए घरों के बीच
बस देखती रही यूँही ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 5, 2016 at 6:30pm — 6 Comments

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