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November 2014 Blog Posts (146)

खुशनसीब (लघुकथा)

दोनो बचपन की सहेलियाँ शादी होने के बहुत दिनो बाद मिली थीं. सारे दुःख-दर्द बाँटे जा रहे थे.
"मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ जो उनके जाने के बाद मुझे रोहन जैसे पति का साथ मिला जो हरपल मेरा ख्याल रखता है." पहली सहेली के चेहरे पर मुस्कान थी।.
"एक पति मेरा है, आधी रात के बाद पी के आता है, और मार-पीट के सो जाता है, ये दारु उसे कहीं ले भी तो नही जाती.
दूसरी की आँखों से बरबस ही आँसू छलक पड़े!

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Pawan Kumar on November 6, 2014 at 2:30pm — 24 Comments

दुकान (लघुकथा)

सडक के दांयी ओर पूजा जनरल स्टोर था और बांयी ओरगुप्ता प्रोवीजन स्टोर था।दोनो दुकाने आमने सामने थी। पूजा जनरल स्टोर गोरी चिट्टी नखरीली अदाओं से लबरेज लगभग बीस पच्चीस बर्ष की पूजा खुद सम्भालती थी। बांये अंग से बेकार पक्षाघात से पीडित गुप्ता जी अपनी दस बर्षीय बेटी तनु के साथ गुप्ता प्रोविजन स्टोर सम्भालते थे। जहाँ गुप्ता जी की दुकान में इक्का दुक्का ग्राहक आते बहीं पूजा को ग्रहको के चलते सांस लेने की फुर्सत नही मिलती। तनु ने इस बात को लेकर कितनी ही बार अपने पापा से शिकायत की लेकिन गुप्ता जी वही…

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Added by Dr.sandhya tiwari on November 6, 2014 at 2:00pm — 14 Comments

ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,गुमनाम पिथौरागढ़ी

बाप साँसे बस दो चार सँभाले हुए हैं

तब से बेटे बंगले कार सँभाले हुए हैं



जिसने रद्दी कुछ अखबार सँभाले हुए हैं

हाँ उन्ही बच्चों ने घरबार सँभाले हुए हैं



आशियाँ टूट चुका इश्क़ का फिर भी लेकिन

हम वफ़ा की इक दीवार सँभाले हुए हैं



शाह तो खोये रंगीनी में हरम की यारो

आप जंजीर की झंकार सँभाले हुए हैं



मुल्क को लूट रहे जितने भी थे ख़ैरख़्वाह

मुल्क को कुछ ही वफादार सँभाले हुए हैं



आपदा के जितने पीड़ित थे उनको बस

सुर्ख़ियों में…

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Added by gumnaam pithoragarhi on November 6, 2014 at 1:00pm — 11 Comments

“जलते सूरज से टकराओ”

तपते सूरज से

पिघल रही है बर्फ

बढ़ रहा है जलस्तर

तुम फिर डूबोगे

किसी मनु को खोजोगे

वह नहीं आयेगा

फिर कौन तुम्हे बचायेगा

प्रलय हो जायेगी

इस बार तुम्हें बचाने

कोई नाव नहीं आएगी

तुम पानी हो जाओगे

पर तुम्हे उठाना होगा

वाष्प बनकर उड़ना होगा

उठो बादल बन जाओ

इस जलते सूरज से टकराओ

इस बर्फ को पिघलने से

अगर तुम बचा पाओगे

तो स्वयं मनु बन जाओगे !!

("मौलिक व अप्रकाशित")

Added by Hari Prakash Dubey on November 6, 2014 at 12:30pm — 10 Comments

बर्फीली आंधी और पिस्तौल का निशाना

जग को मोहित करने वाला

स्वयं मोहित हो गया है

उसी माया पर  

जिसको रचा था

स्वयं उसी ने

इस जग को मोहने के लिए

उस पर अतिव्यापित

हो गयें हैं अनर्गल प्रलाप

प्रपंचों मैं फंसकर

वह स्वयं मनुष्य बन गया है

उस रंगमंच पर उतर गया है

जिसका अंत हमेशा होता है

परदे का गिर जाना

और किसी व्यक्तित्व का

पात्रों की भीड़ में खो जाना

वह अब मंच पर नाच रहा है

लोगों को हंसा रहा है

कभी रुला रहा…

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Added by Hari Prakash Dubey on November 6, 2014 at 12:00pm — 6 Comments

बस मुझे थोडा सा तुम प्यार दे दो ||

बाहोँ के अपनी वो के हार दे दो

प्यार भरे सोलह श्रंगार दे दो||

खिल जाए बगिया वो बहार दे दो

बस मुझे थोडा सा तुम प्यार दे दो ||

 

भड़क जाये  शोले वो आग दे दो

नाचे मेरा मन वो राग दे दो||

बजे दिल में सरगम को साज दे दो

बस मुझे थोडा सा तुम प्यार दे दो ||

 

उड़ जाऊ तुम संग वो परवाज दे दो

कदमो तले तुम ये आकाश दे दो||

मर जाऊ तुम पे ये विश्वाश दे दो

बस मुझे थोडा सा तुम प्यार दे दो ||

 

हाथो का अपने वो…

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Added by sarita panthi on November 6, 2014 at 9:00am — 7 Comments

बराबरी (लघुकथा)

"दो लड़कियाँ तो पहले ही थी, अब ये एक और हो गई।" उसने बड़ी मायूसी से कहा।
"तू चिन्ता मत कर कमला। आजकल की लड़कियाँ किसी भी चीज़ मेँ पीछे नही हैँ।, हर काम बराबर से करती हैँ, बल्कि माँ बाप के लिए जितना लड़कियाँ करती हैँ उतना तो आजकल लड़के भी नही करते।" सरोज ने अपनी पड़ोसन को समझाते हुए कहा।
"तू ठीक ही कहती है सरोज।  अरे हाँ याद आया,  तेरी बहू भी तो पेट से है न? कौन सा महीना है?"
"पाँचवा महीना है। अगर ठाकुर जी की कृपा रही तो पोता ही होगा।"

"पूजा"
अप्रकाशित एवं मौलिक

Added by pooja yadav on November 5, 2014 at 12:00pm — 13 Comments

ग़ज़ल------जुबाँ ग़र जह्र जो उगले जुबाँ को काट डालेंगे

कोई भी लफ्ज आगे से नहीं सच का निकालेंगे

जुबाँ गर जह्र जो उगले जुबाँ को काट डालेंगे



चलो तनहाई को लेकर यहाँ से दूर चलते हैं

ग़मे दिल के सहारे से नयी दुनिया बसालेंगे



मग़र तरक़ीब तो कोई बतादे बेव़फा हमको

तेरी हो याद ज़ोरों पर भला कैसे सँभालेंगे

कभी भी जुर्म के आगे मेरा सर झुक नहीं सकता

अना के वास्ते अपनी उसी दिन सर कटालेंगे



लगा है देश अब घुटने सियासत कायदे भूली

कभी आवाम के आँसू सियासत को डुबालेंगे



मौलिक व…

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Added by umesh katara on November 5, 2014 at 10:00am — 13 Comments

तन्हा प्याला .....

तन्हा प्याला  ....

रजकण हूँ मैं प्रणय पंथ का
स्वप्न लोक का बंजारा
हार के भी वो जीती मुझसे
मैं जीत के हरदम ही हारा
नयन सिंधु में छवि है उसकी
वो तृषित मन की मधुशाला
प्रणयपाश एकांत पलों का
मन में जीवित ज्यूँ हाला
गीत कंठ के सूने उस बिन
रैन चांदनी बनी ज्वाला
नयन देहरी पर सजूँ मैं उसकी
हृदय में है ये अभिलाषा
अपने रक्तभ अधरों की मधु बूँद से
जो भर दे मेरा तन्हा प्याला 

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 4, 2014 at 6:52pm — 16 Comments

आवरण....(लघुकथा)

रामकिशन अपनी फसल से बहुत ज्यादा  प्यार करता था. पौधों को अपने बच्चों के जैसा समझता. खेतों की साफ़-सफाई, हर काम शुरू करने से पहले पूजा-पाठ, यहाँ तक की अपनी भावुकता के कारण नन्हें-नन्हें पौधों पर कीटनाशकों का छिडकाव भी नहीं करता था. उसे यही लगता था कि इन मासूमों पर जहर का इस्तेमाल कैसे करूँ..?   किन्तु ख़राब मौसम के कारण जन्मे कीट उसकी फसल को चट कर जाते. अपने हाथ कुछ न लगना और गाँव के लोगों द्वारा उसकी  हंसी उड़ाना , एक दिन उसे समझ आ गया. अब रामकिशन अपनी फसलों से आमदनी का भरपूर फायदा ले रहा…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on November 4, 2014 at 1:05am — 14 Comments

चक्र-घिरनी

“सुना है शादी के बाद हाथों की लकीरें बदल जाती हैं.“ सुमन ने अपनी छह महीने पहले ब्याही बहन से पूछा

"वो तो तू ही जाने ज्योतिषाचार्या, मुझे तो इतना पता है की सात फेरों के बाद औरत के पाँवों की रेखाएं अवश्य बदल जाती है और ज़िन्दगी चक्र-घिरनी हो जाती है |"

उसने गहरी साँस भरते हुए कहा |

सोमेश कुमार

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

 

Added by somesh kumar on November 3, 2014 at 9:00pm — 9 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : दृष्टिकोण (गणेश जी बागी)

"हेलो, हाँ डॉक्टर साहब ! नमस्कार, बिटिया की शादी का निमंत्रण कार्ड भिजवा दिया है, भाभी जी और बच्चो को लेकर अवश्य आइयेगा"

"जी भाई साहब, नमस्कार, कार्ड मिल गया है, श्रीमती जी बच्चो के साथ जायेंगी, मैं न आ सकूँगा, आपको तो पता ही है शहर में डायरिया फैला हुआ है"

"हां, वो तो है, पर आपकी भगिनी की शादी है, कमसे कम दो दिन का भी समय निकालिये"

"माफ़ी चाहूंगा भाई साहब, सीजन चल रहा है यही तो दो पैसे कमाने के दिन हैं"

(मौलिक व अप्रकाशित)

पिछला पोस्ट => …

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 3, 2014 at 1:40pm — 26 Comments

छुट्टी

सोनू जब सुबह सो के उठा तो माँ को घर में देखे के बोला - "अरे माँ आज ऑफिस नहीं गये आप ??"

माँ ने मुस्करा के "नहीं बेटा आज ऑफिस की सरकारी छुट्टी है .."

"छुट्टी कैसी माँ ?? कल ही तो आप सांता बाई को काम पर न आने के लिए डांट रही थी कि रोज रोज छुट्टी नहीं मिलती है ...

आपको छुट्टी मिल सकती है तो सांता बाई को क्यों नहीं माँ ?"

"फिर सरकार कितनी छुट्टी करती है माँ. "

जवाब तो माँ के पास था नहीं , बस डांट थी सोनू के लिए ....

(मौलिक व अप्रकाशित )…

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Added by Alok Mittal on November 3, 2014 at 1:30pm — 13 Comments

रहे अब लाख पेचीदा सफ़र तै कर लिया है

रहे अब लाख पेचीदा सफ़र तै कर लिया है

न छोडूंगा मुहब्बत की डगर तै कर लिया है

 

ज़माना भी खड़ा है हाथ में शमशीरें लेकर

मैंने भी सरफरोशी का इधर तै कर लिया है

 

गुज़ारिश है रुको कुछ देर तन्हाई मिटादो

चले जाओ कि जाने का अगर तै कर लिया है

 

उदासी  की फटी चिलमन हटाकर फैंक दूंगा

जिऊँगा अब तबस्सुम  ओढ़कर तै कर लिया है

 

हवाओं सब चरागों को बुझादो ग़म नहीं कुछ

अँधेरे में जलाऊंगा जिगर तै कर लिया है

 

खड़ा…

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Added by khursheed khairadi on November 3, 2014 at 11:30am — 9 Comments

अपना स्वयं विकास करे

(गीतिका छंद)

14-14 मात्राए 



खुद पर तो विश्वास करे

अपना स्वयं विकास करे |



कुदरत से खिलवाड करे,

मेघ बरस कर नाश करे |



पर्यावरण का ध्यान धरे,

तब कुदरत से आस करे |



सभी वृक्ष भी जीव धरे

पक्षी जहां प्रवास करें |



मन से हम संकल्प करे

सब में हम विश्वास करे |



दुखिया से कभी पूछ्ले

काहे सदा उदास रहे |



उनसे हम क्या बात करे

आये दिन बकवास करे |



शाश्वत प्रेम सदैव रहे

अपनों पर… Continue

Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 3, 2014 at 10:30am — 12 Comments

दिल ये बेईमान सताता है.....................

दिल ये बेईमान सताता है

हर पल भटकना चाहता है

डोरी है प्यार की नाजुक सी

कच्ची है कह धमकाता है

हलकी सी भी हवा मिले तो 

हवा के संग बह जाता है



लग जाये ना गैरों की नजर

इस डर से छुपाकर रखा है

मैं लाख सम्हालूँ जतन करूँ

मुझको ही भ्रम दे जाता है



देखूं तो दुनिया…

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Added by sarita panthi on November 2, 2014 at 10:00pm — 10 Comments

जनता जर्नादन भी सुन लो (आल्हा)

नेताजी की महिमा गाथा, लोग भजन जैसे हैं गाय ।

लोकतंत्र के नायक वह तो, भाव रंग रंग के दिखाय ।।

नटनागर के माया जैसे, इनके माया समझ न आय ।

पल में तोला पल में मासा, कैसे कैसे रूप बनाय ।।

कभी कभी जनता संग खड़े, जन जन के मसीहा कहाय ।

मुफ्त बांटते राशन पानी, लेपटाप बिजली भरमाय ।

कभी मंहगाई पैदा कर, दीन दुखीयों को तड़पाय ।।

बांट बेरोजगारी भत्ता, युवा शक्ति को ही भटकाय ।।

भस्मासुर बन करे तपस्या, जनता पर निज ध्यान लगाय ।

भांति भांति से करते पूजा, वह जनता को देव… Continue

Added by रमेश कुमार चौहान on November 2, 2014 at 9:35pm — 9 Comments

मुख्यधारा

 मुख्यधारा

“ ए रुको,अपना लाइसेंस दो “ट्रैफिक हवलदार ने उसकी मोटर-साईकिल रोकते और चलान मशीन की तरफ देखते हुए कहा |

“ क्यों ,क्या हुआ साहब ? ”

“ पिछली सवारी बिना हेलमेट के है |”

“ नाम-मदन ,गाड़ी न.- - - - “

सर ,कारण क्या देंगें ?

“ पिछली पुरुष सवारी बिना हेलमेट “

पर ये तो - - -

“अच्छा ,स्त्री है ,माफ़ करना,पहनावे और बालों से मालूम नहीं हुआ “

“तो सर ,चालन में स्त्री या पुरुष लिखना जरूरी है ?”

“हूँ |अब जब से औरतों के लिए हेलमेट…

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Added by somesh kumar on November 2, 2014 at 9:25pm — 5 Comments

"थोड़ी अपनी ही ज़वानी कहो"

बच्चे सोयें वो कहानी कहो।
थोड़ी अपनी ही जवानी कहो।।

बुढ़ापे का ज़ख्म अब रफ़ू करो।
आँसुओं को फिर से पानी कहो।।

ये शहर रौशन नहीं वर्षों से।
इक शाम ही सही सुहानी कहो।।

मोहब्बत का महकता ख़त रहा।
कभी बातें वही पुरानी कहो।।

बहुत ख़त लिखे बहुत ख़त पढ़े।
अब दिल की बातें जबानी कहो।।
**********************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक। अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on November 2, 2014 at 10:09am — 18 Comments

सितारों की कसम उस चाँद को भूला नहीं अब तक--ग़ज़ल उमेश कटारा

1222 1222 1222 1222



मुझे ख़त भेज़ता है वो ,कभी मेरा हुआ था जो

गया था छोड़कर मुझको ,मेरा बनकर ख़ुदा था जो



सितारों की कसम उस चाँद को भूला नहीं अब तक

मेरी तन्हा भरी उस रात में सँग सँग ज़गा था जो



परेशाँ तो नहीं होगा,अकेला तो नहीं होगा

मुझे है फिक्र क्यों उसकी, नहीं मेरा हुआ था जो



कभी दिन के उज़ाले में चला था साथ वो मेरे

मगर फिर छोड़कर मुझको अँधेरे में गया था जो



जमाने को शिकायत भी मेरे इन आँसुओं से है

बहुत लम्बा चला…

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Added by umesh katara on November 1, 2014 at 8:30pm — 6 Comments

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