खबर क्या है किसी को कल की
ज़िन्दगी ठहरी फ़क़त दो पल की
एक से ही हैं गम हमारे
एक सी ही तो खुशियाँ
दिल से दिल के दरमयाँ
फिर क्यूँ इतनी है दूरियाँ
तमन्ना किसे है आखिर ,किसी ताजमहल की
ज़िन्दगी ठहरी फ़क़त दो पल की .............
आ चल दो पल हम
जरा दिल से रो लें
नफ़रत के हर निशाँ
आँसुओं से धो लें
ओढ़ माँ का आंचल
दो पल को हम सो लें
जिन्दगानी हो कहानी ,यक नए पहल की
ज़िन्दगी ठहरी फ़क़त दो पल की…
Added by Kedia Chhirag on December 3, 2013 at 4:00pm — 9 Comments
- दोहावली -
संग हरि किये हरि हुये, दानव ,दानव संग
किंतु न मानव बन सके, कर मानव के संग
कह सुन खाली मन करें, बचे न कोई बात ।
मन को उजला कीजिये, जैसे उजली रात ।।
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 3, 2013 at 2:30pm — 23 Comments
1221 1221 1221 121
हमेशा राह में नदियों, बिछे पत्थर नहीं होते
मिला वनवास जिनको हो, उनके घर नहीं होते
.
किसी से बावफा तो, किसी से बेवफा क्यों दिल
कभी इन सवालों के, कोई उत्तर नहीं होते
.
कभी चलके, कभी तर के, जहाँ घूम लेते हैं
परिन्दे जिनके उड़ने को, वदन पे पर नहीं होते
.
चला देते हैं झट खन्जर, नीदों में भी साये पे
ये ना समझो जहन में कातिलों के डर नहीं होते
.
गर जीना हो भोलापन, रहो भीड़ से…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 3, 2013 at 11:00am — 11 Comments
अकुला रही सारी मही
किसको पुकारना है सही ।
सोच रही अब वसुंधरा
कैसा कलुषित समय पड़ा
बालक बूढ़े नौजवान
गिरिवर तरुवर आसमान
किसको पुकारना .........
अखंड भारत का सपना
देखा था ये अपना
खंडित हो कर बिखर रहा
न जन मानस को अखर रहा
अकुला रही .................
ढूँढने पर भी अब मिलते नहीं
राम कृष्ण से पुरुषोत्तम कहीं
गदाधर भीम अर्जुन धनु सायक नहीं
गांधी सुभाष भगत से नायक…
ContinueAdded by annapurna bajpai on December 3, 2013 at 11:00am — 10 Comments
परीक्षाएं निकट थीं लेकिन टीचर पिछले कई दिनों से क्लास से गायब थे. पढ़ाई का बहुत हर्जा हो रहा था जिसे देखकर उसे बेहद गुस्सा आता. रह रह कर उसके सामने अपनी विधवा बीमार माँ का चेहरा घूम जाता, जो लोगों के घरों में झाड़ू पोछा कर उसे पढ़ा रही थी. आखिर उस से रहा न गया और वह शिकायत लेकर प्रधानाचार्य के पास जा पहुंचा।
“उस कक्षा में और भी तो विद्यार्थी है, सिर्फ तुम्हें ही शिकायत क्यों है।”
“क्योंकि मैं एकलव्य नहीं हूँ सर।”
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on December 3, 2013 at 10:00am — 24 Comments
चार मुक्तक
1.
झुकाना पड़े सिर मां को ऐसा कारोबार मत कीजिये,
अपने लहू से जिसने पाला उसे लाचार मत कीजिये,
कर सको तो करो ऐसा काम जगत में कि गर्व हो तुम पर,
कोख मां की हो जाये लज्जित ऐसा व्यवहार मत कीजिये,
2.
बरस बीत जाते है किसी के दिल में जगह पाने में,
एक गलत फहमी देर नहीं लगाती साथ छुड़ाने में,
बहुत नाजुक होती है मानवीय रिश्तों की डोर यहां,
नफरत में देर नहीं लगाते लोग पत्थर उठाने में।
3.
हर बात की अपनी करामात होती है,
कभी ये हंसाती तो…
Added by Dayaram Methani on December 2, 2013 at 11:09pm — 8 Comments
ये दीवारें बहुत ऊंची और चौड़ी हैं
कि कोई तांक झांक न कर सके
लेकिन यहां एक खिड़की है
शोर मत करो,ये शरीफों कि वस्ती है
एक औरत जो घूंघट ओड़कर आती है
और घूंघट ओड़कर चली जाती है
एक मोटर इस वस्ती से निकलकर
एक दूसरी वस्ती में जाती है हर रोज
शोर मत करो, ये शरीफों कि वस्ती है
उसके कपड़ॆ बहुत उजले हैं
और महीन भी बहुत हैं
नजदीक न जाओ मैले हो सकते हैं
और महीन रेशों के बीच से
परावर्तित किरणें तुम्हरी आंखों…
ContinueAdded by hemant sharma on December 2, 2013 at 11:00pm — 8 Comments
इक पल मैं हूँ..........
इक पल मैं हूँ इक पल है तू
इक पल का सब खेला है
इक पल है प्रभात ये जीवन
इक पल सांझ की बेला है
इक पल मैं हूँ..........
ये काया तो बस छाया है
इससे नेह लगाना क्या
पूजा इसकी क्या करनी
ये मिट्टी का ढेला है
इक पल मैं हूँ..........
प्रश्न उत्तर के जाल में उलझा
मानव मन अलबेला है
क्षण भंगुर इस जिस्म में लगता
साँसों का हर पल मेला…
Added by Sushil Sarna on December 2, 2013 at 10:00pm — 14 Comments
श्वेत वसना दुग्ध सी, मन मुग्ध करती चंद्रिका।
तन सितारों से सजाकर, भू पे उतरी चंद्रिका।
चाँद ने जब बुर्ज से,…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on December 2, 2013 at 8:00pm — 33 Comments
प्यार में होता सदा ही दर्द क्यों है ?
यह जमाना हो गया बेदर्द क्यों है ?
है बिना दस्तक चला आता सदा जो
वो बना यूँ आज फिर हमदर्द क्यों है ?
छू रही है रूह मेरी आते जाते
यह तुम्हारी साँस इतनी सर्द क्यों है ?
अपनी यादों को समेटे जब गए हो
आज यादों की उठी फिर गर्द क्यों है ?
प्यार पर करता जुल्म हर रोज है जो
वो समझता खुद को जाने मर्द क्यों है ?
तुम समझती हो मुहब्बत जिसको सरिता
वो बना…
ContinueAdded by Sarita Bhatia on December 2, 2013 at 5:40pm — 16 Comments
मैं तारों से बातें करता हूँ
जब गहन तिमिर के अवगुंठन में
धरती यह मुँह छिपाती है
मैं तारों से बातें करता हूँ
झिल्ली जब गुनगुनाती है.
(2)
फुटपाथों पर भूखे नंगे
कैसे निश्चिंत हैं सोये हुए
उर उदर की ज्वाला में
जाने क्या सपने बोये हुए.
(3)
दो बूंद दूध का प्यासा शिशु
माँ की आंचल में रोता है
रोते रोते बेहाल अबोध
फिर जाने कैसे सो जाता है!
(4)
क्या उसके भी सपनों में
कोई, सपने लेकर आता…
Added by sharadindu mukerji on December 2, 2013 at 5:00pm — 20 Comments
रघु सुबह-सुबह ऑटो रिक्शा लेकर सड़क पर निकला ही था क़ि तभी ट्रैफिक पुलिस के एक सिपाही ने हाथ देकर रिक्शा रोक लिया, रघु एक अंजाने भय से कांप गया |
"स्टेशन जा रहे हो क्या ? चलो मुझे भी चलना है" सिपाही जी अपने चिरपरिचित अंदाज मे बोले |
"जी, साहब, स्टेशन ही जा रहे हैं"
आज दिन ही खराब है, सुबह सुबह पता नही किसका मुँह देख लिया था, अभी बोहनी भी नही हुई और सिपाही जी आकर बैठ गये, मन ही मन खुद को कोसते हुए रघु गंतव्य की ओर बढ़ चला | रघु स्टेशन पहुँच कर सभी…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 2, 2013 at 4:13pm — 36 Comments
"क्या? आपने धूम्रपान छोड़ दिया? ये तो आपने कमाल ही कर दिया।"
"आखिर इतनी पुरानी आदत को एकदम से छोड़ देना कोई मामूली बात तो नहीं।"
"सही कहा आपने, ये तो कभी सिगरेट बुझने ही नही देते थे।"
"जो भी है, इनकी दृढ इच्छा शक्ति की दाद देनी होगी।"
"इस आदत को छुड़वाने का श्रेय आखिर किस को जाता है?"
"भाभी को?"
"गुरु जी को?"
"नहीं, मेरी रिटायरमेंट को।"उसने ठंडी सांस लेते हुए उत्तर दिया।
.
.
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by योगराज प्रभाकर on December 2, 2013 at 4:00pm — 63 Comments
"देखो-देखो दमयंती, तुम्हारे शहर के कारनामे!! कभी कोई अच्छी खबर भी आती है, रोज वही चोरी, डकैती ,अपहरण ...और एक तुम हो कि शादी के पचास साल बाद भी मेरा शहर मेरा शहर करती नहीं थकती हो अब देखो जरा चश्मा ठीक करके टीवी में क्या दिखा रहे हैं" कहते हुए गोपाल दास ने चुटकी ली।
"हाँ-हाँ जैसे तुम्हारे शहर की तो बड़ी अच्छी ख़बरें आती हैं रोज, क्या मैं देखती नहीं थोडा सब्र करो थोड़ी देर में ही तुम्हारे शहर के नाम के डंके बजेंगे" दादी के कहते ही सब बच्चे हँस पड़े और उनकी नजरें टीवी स्क्रीन पर गड़ गई। …
Added by rajesh kumari on December 2, 2013 at 11:46am — 29 Comments
"एक लाख पचपन हजार.. एक
एक लाख पचपन हजार.. दो
एक लाख पचपन हजार.. तीन ..."
अधिकारी महोदय ने जोर से लकड़ी का हथौड़ा मेज पर दे मारा. रघुराज ठेकेदार की तरफ देखते हुए वे धीरे से मुस्कुरा दिए.
रघुराज ठेकेदार ने भी आँखों ही आँखों में अधिकारी महोदय को मुस्कुराते हुए अपनी सहमति जतायी और अपने मित्र मोहन के कंधे पर हाथ रख धीरे से बोल उठे, ''ओये मोहन्या..चल भाई, हम भी अब अपना काम करें. अधिकारी महोदय के लिए पूरा इंतजाम करना है ''
दोनों खुश-खुश नीलामी स्थल से…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on December 2, 2013 at 9:36am — 34 Comments
ज़िन्दगी तू मौत से पीछा छुड़ा न पाएगी।
उम्र बढ़ती जाएगी , करीब आती जाएगी।।
ज़िन्दगी सफर है और, मुक्ति है मंजि़ल…
ContinueAdded by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on December 2, 2013 at 9:07am — 24 Comments
चोटिल अनुभूतियाँ
कुंठित संवेदनाएँ
अवगुंठित भाव
बिन्दु-बिन्दु विलयित
संलीन
अवचेतन की रहस्यमयी पर्तों में
पर
इस सांद्रता प्रजनित गहनतम तिमिर में भी
है प्रकाश बिंदु-
अंतस के दूरस्थ छोर पर
शून्य से पूर्व
प्रज्ज्वलित है अग्नि
संतप्त स्थानक
चैतन्यता प्रयासरत कि
अद्रवित रहें अभिव्यक्तियाँ
फिर भी
अक्षरियों की हलचल से प्रस्फुटित
क्लिष्ट, जटिल शब्दाकृतियों…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on December 2, 2013 at 9:00am — 37 Comments
ग़ज़ल
लोग फिर बातें बनाने आ गए,
यार मेरे, दिल दुखाने आ गए.
...
जिंदगी का ज़िक्र उनसे क्या करूँ,
मौत को जो घर दिखाने आ गए.
...
रूठनें का लुत्फ़ आया ही नहीं,
आप पहले ही मनाने आ गए.
...
दो घडी बैठो, ज़रा बातें करो,
ये भी क्या बस मुँह दिखाने आ गए.
...
जेब अपनी जब कभी भारी हुई,
लोग भी रिश्ते निभाने आ गए.
...
राह से गुज़रा पुरानी जब कभी,
याद कुछ चेहरे पुराने आ गये. …
Added by Nilesh Shevgaonkar on December 2, 2013 at 8:00am — 19 Comments
भोले मन की भोली पतियाँ
लिख लिख बीतीं हाये रतियाँ
अनदेखे उस प्रेम पृष्ठ को
लगता है तुम नहीं पढ़ोगे
सच लगता है!
बिन सोयीं हैं जितनीं रातें
बिन बोलीं उतनी ही बातें
अगर सुनाऊँ तो लगता है
तुम मेरा परिहास करोगे
सच लगता है!
रहा विरह का समय सुलगता
पात हिया का रहा झुलसता
तन के तुम अति कोमल हो प्रिय
नहीं वेदना सह पाओगे
सच लगता है!…
ContinueAdded by वेदिका on December 2, 2013 at 5:00am — 54 Comments
मौसम के
सहारे वह
अरमान सजाता
जीवन का
दिन रात ना समझे वह तो
एहसास,ना वर्षा,ना ठंड का
कमर तोड़ मेहनत पर भी
ना मिलता उसे निवाला था।
खाद बीज महँगा अब तो
पानी भी ना देता संग था।
कर्ज में डूब कर भी वह
करता पूरे कर्म था।
तब जीवनदायक
अनाज का दाना
आता उसके घर था।
बड़े अरमान इसी दाने पर
हाथ पीले बेटी के
बदले मेहर की वह
तन दिखाती साड़ी को
जीवन की है और जरूरत
महीनो तक मुँह का निवाला
कर्ज निवारण इसी दाने…
Added by Akhand Gahmari on December 2, 2013 at 12:13am — 8 Comments
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