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December 2015 Blog Posts (158)

मन तुम भी-गजल(मनन)

2212 2212 2122 22 12

सबने कही अपनी कथा अब कहो मन तुम भी अभी,

कितनी रही व्यथा बता चुप न रो मन तुम भी अभी।

चलते रहे हो साथ मेरे चला हूँ जिस मग जहाँ

करता रहा हूँ बात मैं अब करो मन तुम भी अभी ।

राजा मुझे मन का कहा जँच गया था मुझको कहूँ

बहता रहा मन- मौज अब बह चलो मन तुम भी अभी ।

टूटे हुए सब ख्वाब मैंने बटोरे फिर फिर यहाँ

बिखरे सभी जितने बटे आ बटो मन तुम भी अभी ।

कितनी कलाएं साधता आ गया मैं हूँ अब यहाँ

सधता गया बस काल है अब कहो मन तुम भी… Continue

Added by Manan Kumar singh on December 6, 2015 at 9:02pm — 1 Comment

निश्छल प्रेम - लघुकथा

वो अकेली बैठी रो रही थी, जंगली जानवरों से उसका रोना बर्दाश्त नहीं हुआ, वो उसके पास जाकर उसका दुःख पूछने लगे|

उसने कहा, "मैं उससे बहुत प्रेम करती हूँ, लेकिन उसे केवल मेरी खूबसूरती से ही प्रेम है, और वो ही मेरी सुन्दरता नष्ट कर रहा है, पता नहीं कैसे-कैसे रासायनिक द्रव और विष समान कचरा युक्त जल मुझे पीना होता है, उसके फैलाये धुंए से मैं क्षीण और कुरूप होती जा रही हूँ| उसके मचाये शोर से बहुत घबरा जाती हूँ, क्या करूँ?"

फिर उसने तितली से कहा, "तुम जिन फूलों पर जाती…

Continue

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on December 6, 2015 at 8:30pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अतुकांत - नीम तले ही खेलें ( गिरिराज भंडारी )

नीम तले ही खेलें

*****************

कहाँ छाया खोजते हो तुम भी

बबूलों के जंगलों में

केवल कांटे ही बिछे होंगे ,

नुकीले , धारदार

सारी ज़मीन में

काट डालें

जला ड़ालें उसे

 

उनके पास है भी क्या देने के लिये

सिवाय कांटों के

चुभन और दर्द के

कुछ अनचाही परेशानियों के

 

होंगी कुछ खासियतें ,

बबूलों में भी

पर इतनी भी नहीं कि लगायें जायें

बबूलों के जंगल

नीम में उससे भी…

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Added by गिरिराज भंडारी on December 6, 2015 at 8:00pm — 3 Comments

ट्रेन यात्रा .एक अतुकान्त कविता-मनोज कुमार अहसास

अनारक्षित ट्रेन थी

खचाखच भरी थी

भरे थे लोग भूसे की तरह

सीटों पर

ऊपर सामान रखने की जगह पर

फर्श पर

लेकिन

मुझे तो जाना ही था ।

खड़ी बोली के सहारे

चार मित्रो और बलिष्ट भुजाओ की सहायता से

मैंने मार्ग बनाया ।



कितने लोग!

इतने लोग?

सब बहुत घुले मिले थे आपस में

क्या कर रहे हैं?

कहाँ जा रहे हैं?

काम से आ रहे हैं

काम पर जा रहे हैं

इतनी दूर से काम पर आ रहे है

अरे?



क्या ये साप्ताहिक गाड़ी… Continue

Added by मनोज अहसास on December 6, 2015 at 2:30pm — 2 Comments

मरना भी हो देश पे मरना। "अज्ञात "

राम कृष्ण की जन्मभूमि,                       

है कर्म-स्थली वीरों की,                           

भारत की पावन माटी सी,                      

होगी कहीं जमीन कहाँ ।      

                 

यूँ  तो रंग अनेकों होंगे,                            

दुनिया में सब देशों के,                                            

मगर तिरंगे के रंग जैसा,                      

होगा भी रंग तीन कहाँ।

                     

शिरोधार्य कर माँ की…

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Added by Ajay Kumar Sharma on December 6, 2015 at 1:36pm — 3 Comments

प्रीत घट में से भला फिर - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ ( ग़ज़ल )

2122    2122    2122    212

********************************

बेसदा  बस्ती  की  रस्मों को निभाना  था हमें

इसलिए  अपनी  जबानों  को  कटाना था हमें /1



या तो कातिल उस नगर में या बचे सब गैर थे

बोझ अर्थी  का स्वयं  की  खुद  उठाना था हमें /2



आग का  दरिया  मुहब्बत ताप आए हम भी यूँ

जो दिलों में जम गया  वो हिम गलाना था हमें /3



भर गए सुनते  थे वो ही चल दिए जो रीत कर

प्रीत घट  में से भला फिर क्या बचाना था हमें /4



रास्ता  यूँ तो  सफर का  जानते …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 6, 2015 at 5:30am — 8 Comments

पहल -लघुकथा

ऐसे तो उसे इस घर में आये एक हफ्ता होने को आ रहा था किन्तु अभी भी वह एक अवांछित ही थी घर वालों के लिए I कसूर बस इतना था कि उसने इस घर के इकलौते बेटे के साथ प्रेम विवाह किया था I सिर्फ विवाह ही नहीं अलग रहने के बजाय वक़्त के साथ सब कुछ ठीक हो जाने की आस लिए वह इस घर में भी आ गयी थी I नतीजा !! अवांछित ......I पर वह भी थी एकदम जीवट किस्म की !ठान लिया था कि जब तक सब ठीक न हो जाएगा हार नहीं मानेगी I

उस दिन वह पानी पीने के लिए किचन की ओर जा रही थी कि माँजी के कमरे से आते स्वर को सुन…

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Added by meena pandey on December 6, 2015 at 1:30am — 10 Comments

"आभासी रंग"

"बादल !! देखो कितनी सुन्दर हरियाली , चलो हम कुछ देर यही टहलते है"

वो देखो मानव और प्रकृति भी है .संग नृत्य करेगे.

"बादल ने हवा का हाथ पकडते हुए  गुस्से मे कहा-- चलो!! यहाँ से  धरती माँ की गोद  मे  जहाँ सिर्फ़ प्रकृति बहन ही हो. हम वहा नृत्य करेगे".मानव तो कब का उसे छोड चुका है,बेचारी मेरी प्रकृति बहना…

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Added by नयना(आरती)कानिटकर on December 5, 2015 at 3:30pm — 2 Comments

जनतंत्र में जयकार की जय - डॉo विजय शंकर

कोई ये दावा कर के बैठा है ,

कोई वो दावा करके बैठा है ,

कहाँ रह गए गरीबी मिटाने वाले ,

सबसे आगे तो वो निकला

जो रोटी रोटी पे अपनी तस्वीर

चिपका के बैठा है।

क्या बात है ,

हर बात में तेरी जय ,

हर खुशी में तेरी जय ,

हर गमी में तेरी जय ,

फसल अच्छी तो तेरी जय ,

पड़े सूखा तो तेरी जय ,

हर आपदा में जय ,

जय , सिर्फ तेरी जय ,

खाए तो तेरी जय ,

भूखा हो तो तेरी जय ,

जिए तो तेरी जय

मरे तो तेरी जय ,

जिंदगी रहे या जाए… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on December 5, 2015 at 10:42am — 11 Comments

गजल(आ चलो)

गजल

2122 2122

**************************

मैं चलो सपने सजा दूँ

आ सुनो अब गीत गा दूँ।

जो पड़ीं सोयी जहन में

ख्वाहिशें फिर से जगा दूँ।

जो बुझी है आरजू अब

आ उसे जलना सिखा दूँ।

है पड़ी सूनी डगर अब

राग मीठा गुनगुना दूँ ।

चल अली सूनी गली का

साँस से रिश्ता लगा दूँ ।

रश्मियों से आरती कर

आ अभी पलकें बिछा दूँ।

छू गया कबका पवन मुख

बन हवा तुझको रिझा दूँ।

छा रहीं मुख पे घटायें

आ अभी फिरसे सजा दूँ।

ताप तेराअब शमन… Continue

Added by Manan Kumar singh on December 5, 2015 at 9:07am — 10 Comments

डरे जो तिमिर से भला क्या मिलेगा - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’(गजल)

122    122    122    122

**************************

डरे जो तिमिर से भला क्या मिलेगा

लड़ो  जुगनुओं  का  सहारा  मिलेगा /1



हमेशा   नहीं   यूँ   अँधेरा मिलेगा

भले  ही रहे कम  उजाला मिलेगा /2



कहावत है तम की जहाँ बस्तियाँ हों

वहीं   दीपकों   का   बसेरा   मिलेगा /3



चलो  ढूँढते  हैं   उसे   रात  भर अब

कहीं तो तिमिर का किनारा मिलेगा /4



भटक जाओ गर तुम गगन को निहारो

बताता  दिशा   इक  वो  तारा  मिलेगा /5



फकत जागने…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 5, 2015 at 6:00am — 14 Comments

जवान को नमन

राजस्थानी रेत हो या,बर्फ हो हिमालय की
खड़ा देखो वक्षतान, भारती का लाल है

देश प्रेम की है ज्वाला , हिय में धधक रही
भारती की रक्षा हेतु,बना हुआ ढाल है

उसकी शक्ति कोई, भांप नहीं पाये यहाँ
दुश्मन की जिंदगी को, बना हुआ काल है

शीश काटा जाय चाहे, गोदा जाये अंग-अंग
शान से सीमा पे खड़ा,भारती का लाल है
~~~मेरीकलमसे~~~

मौलिक व अप्रकाशित

Added by आर्यपुत्र सनी जाट स्वदेशी on December 4, 2015 at 9:50pm — No Comments

हाल न हमसे पूछो (ग़ज़ल)

2122   1122   1122   22

किसको कितना है मिला माल,न हमसे पूछो।

हाँ!  करप्शन  का  ये  जंजाल न  हमसे पूछो।

तेरे  कारण  हुई  है, ये  जो  मेरी  हालत  है,

अब  तुम्हीं  आके  मेरा  हाल  न  हमसे  पूछो।

ज़ेह्न-ओ-दिल से तेरी यादों को मिटा डाला,अब

बीते  दिन, गुज़रे  हुए  साल  न  हमसे  पूछो।

कौन आख़िर ले गया गाँव की पंचायत को,

कहाँ  ग़ायब  हुए  चौपाल, न  हमसे  पूछो।

जनवरी और दिसंबर के महीने में…

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Added by जयनित कुमार मेहता on December 4, 2015 at 8:30pm — 17 Comments

"अब लौट चले"

सुरेखा कब से देख रही थी आज माँ-बाबूजी पता नहीं इतना क्या सामान समेट रहे है। बीच मे ही बाबूजी बैंक भी हो आए.एक दो बार उनके कमरे मे झांक भी आयी चाय देने के बहाने मगर पूछ ना पाई।

"माँ-बाबूजी नही दिख रहे ,कहाँ है.?"सुदेश ने पूछा

"अपने कमरे मे आज दिन भर से ना जाने क्या कर रहे है। मैं तो संकोच के मारे पूछ भी नही पा रही.तभी---…

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Added by नयना(आरती)कानिटकर on December 4, 2015 at 7:00pm — 13 Comments

ड्रीम गर्ल(लघुकथा )राहिला

उस छोटे से कस्बे में अचानक बेहद सुन्दर युवती का आगमन जहाँ एक ओर नुक्कड़ पर खड़े ठलुओं के बीच हलचल का विषय बन गया वहीं उनके लीडर और सबसे सुदर्शन भंवरे रोहन के लिये चुनौती।अब होड़ इस बात की थी कि उस सुन्दरी से सबसे पहले बात करने का सौभाग्य किसे मिलता है । बहुत जतन के बाद सबके अरमान तब ठंडे हो जाते जब वो उन सब को नजरअंदाज कर गुजर जाती । गुजरते वक्त के साथ उसकी बेनियाजी भले ही किसी को इतनी ना अखरी हो लेकिन रोहन के लिये अ़ना का सवाल बन गई थी। ऐसे में एक दिन उसने मित्र मंडली के बीच धमाका किया, कि आज… Continue

Added by Rahila on December 4, 2015 at 5:35pm — 26 Comments

गॉड फ़ादर (लघुकथा )

खूबसूरत राखी एक बेहतरीन नृत्यांगना और अभिनेत्री थी!फ़िल्म उद्योग में तीन साल से हाथ पैर मार रही थी!काम तो मिल रहा था मगर उसकी प्रतिभा के मुताविक…

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Added by TEJ VEER SINGH on December 4, 2015 at 5:30pm — 15 Comments

जुगुप्सा

खुशियाँ उनकी ,

आतिशवाजी की तरह छूती हैं , आसमान।

फुदकती हैं, फब्बारों सी, और 

उनके अट्टहास में, अनजान, भी होते…

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Added by Dr T R Sukul on December 4, 2015 at 4:30pm — 10 Comments

मुरीदों के जादुई चिराग़ - (लघुकथा) /कहानी /शेख़ शहज़ाद उस्मानी (40)

गहरी नींद में सोये हुये इक्कीसवीं सदी के मानव को सपने में पता नहीं कहाँ से अलाउद्दीन का चिराग़ मिल गया। एकांत में घिस-घिस कर परेशान हो गया, चिराग़ काम नहीं कर रहा था, मानव निराश हो रहा था। ग़ुस्से में जैसे ही उसने ज़मीन पर पटका , अट्टाहास करता हुआ जिन्न प्रकट होकर बोला-

"क्या हुक़्म है आका ! "

पहले तो मानव औंधे मुंह गिरा, फिर संभलकर खड़े होकर उसने विशालकाय जिन्न से पूछा-

"क्क्क्कौन हो तुम, क्या नाम है तुम्हारा ?"

"सतरंगी विकास ! सतरंगी विकास है नाम मेरा !"

मानव ने…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 4, 2015 at 3:00pm — 16 Comments

कागज़ का गाँव ( लघुकथा )

 जीप में बैठते ही मन प्रसन्नता से भर रहा था। देश में वर्षों बाद वापसी , बार -बार हाथों में पकडे पेपर को पढ़ रही थी , पढ़ क्या रही थी , बार -बार निहार रही थी। सरकार ने पिछले दस साल से इस प्रोजेक्ट पर काम करके रामपुरा जैसी बंज़र भूमि को हरा -भरा बना दिया है।गाँव की फोटो कितनी सुन्दर है , मन आल्हादित हो रहा था। उसका गाँव मॉडल गाँव के तौर पर विदेशों में कौतुहल का विषय जो है ! बस अब कुछ देर में गाँव पहुँचने ही वाली थी। दशकों पहले सुखा और अकाल ने उसके पिता समेत गाँव वालो को विवश कर दिया था गावं…

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Added by kanta roy on December 4, 2015 at 3:00pm — 17 Comments

मेरी पाँच हाईकू रचनाएं ।

टूटी आशाएं,

बिखरा परिवार,

मैं मिट गया ।। 1 ।।

 

तुम्हारी खुशी,

जीं-तोड़ मेहनत,

फिर भी विफल ।। 2 ।।

 

बहती पवन,

विकराल रूप,

सब कुछ बंजर ।। 3 ।।

 

रब नाऱाज,

लहरो का कहर,

बहते आँसू ।। 4 ।।

 

धुँधली रेखा,

तुम्हारा आगमन,

सूर्य उदय ।। 5 ।।

  

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by DIGVIJAY on December 4, 2015 at 3:00pm — 11 Comments

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