पद्म विभूषण और भारत रत्न से सम्मानित पंडित रविशंकर का बुधवार सुबह अमेरिका के सेन डियागो में निधन हो गया।
विनम्र श्रद्धांजली संगीत जगत के उस चमकते सूर्य को.........
बिखरे सारे राग हैं ,सूना आज सितार
सन्नाटों में गीत है ,सूनी है झंकार
सूनी है झंकार,आँख शब्दों की है नम
खो कर 'रवि' आलोक ,स्तब्ध बैठी है सरगम
कौन किसे दे धीर ,विकल मानस हैं सारे
रोता है संगीत ,तार हैं बिखरे सारे
Added by seema agrawal on December 12, 2012 at 12:30pm — 10 Comments
Added by Dr.Ajay Khare on December 12, 2012 at 12:00pm — No Comments
नील गगन में अम्बुद धवल,
स्नेहरूपी मोतियों समान बूँदों से सींचते
बलवान, योग्य आत्मजों सदृश
फलों से लदे छायादार विटपों से भरी,
उत्साही, सुगन्धित, रंग-बिरंगी पल्लवित
पुष्पों से सजी,
स्वर्ण सरीखी लताओं से जड़ित,
चटख हरे रंग की कामदार कालीन बिछी
धरती को;
मंगलगान गाती कोयलें बैठ डालियों पर,
प्रणय-निवेदनरत मृग युगल,
अमृतकलश सम दिखते सरोवर,
किलकारियों से वातावरण को गुंजायमान
करते खगवृन्द,
परियों जैसी उड़ती तितलियाँ;
ऐसे सुन्दर, मनमोहक, रम्य…
Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on December 12, 2012 at 11:30am — 12 Comments
आदरणीय प्राची जी के कहने और भ्राताश्री अम्बरीश जी के द्वारा दिए गए दोहों के नियमों को पालन करते हुए, दोहे लिखने का मेरा प्रथम प्रयास है आप सभी को सादर समर्पित आप सभी के सहयोग की आकांक्षा लिए अरुन शर्मा.
आनन फानन में किया, दोहों का…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on December 12, 2012 at 11:05am — 8 Comments
एक और शुरुआती दौर की ग़ज़ल......
कच्चे अधपके ख्यालात.......
एक दो शेअर शायद आपने सुना हो, पूरी ग़ज़ल पहली बार मंज़रे आम पर आ रही है
बर्दाश्त करें ....
इतनी शिकायत बाप रे |
जीने की आफत बाप रे |
हम भी मरें तुम भी मरो,…
Added by वीनस केसरी on December 12, 2012 at 3:05am — 16 Comments
मुझे थोड़ा बुरा तो लगा जब उसकी थाली में खाना परोसते वक़्त उसने मुझसे पूछा
- ये चिकन किस दूकान से खरीदा था तुमने?
- वही पिकाडेली सर्कस स्टेशन के बाहर निकलते ही सीधे हाथ पर जो शॉप है ना, वहीं से
- ओत्तेरे की! यार मुझे कुछ वेज हो तो खाने को दे दो, वो स्साला गोरा हलाल मीट नहीं बेचता और तुम जानते ही हो कि मैं हराम नहीं खा सकता..
खैर कैसे भी मैंने जल्द-फल्द उसके लिए आलू-मटर की सब्जी तैयार कर दी थी। लेकिन अगले दिन जब ऑफिस में बॉस के गैरहाजिर होने पर उसे कम्प्युटर पर ताश का कोई गेम…
Added by Dipak Mashal on December 11, 2012 at 10:45pm — 13 Comments
फूल ताउम्र तो बहारों में नहीं रहते
हम भी अब अपने यारों में नहीं रहते
मुहब्बत है गर तो आज ही कह दो मुझसे
ये फैसले यूं उधारों में नहीं रहते
अब जानी है हमने दुनिया की हकीकत
अब हम आपके खुमारों में नहीं रहते
दिल तोड़ दो बेफिक्र कोई कुछ न कहेगा
ये छोटे से किस्से अखबारों में नहीं रहते
मेरा रकीब भी आज मेरी खिलाफत में है
लोग हमेशा तो किरदारों में नहीं रहते
बस वजूद की ही जंग है महफिलों में बाकी
वो तूफ़ान भी अब आशारों में नही…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 11, 2012 at 7:38pm — 18 Comments
निज मकान प्राप्त करे,कर कर्जे का भार,
क्रेडिट कार्ड से भी ले,अब आसान उधार।
क्रेडिट कार्ड बोझ तले,नित दबता ही जाय ,
इस…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 11, 2012 at 6:30pm — 10 Comments
प्रिये तुम प्रिये तुम कहाँ गुम कहाँ गुम
तुझे ढूढूं दिन रैना हो के मैं भी गुम
तेरे बिन दिल को चैन नहीं है
मन कहे मुझसे तू यहीं कहीं है
शब् भर आँखें जाग रहीं है
निन्दिया मुझसे मेरी भाग रही है
वो जो…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 11, 2012 at 4:52pm — 8 Comments
Added by Dr.Ajay Khare on December 11, 2012 at 4:00pm — 1 Comment
रावण संबाद
रावण दहन हेतु जेसे ही नेता जी आगे बढे
दशानन बोल पड़े मुझे
मुझे जलाने के लिए क्या उपयुक्त हे
क्या आप बुराई से पूरी तरह मुक्त हे
फिर क्यों कर रहे हे मुझे अग्नि के हबाले
जबकि आपने किये हे कई घपले घोटाले
आपके कारनामे संगीन हे
आप पूरी तरह से भ्रष्टाचार में लीन हे
राम बनकर हमारी नीतियों पर छलते हे
सफेदपोश बनकर देश को छलते हे
अतः रावण कौन हे पहले हो संज्ञान
फिर कराएँ मुझे अग्नि स्नान
में बुराई का…
Added by Dr.Ajay Khare on December 11, 2012 at 2:00pm — 7 Comments
चमन देखा हे
हमने दुनिया का चमन देखा हे
मुश्किल में अपना बतन देखा
बक्त की मार से हो के तबाह
इन्सान को नगे बदन देखा हे
मतलबी यारी निभाने को
दोस्त दुशमन का मिलन देखा हे
देश की सम्पदा मिटाने को
चोरी से होते खनन देखा हे
हर हुनर से यूँ धन कमाने को
लोगो को करते जतन देखा हे
औरो के लिए मोम सा पिघलते
जीवन को हबन करते देखा हे
सही गलत का भेद मिटाते.
हमने पेसो का बजन देखा हे
डॉ अजय आहत
Added by Dr.Ajay Khare on December 11, 2012 at 1:00pm — 5 Comments
तुमको लिखते हाथ कांपते
अक्सर शब्द सिहरते हैं
तुम क्या जानो तुमसे मिलकर
कितने गीत निखरते हैं
कर लेना सौ बार बगावत
पल भर आज ठहर जाओ
तेरा-मेरा आज भूलकर
चंदन-पानी कर जाओ
तुम बिन मेरा सावन सूखा
बादल खूब गरजते हैं
देख रहे जो झिलमिल लडि़यां
बहते अश्क लरजते हैं
कैसे लिख दूं बदन तुम्हारा
बड़ी कश्मकश है यारा
बदनाम चमन अंजाम सनम
कलम बिगड़ती है…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on December 11, 2012 at 12:34pm — 12 Comments
Added by Dr.Ajay Khare on December 11, 2012 at 11:30am — 9 Comments
Added by Dr.Ajay Khare on December 11, 2012 at 11:30am — 10 Comments
हमने सुना है कि शिक्षक कि नजर में सभी बच्चे एक सामान होते है लेकिन इस कहानी को पढने के बाद शायद ये बात गलत ही साबित होती नजर आती है l
यह कहानी एक छोटे से गॉव कि है जहाँ एक विधालय में सभी जाति के बच्चे पढ़ते थे और हर एक कक्षा में लगभग ६०-८० बच्चे हुआ करते थे l उसमे रामू और उसके कुछ दोस्त जो निम्न जाति के थे, पढ़ते थे l इसी स्कुल में एक अध्यापक बाबु जो उच्च जाति से सम्बन्ध रखता था सदा निम्न जाति के बच्चो को हीन दृष्टि से देखता था और व्यव्हार से कंजूस व् लालची था l वह स्कूल में कम पढाई…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on December 11, 2012 at 11:20am — 5 Comments
सरकार बाबू को सेवामुक्त हुए लगभग ६ साल हो गए हैं. उनका लड़का राज भी कंपनी में ही कार्यरत है. इसलिए कंपनी का क्वार्टर छोड़ना नहीं पड़ा. यही क्वार्टर राज के नाम से कर दिया गया. पहले पुत्र और पुत्रवधू साथ ही रहते थे. एक पोता भी हुआ था. उसके 'अन्नप्रासन संस्कार' (मुंह जूठी) में काफी लोग आए थे. अच्छा जश्न हुआ था. मैं भी आमंत्रित था..... बंगाली परिवार मेहमानों की अच्छी आवभगत करते हैं. खिलाते समय बड़े प्यार से खिलाते हैं. सिंह बाबू, दु टा रसोगुल्ला औरो नीन! मिष्टी दोही खान!(दो रसगुल्ला और लीजिये,…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on December 11, 2012 at 4:30am — 17 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 11, 2012 at 12:00am — 43 Comments
खुशियों ने ऊँचे दामों की , फिर पक्की दूकान लगायी
Added by ajay sharma on December 10, 2012 at 11:12pm — 6 Comments
उस साल
कहर सी थी सर्दी
ठिठुरन बढ़ रही थी
हमने जेहन में खड़े कुछ दरख्त काटे
और जला लिए कागज़ पर
ज्यादा तो नहीं मगर हाँ....
थोड़ी तो राहत मिल ही गयी
पास से गुजरते हुए लोग भी
तापने के लिए बैठने लगे
अलाव धीरे धीरे... महफ़िल सा बन गया
अलाव जब बुझ गया ..लोग चले गये
फिर तो
रोज़ ही हम कुछ दरख्त काट लाते
रोज़ अलाव जलता रोज़ ही लोग आते
इस तरह हर रोज़ महफ़िल सजने लगी
मगर एक ताज्जुब ये था कि
रोज़ ही काटे जाने पर भी
दरख्त कभी कम नहीं होते…
Added by Pushyamitra Upadhyay on December 10, 2012 at 9:52pm — 3 Comments
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