ट्रेन समय की
छुकछुक दौड़ी
मज़बूरी थी जाना
भूल गया सब
याद रहा बस
तेरा हाथ हिलाना
तेरे हाथों की मेंहदी में
मेरा नाम नहीं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 31, 2019 at 8:07pm — 11 Comments
घने-काले बादलों से निकल बूंद, जब
सपनों में, अनगिनत खो जाती है
कहाँ गिरूंगी कैसे गिरूंगी
सोच-सोच घबराती है ||
क्या गिरूंगी, फूल पराग में
या धुल संग मिल जाऊँगी
कहीं बनूँगी, ओस का मोती
और मनमोहकबन जाऊँगी ||
कहीं बनूँ, जीवन आधार मैं
जीव की प्यास बुझाऊंगी
या जा गिरूंगी धधकती ज्वाला
क्षणभर में ही जल जाऊँगी…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on October 31, 2019 at 4:55pm — 6 Comments
चंद क्षणिकाएँ :जीवन
बदल गया
जीवन
अवशेषों में
सुलझाते सुलझाते
गुत्थियाँ
जीवन की
आदि द्वार पर
अंत की दस्तक
अनचाहे शून्य का
अबोला गुंजन
अवसान
आदि पल की
अंतिम पायदान
प्रेम
अंतःकरण की
अव्याखित
अनिमेष
सुषमा रशिम
ज़माने को
लग गई
नई नेम प्लेट
बदल गई
घर की पहचान
शायद चली गई
थककर
दीवार पर टंगे टंगे
पुरानी
नेम…
ContinueAdded by Sushil Sarna on October 30, 2019 at 5:14pm — 10 Comments
1-
जितना जब भी जो बचा, खाया सबके बाद।
फिर भी उसने की नहीं, जीवनभर फरियाद।।
जीवनभर फरियाद, नहीं करती यह नारी।
किंतु वृद्ध असहाय, वही अपनों से हारी।।
कहते कवि हरिओम,ध्यान रखना बस इतना।
माँ का प्रेम अनंत, गहन सागर के जितना।।
2-
जिनके जीवन में करे, माँ खुशियाँ अपलोड।
वृद्धावस्था में वही, बदल रहे हैं मोड।।
बदल रहे हैं मोड, मगर माँ तो माँ होती।
करके उनको याद, बैठ आश्रम में रोती।।
कोई कर दे क्लीन, वायरस अब तो इनके।
माँ ने कर अपडेट,…
Added by Hariom Shrivastava on October 29, 2019 at 10:51pm — 3 Comments
काश ! ऐसा हो जाये कि,
ज़िंदगी एक पूरा नशा बन जाये,
नशे में सब कुछ माफ हो, और,
ज़िंदगी जीने का मज़ा आ जाये ।
जी लूँ कुछ,
इस तरह कि,
अगले जनम की भी,
चाह न रह जाए।
ऐ दुनियावालों !
क्यों है ये बेइन्तहा मुश्किल?
कि कह सकें-कर सकें वो,
जो दिल करना चाहता हो।
कभी हमें भी था,
भरोसा अपने सपनों पर,
अब अहसास हो गया है कि,
सपने दूसरो के ही र॔ग लाते हैं।
न सोचूँ, न मैं चाहूँ,
न ही…
Added by Usha on October 29, 2019 at 12:30pm — 6 Comments
इस बार फिर दीवाली की साफ- सफाई के बाद तुम्हें निकाला है,
शायद इस बार भी तुम्हें वापस ऐसे ही रख दूंगी
जैसे हर बार तुम्हें ऊपरी चमकाहट के बाद रख देती हूं,
कि इस बार तुम्हें जरूर फ्रेम करवाऊंगी
पर शायद इस बार भी इस भ्रम का तिलिस्म रहेगा,
इस तिलिस्म में तुम भी जिओ और मै भी जियूं,
क्योंकि तुम्हें तो मैने बनाया है
कहीं न कहीं अपने भाग्य से जोड़ जो लिया है,
तुम मेरी जिम्मेदारी हो ये एहसास तुम मुझे हर बार करवाती हो,
क्योंकि तुम किसी और के साथ…
Added by Arpita Singh on October 29, 2019 at 9:30am — 3 Comments
वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है,
कहीं है चैन-ओ-सुकून,तो कहीं मुसीबत है,
वाह ख़ुदा ! क्या तेरी कुदरत है ।
क्या था ख्याल तेरा,
बनाया किसी को गूंगा,किसी को बहरा,
बनाया तूने किसी को सबल-सुअंग,…
ContinueAdded by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on October 28, 2019 at 12:00pm — 2 Comments
इंसा नहीं उसकी छाया है
बिन शरीर की काया है
सृष्टि का संतुलन बनाने हेतु
ईश्वर ने ही उसे बनाया है||
सृष्टि में नकारात्मकता और सकारात्मक्तका समन्वय करके
अच्छाई बुराई में भेद बनाया है
सही गलत का मार्ग बता
प्रभु ने जीवन को समझाया है||
अंधेरा का मालिक बना
भयानक रूप उसको दे कर
जग जीवन को डराया है
जीवन का भेद बताया है||
प्रबल इच्छा संग मर, जो जाते
सपने पूरे जो, ना कर…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on October 28, 2019 at 11:37am — 3 Comments
प्रेम हम तुम पर लुटाने आ गये।
आज फिर देखो सताने आ गये।
चूम अधरों को तुम्हारे अब प्रिये,
लालिमा इनकी बढ़ाने आ गये।
लाज से हैं झुक रहे तेरे नयन,
आज हम इनको लुभाने आ गये।
देख यौवन की छटा मधुरिम शुभे,
प्रेम रस में हम डुबाने आ गये।
छूटता है जो नहीं प्रिय उम्र भर,
रंग हम ऐसा लगाने आ गये।
रूप से छलके सुरा जो मद भरी,
आज हम पीने पिलाने आ गये।
-विमल शर्मा 'विमल'
स्वरचित एवं अप्रकाशित
Added by विमल शर्मा 'विमल' on October 28, 2019 at 11:00am — 4 Comments
दीपावली का दिन लगभग 3:00 बजे शाम के पूजन की तैयारियां चल रही थी । माँ किचन में खीर बना रही थी,तो हमारी धर्मपत्नी जी आंगन में रंगोली डाल रही थी । मैं हॉल में बैठा हुआ व्हाट्सएप पर लोगों को दिवाली की शुभकामनाएं भेज रहा था और मेरे पिताजी,मेरे पुत्र(भैय्यू),जिसने पिछले महीने अपना तीसरा जन्म दिन मनाया था,के साथ मस्ती करने में व्यस्त थे। इस मौसम में आमतौर पर मच्छर बहुत होते हैं,इसलिए पिताजी यह भी ख़याल रख रहे थे कि भैय्यू को मच्छर न कांटें और इसके लिए उन्हें काफ़ी मसक्कत भी करनी पड़ रही थी । तभी मेरा…
ContinueAdded by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on October 27, 2019 at 10:23pm — 5 Comments
1222 1222 1222 1222
सिरा कोई पकड़ कर हम उन्हें फिर से तलाशेंगे
इन्हीं चुपचाप गलियों में जिये रिश्ते तलाशेंगे
अँधेरों की कुटिल साज़िश अगर अबभी न समझें तो
उजालों के लिए मिट्टी के फिर दीये तलाशेंगे
कभी उम्मीद से भारी नयन सपनों सजे तर थे
किसे मालूम था ये ही नयन सिक्के तलाशेंगे !
दिखे है दरमियाँ अपने बहुत.. पर खो गया है जो
उसे परदे, भरी चादर, रुँधे तकिये तलाशेंगे
हृदय में भाव था उसने निछावर…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on October 27, 2019 at 12:00pm — 11 Comments
हमारा दीपक - लघुकथा -
"अरे ज्योति देखो, अपना दीपक आज दिये बनाना सीख रहा है।"
"नहीं, बिलकुल नहीं। मेरा दीपक यह गंदा काम नहीं सीखेगा। सारे दिन मिट्टी से लथपथ बने रहो।"
"ज्योति, कैसी बात करती हो| यह तो हमारा पुश्तैनी धंधा है। मेरी सात पीढियाँ यही सब करती रही हैं। उसी से घर गृहस्थी चली है।"
"वह सब गुजरे जमाने की बातें हैं। तुम्हारे पुरखे अनपढ़ थे। उन्होंने शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया।"
"तुम्हारी बात से मैं सहमत हूँ लेकिन....।"
"लेकिन वेकिन कुछ नहीं,…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 26, 2019 at 11:50am — 6 Comments
चिन्तन-प्रश्न
आस्था की अनवस्थ रग को सहलाते
सचाई के अब भयावने-हुए मुख पर
उलझनों के ताल के उस पार उतर कर
अचानक यह कैसा उठा प्रश्नों का चक्रवात
चिंता की हवाओं का मंडराता विस्तार
एकाएक
यह क्या हुआ ?
कैसा खतरनाक है यह
सतही ज़िन्दगी का सतही स्तर
बाहरी चीख-चिल्लाहट
सुनाई नहीं देता है आत्मा का स्वर
ऐसे में असहज है कितना
द्वंद्व-स्थिति में संकल्प-शक्ति से
किसी भी…
ContinueAdded by vijay nikore on October 25, 2019 at 1:22pm — 4 Comments
दीये बनते, बिकते, जलते हैं
पेट पालते हैं
दीपक तले अंधेरा
फ़िर वही रात, वही सबेरा!
दीये पालते हैं, दीये पलते हैं
विरासत पलती है
दीपक तले अंधेरा
फ़िर वही बात, वही बखेड़ा!
विरासत पालती है, विरासत पलती है
उद्योग पलते हैं; राजनीति पलती है
लोकतंत्र पलता है
दीपक तले अंधेरा
फ़िर वही धपली, वही राग!
स्वच्छता पालती है, स्वच्छता पलती है
नारे-पोस्टर पलते हैं, भाषण पलते हैं
दीपक तले अंधेरा
फ़िर वही चाल, वही…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 25, 2019 at 6:46am — 5 Comments
कभी मैं बन ओंस की बूंद
मोती बन बिखर जाता हूँ
मोहकता की छवि बना
मुस्कान चेहरे पर लाता हूँ||
कभी तपता भानु के तप में
और भाप बन उड जाता हूँ
काले घने मैं बादल बन
मैं बरसता, भू-धरा की प्यास बूझाता हूँ||
कभी बन आँसू के मोती
कभी खुशी में मैं छ्लक आता हूँ
कभी दुख में बह कर के मैं
भावुकता को दर्शाता हूँ||
बेरंग हूँ, पर हर रूप में ढलता
जिसमे मिलता उसका रूप अपनाता हूँ
निश्चित…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on October 24, 2019 at 12:32pm — 4 Comments
प्यार पर चंद क्षणिकाएँ : .......(. 500 वीं प्रस्तुति )
प्यार
सृष्टि का
अनुपम उपहार
प्यार
जीत गर्भ में
हार
प्यार
तिमिर पलों का
शरमीला स्वीकार
प्यार
अंतस उदगारों का
अमिट शृंगार
प्यार
यथार्थ का
स्वप्निल
अलंकार
प्यार
नैन नैन का
मधुर अभिसार
प्यार
यौवन रुत की
लजीली झंकार
प्यार
बिम्बों…
Added by Sushil Sarna on October 24, 2019 at 12:30pm — 10 Comments
प्रश्न ये है
कि अन्तोगत्वा
हाथ क्या लगता है ?
समझ में आ जाये
तो बताइये हाथ
आपका क्या लगता है ?
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on October 23, 2019 at 7:55am — 10 Comments
दीपावली के चंद रोज़ पहले से ही त्योहार सा माहौल था उस कच्चे से घर में। सब अपने पालनहार बनाने में जुटे हुए थे; कोई मिट्टी रौंद रहा था, कोई पहिया चला-चला कर उसके केंद्र पर मिट्टी के लौंदों को त्योहार मुताबिक़ सुंदर आकार दे रहा था। वह उन्हें धूप में कतारबद्ध जमाती जा रही थी। लेकिन अपने-अपने काम में तल्लीन और सपनों में खोये अपनों को देख कर उसे अजीब सा सुकून मिल रहा था हर मर्तबा माफ़िक़। एक तरफ़ उसकी सास; दूसरी तरफ़ समय के पहिये संग कुम्हार का पैतृक पहिया चलाता उसका पति दीपक और उसके कंधों पर झूलता…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on October 22, 2019 at 10:40pm — 3 Comments
चंद क्षणिकाएँ :
मन को समझाने
आई है
बादे सबा
लेकर मोहब्बत के दरीचों से
वस्ल का पैग़ाम
............................
रात
हो जाती है
लहूलुहान
काँटे हिज़्र के
सोने नहीं देते
तमाम शब
............................
रात
जितने भी
नींदों में ख़वाब देखे
उतने
सहर के काँधों पर
अजाब देखे
...............................
हया
मोहब्बत में
हो गयी …
Added by Sushil Sarna on October 21, 2019 at 7:30pm — 9 Comments
122 122 122 122
गजल बेबहर है, नदी बिन लहर है
कहो,क्या करूँ जब बिखरता जहर है?1
कहूँ क्या भला मैं? सुनेगा न कोई,
हुआ हादसा,मौन सारा शहर है।2
बचेगी नहीं लाज समझा करो तुम
बहकती यहां की हवा हर पहर है।3
गिनूँ क्या सितम गैर से जो मिले
मिले दर्द घर में, बड़ा ही कहर है।4
बुझाते रहे जो चिरागों को' अबतक
बताते कि होने को' अब तो सहर है।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on October 21, 2019 at 11:00am — 2 Comments
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2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
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