Added by shree suneel on April 9, 2015 at 2:46pm — No Comments
(यहाँ प्रति दोहे में वृत्यानुप्रास है किन्तु सम्पुर्ण रचना में छेकानुप्रास है अंतर यह है की वृत्यानुप्रास में एक ही वर्ण की पुनरावृत्ति होती है जबकि छेका में अनेक वर्णों की )
गा-गाकर गौरव गिरा गरिमामय गन्धर्व
गीर्वाण गुरु, गीतिमय , गान-ज्ञान गुण गर्व I
भक्त भगवती भारती भूरि भावमय भव्य
भावशवलता, भ्रान्तिता भ्रमित भनिति भवितव्य I
वीणापाणि वरानना वरे विदुष विद्वान
वाणी-वाणी वत्सला वर्ण-वर्ण वरदान I
शुभ्र…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 24, 2015 at 11:00am — 31 Comments
Added by Samar kabeer on February 20, 2015 at 11:14pm — 42 Comments
तुम चलाओ गैंती-फावड़ा
काटो पत्थर, बनाओ नाली
दिन है तो सूरज को घड़ी मानो
और रात है तो गिनते रहो एक-एक प्रहर
कुत्ते कब भौंके
सियार कब चीखे
मुर्गे ने कब बांग दी
यही है तुम्हारी नियति....
तुम चलाओ छेनी-हथौड़ी
तुम्हारे लिए बन नहीं सकतीं
ऐसी यांत्रिक घड़ियाँ
जिनमे काम के घंटों का हिसाब हो
और आराम के पल का ज़िक्र हो...
तुम लिखो कविता-कहानी
फट जाए चाहे
माथे की उभरी नसें
फूट जाए ललाई…
Added by anwar suhail on February 15, 2015 at 7:30pm — 7 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२२
दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं
कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं
प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं
पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं
हर जगह गुदगुदी ढूँढ़ते हैं
घास भी मखमली ढूँढ़ते हैं
वोदका पीजिए आप, हम तो
दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं
वो तो शैतान है जिसके बंदे
क़त्ल में बंदगी ढूँढ़ते हैं
आज भी हम समय की नदी में
बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं
----------
(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 15, 2015 at 11:42pm — 28 Comments
जीवन का ताना
अकेला उदास डोलता रहा
बाना कहाँ मिला
बुनने को
सच के ताने को
झूठे बानों से
बुनते रहे
एक जख्मी चादर
फरेब के सर पर ओढ़ा
सब्र के कारवाँ चलते रहे
जीने की रिवायत से
समझोता करते रहे
बिन प्यार की
बेरंग चादर ओढ़े
मुखोटों की मुस्कुराहटों का
दम भरते रहे
काश बाना
प्यार की सच्चाई से
खिलता कोई
तो एक सतरंगी चदरिया
बुन लेता
और बस…
ContinueAdded by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on February 17, 2015 at 11:21am — 12 Comments
Added by दिनेश कुमार on December 19, 2014 at 4:18pm — 18 Comments
212 122 212 12
बिन कहा समझते हैं कमाल है
क्या से क्या समझते हैं कमाल है
मैं मना करूँ तो हाँ जो हाँ करूँ
तो मना समझते हैं कमाल है
शर्म से निगाहें जो झुकी मेरी
वो अदा समझते हैं कमाल है
कद्र मैं करूँ जज्बात की जिसे
वो वफ़ा समझते हैं कमाल है
चूड़ियाँ बजें मेरी ये आदतन
वो सदा समझते हैं कमाल है
झाँकते वो मेरी आँखों के निहाँ
आईना समझते हैं…
ContinueAdded by rajesh kumari on December 14, 2014 at 10:45am — 30 Comments
मैं हूँ बंदी बिन्दु परिधि का , तुम रेखा मनमानी I
मैं ठहरा पोखर का जल , तुम हो गंगा का पानी I I
मैं जीवन की कथा -व्यथा का नीरस सा गद्यांश कोई इक I
तुम छंदों में लिखी गयी कविता का हो रूपांश कोई इक I
मैं स्वांसों का निहित स्वार्थ हूँ , तुम हो जीवन की मानी I I…
ContinueAdded by ajay sharma on December 14, 2014 at 11:00pm — 14 Comments
जो टूटा सो टूट गया
रूठा सो रूठ गया ।
साथ चले जिस पथ पर थे
आखिर तो वो भी छूट गया ।
गाँव की पगडण्डी वो छूटी , पानी पनघट छूट गया
खेतवारी बँसवारी छूटी, बचपन कोई लूट गया
भर अँकवारी रोई दुआरी ,नइहर मोरा छूट गया ।
जो....
अँचरा अम्मा का जो छूटा ,घर आँगन सब छूट गया
छिप - छिप बाबा का रोना भइया वो बिसुरता छूट गया
तीस उठी है करेजे में ज्यूँ पत्थर कोई कूँट गया ।
जो…।
पाही पलानी मौन हुए मड़ई से छप्पर रूठ गया
सोन चिरईया…
Added by mrs manjari pandey on December 17, 2014 at 9:30pm — 9 Comments
कोहरे के कागज़ पर
किरणों के गीत लिखें
आओ ना मीत लिखें
सहमी सहमी कलियाँ
सहमी सहमी शाखें
सहमें पत्तों की हैं
सहमी सहमी आँखें
सिहराते झोंकों के
मुरझाए
मौसम पर
फूलों की रीत लिखें
आओ ना मीत लिखें
रातों के ढर्रों में
नीयत है चोरों की
खीसें में दौलत है
सांझों की भोरों की
छलिया अँधियारो से
घबराए,
नीड़ों पर
जुगनू की जीत लिखें
आओ ना मीत…
ContinueAdded by seema agrawal on December 13, 2014 at 9:30pm — 14 Comments
कई रोज से खाली पेट थी
संभाल न सकी भूख
पसीज कर
दया करूणा ने
दो रोटी दस रूपये में
इतना भरा उसका पेट
फिर नौ माह
फूला रहा
वो कुत्ता बिल्ली नहीं थी
बिना किसी एवज
भूख मिटा दी जाती
विक्षिप्त थी तो क्या
थी तो स्त्री…
Added by asha pandey ojha on January 13, 2015 at 8:30pm — 30 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
कब तलक दीपक जलेगा ये मुझे मालूम है
तप रहा सूरज ढलेगा ये मुझे मालूम है
कौन ऊँचाई पे कितनी ये नहीं मुझको पता
पर जमी में ही मिलेगा ये मुझे मालूम है
कितनी दौलत वो कमाता आप उससे पूँछिये
साथ उसके क्या चलेगा ये मुझे मालूम है
अपनी खुशियों के लिए जो आज कांटे बो रहे
कल उन्हें भी ये खलेगा ये मुझे मालूम है
वो बबूलों को लगाते आम की उम्मीद में
क्या हकीकत में फलेगा ये मुझे…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on December 27, 2014 at 4:31pm — 16 Comments
Added by Rahul Dangi Panchal on December 28, 2014 at 2:10pm — 22 Comments
“वर्मा साहब, एक बात समझ में नहीं आयी, आपने फ़िल्म प्रोडक्शन पर अधिक और फ़िल्म प्रमोशन एवं मिडिया मैनेजमेंट पर मामूली बजट का प्रावधान किया है, जबकि आजकल तो प्रमोशन पर प्रोडक्शन से कहीं अधिक बजट खर्च किये जा रहे हैं.”
“डोंट वरी दादा ! कम प्रमोशनल बजट में भी फ़िल्म हिट करवाई जा सकती है.”
“अच्छा अच्छा, मतलब आप फ़िल्म में आइटम डांस वगैरह डालने वाले है.”
“नो नो, इटिज वेरी ओल्ड ट्रेंड”
“तो अवश्य कोई किसिंग या बोल्ड बेड सीन दिखाने को सोच रहे हैं.”
“अरे नहीं दादा इसमें नया क्या…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 28, 2014 at 4:30pm — 57 Comments
ग़ज़ल : शुभ सजीला आपका नव साल हो.
गर्व से उन्नत सभी का भाल हो.
शुभ सजीला आपका नव साल हो.
कामना मैं शुभ समर्पित कर रहा,
देश का गौरव बढ़े खुश हाल हो.
आसमां हो महरबां कुछ खेत पर,
पेट को इफरात रोटी दाल हो.
मुल्क के हर छोर में छाये अमन,
हो तरक्की देश मालामाल हो.
आदमी बस आदमी बनकर रहे,
जुल्म शोषण का न मायाजाल हो.
मन्दिरों औ मस्जिदों को जोड़ दें,
घोष जय धुन एक ही…
ContinueAdded by harivallabh sharma on December 28, 2014 at 5:30pm — 29 Comments
मजदूरों की बस्ती में दो कँपकँपाती हुई आवाज़ें
“सुना है घर वापसी के 5 लाख दे रहे हैं”
“हाँ भाई मैं भी सुना”
“हम तो घर में ही रहते हैं, कुछ हमें भी दे देते”
-मौलिक व अप्रकाशित
Added by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2014 at 6:56pm — 24 Comments
Added by ram shiromani pathak on December 29, 2014 at 5:17pm — 19 Comments
कौन जाने ?
बद्दुआओ में होता है असर
वाणी के जहर
ये काटते तो है
पर देते नहीं लहर
पुरा काल में
इन्हें कहते थे शाप
ऋषियों-मुनियों के पाप
दुर्वासा इसके
पर्याय थे आप
भोगता था
अभिशप्त वाणी की मार
कभी शकुन्तला
या अहल्या सुकुमार
आह !आह ! ऋषि के
वे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2014 at 9:30pm — 19 Comments
122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 (16-रुक्नी)
---------------------------------------------------------------------------
गुजारिश नहीं है, नवाजिश नहीं है, इज़ाज़त नहीं है, नसीहत नहीं है।
ज़माना हुआ है बड़ा बेमुरव्वत, किसी को किसी की जरूरत नहीं है।
किनारे दिखाई नहीं दे रहें है, चलो किश्तियों के जनाज़े उठा लें,
यहाँ आप से है समंदर परेशाँ, यहाँ उस तरह की निजामत नहीं है।
जमीं आसमां…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 31, 2014 at 12:41am — 31 Comments
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |