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शिलाचित्र

मिट्टी के तत्वों से

गल चुके सैंकङों शब्द

कि शिलालेख की अर्थवत्ता खो चुकी.

जब कि,

अक्षम शिलालेख के नीचे

हस्ताक्षर सा शिलाचित्र

वयक्त कर रहा था सबकुछ.



कई-कई पुरूषों के बीच

अपह्रीत नारी, उसकी अस्मिता,

संकुचित देह से जैसे फटकर

निकलते आत्मरक्षार्थ हाथ.



पुरुषत्व के आगे याचनावत् थी नारी.



मिट्टी के तत्वों ने

शब्दों की तरह गलाया नहीं उसे,



इसलिए कि वह शिलाचित्र था

सर्वत्र के धरातल पर

सर्वदा की विषैली… Continue

Added by shree suneel on April 9, 2015 at 2:46pm — No Comments

सुखदा सदा सरस्वती (वृत्यानुप्रास /छेकानुप्रास)

(यहाँ प्रति दोहे में वृत्यानुप्रास है किन्तु सम्पुर्ण रचना में छेकानुप्रास है  अंतर यह है की वृत्यानुप्रास में एक ही वर्ण की पुनरावृत्ति होती है जबकि छेका में अनेक वर्णों  की )

 

गा-गाकर गौरव गिरा गरिमामय गन्धर्व

गीर्वाण गुरु, गीतिमय , गान-ज्ञान गुण गर्व I

 भक्त भगवती भारती भूरि भावमय भव्य

भावशवलता, भ्रान्तिता भ्रमित भनिति भवितव्य I 

 

वीणापाणि वरानना  वरे विदुष विद्वान

वाणी-वाणी वत्सला  वर्ण-वर्ण वरदान I

 

शुभ्र…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 24, 2015 at 11:00am — 31 Comments

ग़ज़ल-झील सा शीतल चाँद से सुन्दर लिख्खा है |

झील सा शीतल चाँद से सुन्दर लिख्खा है

हमने जो देखा है मंज़र लिख्खा है



अबजद हव्वज़ का भी जिन को इल्म नहीं

दुनिया ने उन को भी सुख़नवर लिख्खा है



आज उसी पर फूल वफ़ा के खिलते हैं

तुमने जिस धरती को बंजर लिख्खा है



पढ़कर देखो मेरी इन तहरीरों को

तुमको ही उन्वान बनाकर लिख्खा है



कुछ लोगों ने दौर-ए-ख़िज़ाँ के बारे में

कमरे में फूलों को सजाकर लिख्खा है



हमने बग़ावत करके सारी दुनिया से

महरूमी का नाम सिकन्दर लिख्खा है



"समर… Continue

Added by Samar kabeer on February 20, 2015 at 11:14pm — 42 Comments

ये कैसी नियति

तुम चलाओ गैंती-फावड़ा 

काटो पत्थर, बनाओ नाली 

दिन है तो सूरज को घड़ी मानो 

और रात है तो गिनते रहो एक-एक प्रहर

कुत्ते कब भौंके 

सियार कब चीखे

मुर्गे ने कब बांग दी 

यही है तुम्हारी नियति....

तुम चलाओ छेनी-हथौड़ी 

तुम्हारे लिए बन नहीं सकतीं 

ऐसी यांत्रिक घड़ियाँ 

जिनमे काम के घंटों का हिसाब हो 

और आराम के पल का ज़िक्र हो...

तुम लिखो कविता-कहानी 

फट जाए चाहे 

माथे की उभरी नसें 

फूट जाए ललाई…

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Added by anwar suhail on February 15, 2015 at 7:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल : कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

बह्र : २१२ २१२ २१२२

 

दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं

कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

 

प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं

पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं

 

हर जगह गुदगुदी ढूँढ़ते हैं

घास भी मखमली ढूँढ़ते हैं

 

वोदका पीजिए आप, हम तो

दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं

 

वो तो शैतान है जिसके बंदे

क़त्ल में बंदगी ढूँढ़ते हैं

आज भी हम समय की नदी में

बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं

----------

(मौलिक एवं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 15, 2015 at 11:42pm — 28 Comments

ताना बाना ........

जीवन का ताना

अकेला उदास डोलता रहा

बाना कहाँ मिला

बुनने को

सच के ताने को

झूठे बानों से

बुनते रहे

एक जख्मी चादर

फरेब के सर पर ओढ़ा

सब्र के कारवाँ चलते रहे

जीने की रिवायत से

समझोता करते रहे

बिन प्यार की

बेरंग चादर ओढ़े

मुखोटों की मुस्कुराहटों का

दम भरते रहे

काश बाना

प्यार की सच्चाई से

खिलता कोई

तो एक सतरंगी चदरिया

बुन लेता

और बस…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on February 17, 2015 at 11:21am — 12 Comments

गजल -- देखकर मासूम बच्चों की हँसी

ग़ैर तरही गजल



देखकर मासूम बच्चों की हँसी

आज कुछ मन की उदासी कम हुई



गीत गजलें छन्द मुक्तक फिर कभी

तुझसे मन उकता गया है शायरी



मुझमें शायद कुछ न कुछ तो है कमी

हर किसी को मुझ से जो नाराज़गी



कल मेरे दिल को बहुत सदमा लगा

मेरी गजलें उसने बेगानी कही



गुजरा बचपन जैसे कल की बात हो

तेज़ है रफ़्तार कितनी वक़्त की



रेत पर लिक्खी इबारत की तरह

कुछ ही पल टिकतें हैं मेरे ख़्वाब भी



आप इसको जो भी चाहे नाम… Continue

Added by दिनेश कुमार on December 19, 2014 at 4:18pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बिन कहा समझते हैं कमाल है (ग़ज़ल 'राज')

212   122   212  12

बिन कहा  समझते हैं कमाल है

क्या से क्या समझते हैं कमाल है

 

मैं मना करूँ तो हाँ जो हाँ करूँ   

तो मना समझते हैं कमाल है

 

शर्म से निगाहें जो  झुकी मेरी  

वो अदा समझते हैं कमाल है

 

कद्र मैं करूँ जज्बात की जिसे     

वो वफ़ा समझते हैं कमाल है

 

 चूड़ियाँ बजें मेरी ये आदतन  

 वो सदा समझते हैं कमाल है

 

 झाँकते वो मेरी आँखों के निहाँ           

 आईना समझते हैं…

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Added by rajesh kumari on December 14, 2014 at 10:45am — 30 Comments

मैं हूँ बंदी बिन्दु परिधि का , तुम रेखा मनमानी I

मैं हूँ बंदी बिन्दु परिधि का , तुम रेखा मनमानी I 

मैं ठहरा पोखर का जल , तुम हो गंगा का पानी I I

मैं जीवन की कथा -व्यथा का नीरस सा गद्यांश कोई इक I 

तुम छंदों में लिखी गयी कविता का हो रूपांश कोई इक I 

मैं स्वांसों का निहित स्वार्थ हूँ , तुम हो जीवन की मानी I I…

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Added by ajay sharma on December 14, 2014 at 11:00pm — 14 Comments

गीत

जो टूटा सो टूट गया

रूठा सो रूठ गया ।

साथ चले जिस पथ पर थे

आखिर तो वो भी छूट गया ।



गाँव की पगडण्डी वो छूटी , पानी पनघट छूट गया

खेतवारी बँसवारी छूटी, बचपन कोई लूट गया

भर अँकवारी रोई दुआरी ,नइहर मोरा छूट गया ।

जो....



अँचरा अम्मा का जो छूटा ,घर आँगन सब छूट गया

छिप - छिप बाबा का रोना भइया वो बिसुरता छूट गया

तीस उठी है करेजे में ज्यूँ पत्थर कोई कूँट गया ।

जो…।



पाही पलानी मौन हुए मड़ई से छप्पर रूठ गया

सोन चिरईया…

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Added by mrs manjari pandey on December 17, 2014 at 9:30pm — 9 Comments

नवगीत

कोहरे के कागज़ पर

किरणों के गीत लिखें

आओ ना मीत लिखें

सहमी सहमी कलियाँ

सहमी सहमी शाखें

सहमें पत्तों की हैं

सहमी सहमी आँखें

सिहराते झोंकों के

मुरझाए

मौसम पर

फूलों की रीत लिखें

आओ ना मीत लिखें 

रातों के ढर्रों में

नीयत है चोरों की

खीसें में दौलत है

सांझों की भोरों की

छलिया अँधियारो से

घबराए,

नीड़ों पर

जुगनू की जीत लिखें

आओ ना मीत…

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Added by seema agrawal on December 13, 2014 at 9:30pm — 14 Comments

थी तो स्त्री न ?

कई रोज से खाली पेट थी

संभाल न सकी भूख

पसीज कर

दया करूणा ने

दो रोटी दस रूपये में

इतना भरा उसका पेट

फिर नौ माह

फूला रहा 



वो कुत्ता बिल्ली नहीं थी

बिना किसी एवज

भूख मिटा दी जाती

विक्षिप्त थी तो क्या

थी तो स्त्री…

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Added by asha pandey ojha on January 13, 2015 at 8:30pm — 30 Comments

कब तलक दीपक जलेगा ये मुझे मालूम है

२१२२   २१२२   २१२२   २१२

कब तलक दीपक जलेगा ये मुझे मालूम है

तप रहा सूरज ढलेगा ये मुझे मालूम है

 

कौन ऊँचाई पे कितनी ये नहीं मुझको पता

पर जमी में ही मिलेगा ये मुझे मालूम है

 

कितनी दौलत वो कमाता आप उससे पूँछिये

साथ उसके क्या चलेगा ये मुझे मालूम है

 

अपनी खुशियों के लिए जो आज  कांटे बो रहे

कल उन्हें भी ये खलेगा ये मुझे मालूम है

 

वो बबूलों को लगाते आम की उम्मीद में

क्या हकीकत में फलेगा ये मुझे…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on December 27, 2014 at 4:31pm — 16 Comments

गजल- बिना तेरे किसकी इबादत करेंगे!

१२२ १२२ १२२ १२२

बहुत दुख दिये है कि नफरत करेंगे!
तेरी अब कभी हम न चाहत करेंगे!!

जरा सोच इतना लिया होता जालिम!
बिना तेरे किसकी इबादत करेंगे!!

समझ ही न पाये मुहब्बत मेरी तुम!
कि मर के भी तुमसे मुहब्बत करेंगे!!

वे बच्चें हैं उन पर न गुस्सा करो यूं!
वे नादां वही फिर शरारत करेंगे!!

तु जिसके लिए इतना पागल है 'राहुल'!
अदा प्यार की वो न कीमत करेंगे!!

मौलिक व अप्रकाशित!

Added by Rahul Dangi Panchal on December 28, 2014 at 2:10pm — 22 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : न्यू ट्रेंड (गणेश जी बागी)

“वर्मा साहब, एक बात समझ में नहीं आयी, आपने फ़िल्म प्रोडक्शन पर अधिक और फ़िल्म प्रमोशन एवं मिडिया मैनेजमेंट पर मामूली बजट का प्रावधान किया है, जबकि आजकल तो प्रमोशन पर प्रोडक्शन से कहीं अधिक बजट खर्च किये जा रहे हैं.”

“डोंट वरी दादा ! कम प्रमोशनल बजट में भी फ़िल्म हिट करवाई जा सकती है.”

“अच्छा अच्छा, मतलब आप फ़िल्म में आइटम डांस वगैरह डालने वाले है.”

“नो नो, इटिज वेरी ओल्ड ट्रेंड”

“तो अवश्य कोई किसिंग या बोल्ड बेड सीन दिखाने को सोच रहे हैं.”

“अरे नहीं दादा इसमें नया क्या…

Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 28, 2014 at 4:30pm — 57 Comments

ग़ज़ल : शुभ सजीला आपको नव साल हो.

ग़ज़ल : शुभ सजीला आपका नव साल हो.

 

गर्व से उन्नत सभी का भाल हो.

शुभ सजीला आपका नव साल हो.

 

कामना मैं शुभ समर्पित कर रहा,

देश का गौरव बढ़े खुश हाल हो.

 

आसमां हो महरबां कुछ खेत पर,

पेट को इफरात रोटी दाल हो.

 

मुल्क के हर छोर में छाये अमन,

हो तरक्की देश मालामाल हो.

 

आदमी बस आदमी बनकर रहे,

जुल्म शोषण का न मायाजाल हो.

 

मन्दिरों औ मस्जिदों को जोड़ दें,

घोष जय धुन एक ही…

Continue

Added by harivallabh sharma on December 28, 2014 at 5:30pm — 29 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
घर- लघुकथा

मजदूरों की बस्ती में दो कँपकँपाती हुई आवाज़ें

“सुना है घर वापसी के 5 लाख दे रहे हैं”

“हाँ भाई मैं भी सुना”

“हम तो घर में ही रहते हैं, कुछ हमें भी दे देते”

-मौलिक व अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on December 28, 2014 at 6:56pm — 24 Comments

उनको अपने पास लिखूँ क्या?

उनको अपने पास लिखूँ क्या?
वो मेरे हैं ख़ास लिखूँ क्या?

तारीफ़ बहुत कर दी उनकी।
अपना भी उपहास लिखूँ क्या?

संत नहीं वह व्यभिचारी है।
उसका भी सन्यास लिखूँ क्या?

जिसने मेरा सबकुछ लूटा।
उसपे है विश्वास लिखूँ क्या?

जिसकी कोई नहीं कहानी।
उसका भी इतिहास लिखुँ क्या?

बूँद बूँद को तरसा है जो।
उससे पूँछो प्यास लिखुँ क्या?
************************
वज़्न_22 22 22 22
-राम शिरोमणि पाठक
मौलिक।अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on December 29, 2014 at 5:17pm — 19 Comments

श्रेष्ठ कौन !

कौन जाने ?

बद्दुआओ में होता है असर 

वाणी के जहर 

ये काटते तो है

पर देते नहीं लहर

 

पुरा काल में

इन्हें कहते थे शाप

ऋषियों-मुनियों के पाप

दुर्वासा इसके

पर्याय थे आप

 

भोगता था

अभिशप्त वाणी की मार 

कभी शकुन्तला

या अहल्या सुकुमार

आह !आह ! ऋषि के

वे…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 29, 2014 at 9:30pm — 19 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - जमीं को कभी ये इज़ाज़त नहीं है

122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 (16-रुक्नी)

---------------------------------------------------------------------------

गुजारिश नहीं है, नवाजिश नहीं है, इज़ाज़त नहीं है, नसीहत नहीं है

ज़माना हुआ है बड़ा बेमुरव्वत,  किसी को किसी की जरूरत नहीं है

 

किनारे दिखाई नहीं दे रहें है, चलो किश्तियों के जनाज़े उठा लें,

यहाँ आप से है समंदर परेशाँ, यहाँ उस तरह की निजामत नहीं है

 

जमीं आसमां…

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Added by मिथिलेश वामनकर on December 31, 2014 at 12:41am — 31 Comments

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