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गज़ल-दिल तेरे बिन कहीं अब बहलता नही।

वह्र-212 212 212 212

दिल तेरे बिन कहीं अब बहलता नही।
दर्द सीने में है दम निकलता नही।।

दर्द दिल का बढ़ा जा रहा है बहुत।
दर्दे दिल पे कोई जोर चलता नही।।

सिसकियों से मेरी दिल पिघलते गए।
दिल तेरा ये भला क्यूँ पिघलता नही।।

टालता हूँ बहुत ख़्वाब तेरे सनम।
टालने से मगर अब ये टलता नही।।

काश! मिल जाए तेरा सहारा मुझे।
बिन सहारे ये दिल अब सँभलता नही।।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by रामबली गुप्ता on July 11, 2016 at 10:30am — 10 Comments

दोहा.... मुहावरों की सार्थकता

मुहावरों में दोहा छंद की छटा...

गाल बजा कर दल गये, जो छाती पर मूंग.

वही अक्ल के अरि यहां, बने खड़े हैं गूंग. १

शीष ओखली में दिया, जब-जब निकले पंख.

उंगली पर न नचा सके, रहे फूंकते शंख. २

डाल आग में घी करे, हवन दमन की चाह. 

अंत घड़ों पानी पियें, खुलती कलई आह. ३

फूंक-फूंक कर रख कदम, कांटों की यह राह.

खेल जान पर तोड़ना, चांद-सितारे- वाह. ४

अपने पैरों पर करें, लिये कुल्हाड़ी वार.

दोष…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 11, 2016 at 9:30am — 10 Comments

रिमझिम

  बरसात के मौसम में आपको ऐसा लगेगा कि बादल ब्रस रहे हैं ल्ेकिन व्े आपको और साथियों के लंुभाते और बुलाते हैं आप आवें और उनके प् ाष में उलझ कर रह जायेे। कभी-कभी ऐसा होता है वे आते हैं और झमक कर बरस जाते हैं। तब रिमझिम फुहारें मन को इतना भिगोती हैं कि मन पर लगता है लदा भार हट जाता है। मौलिक और अप्रकाषित

Added by indravidyavachaspatitiwari on July 11, 2016 at 9:08am — No Comments

जीत की हार, हार की जीत (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

पिछले कुछ महीनों से अपने नौजवान बेटे के विचार सुन कर और गतिविधियाँ देखकर वे बहुत परेशान चल रहे थे। आज पुस्तकालय में अपने भरोसेमंद मित्र से मुलाक़ात होने पर उन्होंने कहा, "मासाब, अगर थोड़ा समय दे सको, तो मैं अपनी समस्या आपके सामने रखूं?"



"जी बिलकुल, कहिये!"



"मासाब, मेरा बेटा कह रहा है कि उसे तो सिर्फ़ सभी धर्मों के ग्रंथों को पढ़ने व समझने में रुचि है, वह भी तुलनात्मक अध्ययन करके लोगों को अच्छी सच्ची बातें व्याख्यान देकर समझायेगा!"



"ये तो बहुत ही अच्छी बात है,… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 10, 2016 at 11:30pm — 17 Comments

हृदय-दान

मेरा बीसवीं सदी का पुरातन स्नेह

यह इक्कीसवीं सदी के तुम्हारे

कभी न बदलने के वायदे

स्नेह की किरणों के पुल पर 

एक संग उठते-गिरते-चलते

यह संवेदनशील हृदय कभी

तुम्हारा संबल बना था

चाँदनी-सलिल-सा तरल स्नेह

जीवन-यथार्थ का पिघला हुआ कुंदन ...

कहती थी

इसकी अमोल रत्न-सी आभा

थी तुम्हारी रातों में तेजोमय प्रेरणा

या असंतोष की धूप की छटपटाहटों में

ज्यों लहराई सनातन सत्यों की…

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Added by vijay nikore on July 10, 2016 at 3:59pm — 8 Comments

ग़ज़ल - दिन ढलते ही रात को आते देख रहा हूँ

बह्र : मात्रिक



दिन ढलते ही रात को आते देख रहा हूँ

शहर से तुम को अपने जाते देख रहा हूँ



धीरे धीरे दिल ये मेरा डूब रहा है

दूर कहीं क़श्ती को जाते देख रहा हूँ



साहिल से मौजों का मिलना जाने कब हो

लहरों से लहरें टकराते देख रहा हूँ



शायद देखो मुड़ के मुझको जाते लेकिन

मायूसी आँखों में छाते देख रहा हूँ



देख रहा हूँ गुमसुम गुमसुम बैठे तुम को

तुम को ही आवाज़ लगाते देख रहा हूँ



चुपके चुपके बैठे बैठे अश्क़ बहाते

दिलवालों… Continue

Added by Mahendra Kumar on July 10, 2016 at 3:30pm — 10 Comments

"देश प्रेम" लघुकथा

कमांडर ऑफ़ चीफ़ - "शाबाश राकेश ! तुम्हारा शौर्य पराक्रम अन्य सैनिकों से अलग है । तुम्हारे शौर्य और पराक्रम में जोश है,दीवानगी है,आक्रोश है । वेल डन ।"

राकेश राणा - "यस सर । देश प्रेम मेरा परम धर्म है । देखना एक दिन मैं इस धर्म को निभाकर दिखाऊँगा । माँ को यही वचन देकर आया हूँ ।"

सीमा पर से गोली बारी शुरू हुई और देखते ही देखते युद्ध छिड़ गया । राकेश राणा अंत समय तक लड़ते लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गया ।

तिरंगे में लिपटा ताबूत जैसे ही गाँव पहुँचा ,जन सैलाब उमड़ पड़ा । राकेश राणा की माँ…

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Added by Samar kabeer on July 10, 2016 at 12:00pm — 26 Comments

कच्चा ये माटी का घर छोड़ता हूँ----Gazal

22 122 122 122

दर पर तुम्हारे बसर छोड़ता हूँ।

लो मैं तुम्हारा नगर छोड़ता हूँ।।

क्या फ़र्क है, ग़र है धड़कन तुम्हीं से।

मैं ज़िन्दगी की बहर छोड़ता हूँ।।

चिंता नहीं कर न आऊँगा मिलने।

कच्चा ये माटी का घर छोड़ता हूँ।।

तुमको नज़र लग न जाये किसी की

काज़ल ये दिल भस्म कर छोड़ता हूँ।।

खुद पे तुम्हारा यकीं कम न होये।

तुमको ग़ज़ल में अमर छोड़ता हूँ।।

मौलिक-अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 10, 2016 at 11:30am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
जेब में सहमा हुआ इतवार है (ग़ज़ल 'राज ')

२१२२ २१२२ २१२

मजहबों के बीच जो दीवार है

डालती उस नींव को सरकार है

हाथ में जिसके किताबें चाहिए

आज उसके हाथ में हथियार है

जिन्दगी इक बार मिलती है यहाँ

मर रहा इंसान सौ सौ बार है

ख्वाहिशें बच्चों की पूरी क्या करें

जेब में सहमा हुआ इतवार है

पढ़ नहीं सकता यहाँ इक हर्फ़ जो

बेचता सड़कों पे वो अखबार है

राम रहिमन बिक रहे बाजार में

फल रहा बस धर्म का व्यापार…

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Added by rajesh kumari on July 10, 2016 at 10:30am — 36 Comments

ग़ज़ल मनोज अहसास(इस्लाह के लिए)

2122 2122 2122 212



मुस्कुराहट ही सदा मिलती खता के सामने

सारी दुनिया छोटी है माँ की अदा के सामने



छत नहीं मिलती है जिनको एक ऊँचाई के बाद

गिर भी जाती हैं वो दीवारें हवा के सामने



सिर्फ वो ही ढक सकेगा अपनी खुद्दारी का सर

दौलतें प्यारी नहीं जिसको अना के सामने



जिनकी दहशत से सितम से जल रहा सारा जहां

वो भला क्या मुँह दिखायेगें खुदा के सामने



आसमां सी सोच हो और बात हो ठहरी हुई

फिर ग़ज़ल मंज़ूर होती है दुआ के सामने



तेरे… Continue

Added by मनोज अहसास on July 10, 2016 at 9:37am — 14 Comments

तम से लड़ी है जिंदगी

2122  2122  2122  212

मौत है निष्ठूर निर्मम तो कड़ी है जिंदगी

जो ख़ुशी ही बाँटती हो तो भली है जिंदगी

 

लोग जीने के लिए हर रोज मरते जा रहे

ये सही है तो कहो क्या फिर यही है जिंदगी

 

दो निवालों के लिए दिनभर तपाया है बदन

या कि मानव व्यर्थ चाहत में तपी है जिंदगी  

 

झूठ माया मोह रिश्ते सब सही लगते यहाँ

जाने कैसे चक्रव्यूहों में फँसी है जिंदगी

 

काठ का पलना कहीं तो खुद कहीं पर काठ है

है हँसी…

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Added by Ashok Kumar Raktale on July 9, 2016 at 7:00pm — 18 Comments

बाँझ निवास (लघुकथा)राहिला

"अरी विभा देख जरा वहां"बस के आगे जा रहे वाहन की ओर इशारा करके सुधा बोली।

"क्या दिखाना चाह रही हो ,वो ट्रॉली?"

"हाँ,क्या ऐसा नहीं लग रहा उसे देख कर, जैसे सैकड़ो नन्हें मुन्ने नर्सरी के बच्चे पहली बार विद्यालय वाहन में सवार हो,झूमते ,गाते ,तालियाँ बजाते चले जा रहे हों।"

"फिर दौड़ाये तूने कल्पना के घोड़े"

"तो तू भी दौड़ाकर देख ,एक बार मेरी तरह।"

सुधा द्वारा चित्रित किये दृश्य को जब उसने ,उसकी नज़र से देखा तो भाव विभोर होकर बोली।

"कसम से सुधी! ये नर्सरी  वाहन…

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Added by Rahila on July 9, 2016 at 1:01pm — 25 Comments

दोस्ती और दग़ाबाजी (लघु कथा। ) जानकी बिष्ट वाही

सुबह से दोपहर होने को आई।बाहर चिलचिलाती धूप और अंदर घुटन। जगदीश ये समझ नहीं पा रहा कि मन की बैचेनी है या कुछ और।

चपरासी के हाथ वह अपने आने की ख़बर अंदर तक पहुंचा चुका है। रतनुवा (रतन) बचपन से जवानी तक,गाँव में दिन भर उसके पीछे -पीछे डोलता था।उसका जिगरी यार है।



" भाई ! एक बार और कह दो कि गाँव से जगदीश आया है।" उसने चपरासी की चिरौरी की।



चपरासी अंदर चला गया और तुरंत लौट कर बोला -

"अंदर मीटिंग चल रही है।"



अनपढ़ रतनुवा का भी राजयोग निकला।विपक्षी पार्टी ने… Continue

Added by Janki wahie on July 9, 2016 at 12:07pm — 15 Comments

विदा काल

कोई कल्पना-स्वप्न ही होगा शायद

हुआ जो हुआ, वह इरादतन नहीं था

नियति की काल-कोठरी को बूझा है कौन

‘ कहाँ- कहाँ था मेरा दोष ’ का गंभीर भान

दोष कहीं कोई तुम्हारा नहीं था

जीवन के आरोह-अवरोह से डरी-डरी

अज्ञात भय से भीगी तुम कह देती थी ...

अनहोनी का होना कोई नया नहीं है

और मैं, गई रात की हिमीभूत टीस छिपाये

हलके-से दबाकर हाथ तुम्हारा

मुस्करा देता था

उस गंभीर पल को छल देता था

अनगिन…

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Added by vijay nikore on July 8, 2016 at 5:43pm — 12 Comments


मुख्य प्रबंधक
दो शब्द चित्र (गणेश जी बागी)

दो शब्द चित्र

1-

दरकिनार हुए...

अनुभव, योग्यता

कार्य-कुशलता,…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 8, 2016 at 9:30am — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
दोहे - पाँच -- गिरिराज भंडारी

सर पर छत थी वो गयी , भीत भीत चहुँ ओर

रक्ष रक्ष मैं रेंकता , चोर मचाये शोर

 

सबकी चिंता है अलग, सब में थोड़ा फर्क

सब कहते वो पाप है, वो जायेगा नर्क  

 

स्वार्थ सदा रहता छिपा, सब रिश्तों के बीच

लेकिन वह जो बोल दे, कहलाता है नीच

 

सबकी अपनी व्यस्तता, सब के अपने राग

सर्व समाहित सोच से , तू भी थोड़ा भाग

 

सब तक सीढ़ी है बना , पायेगा  अनुराग  

पत्थर को ठोकर मिली , रे मानुष तू…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 8, 2016 at 9:00am — 6 Comments

ग़ज़ल ( ख़िज़ाँ भी शामिल बहार में है )

१२१२२ - १२१२२

हंसी न अश्कों की धार में है ।

वफ़ा फ़क़त एतबार में है ।

लबों पे मुस्कान आँख है नम

ख़िज़ाँ भी शामिल बहार में है ।

लिपटना आता कहाँ है गुल को

ये ख़ास खसलत तो खार में है ।

निकाल दूँ अपने दिल से  उनको

कहाँ मेरे अख्तियार में है ।

जो देख ले खोए होश अपना

कशिश वो  रूए निगार में है ।

जुनूने दीदारे यार  देखो

खड़ा वो कल से कतार में है ।

कहाँ है तस्दीक…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on July 7, 2016 at 4:00pm — 14 Comments

कमाई (लघुकथा)

वह महंगी शॉल ओढ़े, गर्व से चेहरा उठाये, आरामदायक व्हीलचेयर पर बैठा हुआ था, जिसे एक नर्स धकेल रही थी| हस्पताल में एक डॉक्टर के कमरे के बाहर उसने नर्स को रुकने का इशारा किया| नर्स ने कुर्सी रोकी ही थी कि डॉक्टर के कमरे के दरवाज़े पर टंगा सफेद पर्दा हटा कर एक आदमी बाहर निकला| उसने ध्यान से देखा वह उसका पुराना मित्र था, जो वर्षों बाद दिखाई दिया| मित्र ने भी उसे एकदम पहचान लिया, लेकिन उसे व्हीलचेयर पर देखकर मित्र चौंका और उससे पूछा,

"अरे, तुम! कैसे हो? यह क्या हो गया?"

उसने गर्व से…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 7, 2016 at 3:00pm — 4 Comments

ज्योतिपुंज जगदीश!

*छप्पय छंद*





ज्योतिपुंज जगदीश!

रहो नित ध्यान हमारे।



कलुष-द्वेष-दुर्भाव,

हृदय-तम हर लो सारे।।



सत्य-स्नेह-सद्भाव,

समर्पण का प्रभु! वर दो।



जला ज्ञान का दीप,

प्रभा-शुचि हिय में भर दो।



दो बल पौरुष-सद्बुद्धि हरि!

फहराएं ध्वज-धर्म हम।



हर जनजीवन के त्रास हर,

करें सदा सद्कर्म हम।।





*किरीट सवैया*





संकटमोचन! राम-सखा! तुम,

बुद्धि-दया-बल-सद्गुण-सागर।



दीन-दुखी… Continue

Added by रामबली गुप्ता on July 7, 2016 at 8:23am — 4 Comments

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