नयी क़बा ....
कितनी अजब होती है
वो प्रथम अभिसार की रात
पुष्पों से सेज सुरभित रहती है
पलकों में उनींदे ख्वाब रहते हैं
एक जिस्म
दो कबाओं में सिमटा
किसी अनजाने पल के इंतज़ार में
ख़ौफ़ज़दा होता है
न चाह कर भी
अपने हाथों से
कुवांरे ख़्वाबों की क़बा का
कत्ल करना पड़ता है
मुहब्बत के
रेशमी अहसासों का नया पैराहन
खामोश वज़ूद को
एक नया नाम दे देता है
कुवारी क़बा
इक चुटकी भर सिन्दूर में लिपट…
Added by Sushil Sarna on February 27, 2016 at 8:00pm — No Comments
Added by Manan Kumar singh on February 27, 2016 at 7:48pm — 2 Comments
कर रहा क्या करम धर्म के नाम पर
आदमी बेशरम धर्म के नाम पर
दान की लाडली देव घर के लिये
बन गये वो हरम धर्म के नाम पर
लूटते मारते काटते आदमी
ज़न्नतों का भरम धर्म के नाम पर
कर दिये हैं फ़ना बेजुबां जानवर
कौन साईं हुये?और शनि देव है?
है बहस ये गरम धर्म के नाम पर
मिट गया बाँकपन खोइ शालीनता
भाड़ में गइ शरम धर्म के नाम पर…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 27, 2016 at 6:00pm — 9 Comments
Added by Rahul Dangi Panchal on February 27, 2016 at 3:39pm — 6 Comments
उस जमाने में बी ए प्रथम श्रेणी से पास होने पर बाबू जी को कालेज के प्राचार्य ने पारितोषिक स्वरूप दिया था ।बाबू जी ने न जाने कितनी कहानियाँ,कविताएँ लिखी इस पेन से। हमेशा उनकी सामने की जेब में ऐसे शोभा बढ़ाये रखता जैसे कोई तमगा लगा हो। मेरी पहली कहानी सारिका में प्रकाशित होने पर बाबू जी ने प्रसन्न हो कर मेरी जेब में ऐसे लगाया जैसे कोई मेडल लगा रहे हों और साथ में हिदायत दी कि इस पेन से कभी झूठ नहीं लिखना,और न ऐसा सच जिससे किसी का अहित हो। आज बाबू जी की पुण्य तिथि पर उनकी तस्वीर पर माला चढा कर…
ContinueAdded by Pawan Jain on February 27, 2016 at 11:30am — 8 Comments
वह समय था
जब हम जाते थे माँ के साथ
नीरव-विजन मंदिर में
देव-विग्रह के समक्ष
सांध्य-दीप जलाने
क्रम से आती थी गाँव की
अन्य महिलाएं
मिलता था तोष
एक अनिवर्चनीय सुख
जबकि नहीं देते थे भगवान्
कुछ भी प्रत्यक्षतः
सिर्फ रहते थे मौन
आज वही विग्रह
करते है अवगाहन रात भर
ट्यूब–लाइट की दूधिया रोशनी मे
नहीं आती अब वहां ग्राम की बधूटियां
पर उपचार, देव-कार्य करते हैं
एक उद्विग्न कम उम्र के…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 27, 2016 at 11:04am — 1 Comment
पंचामृत......दोहे
सावन-भादों सूखते, ठिठुरी आश्विन-पूस.
माघ-फाल्गुनी रक्त रस, रही प्रेम से चूस. १
अपने सारे दर्द हुए, जीवन के अभिलेख.
कुछ पन्ने इतिहास से, कुछ इस युग के देख. २
सत्य अहिंसा प्रेम-धन, सब पर्वत के रूप.
मन-मंदिर को ठग रहे, जैसे अंधे कूप. ३
राग-द्वेष नेतृत्व की, धारा प्रबल प्रवाह.
जन गण मन को डुबा कर, कहें स्वयं को शाह. ४
मौसम के हर रंग हैं, जीवन के संदेश.
कभी…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 26, 2016 at 9:30pm — 1 Comment
किसान का बेटा...
गंदे फटे वस्त्रों में उलझी धूल
झाड़ती सोंधी-सोंधी खुशुबू.
नीम की छांव में बैठ कर
निमकौड़ी !
खुद पिघल कर रचती
नये-नये अंकुर.
सावन मस्त होकर झूमता
वर्षा निछावर करती
जीवन के जल-कण
छप्पर रो पड़ते
किसान फटी आंखों से सहेज लेता...
जल-कण
बटुली में
थाली में.
धान के खेत लहलहाते
गंदे-फटे वस्त्र धुल जाते
चमकते सूर्य सा
साफ आसमान…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 26, 2016 at 6:00pm — No Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
बेवफा ने जब जफ़ा के दस बहाने रख दिए
हमने भी तब जख्म अपने सब छुपा के रख दिए
भूख भी ये हार बैठी हौसले को देख कर
मुफलिसों ने आज फिर से देख रोजे रख दिए
फोन ने तो चीन डाला बचपना अब बच्चों का
टाक पर दादी के किस्से हमने सारे रख दिए
अब बुजुर्गों की कोई कीमत नहीं संसार में
आश्रमों के द्वार पर बूढ़े बिचारे रख दिए
जालिमों का जोर क्यों बढ़ने लगा है आज कल
यूँ भला सच की जुबां पर…
ContinueAdded by gumnaam pithoragarhi on February 25, 2016 at 10:02pm — 3 Comments
बगावत
बगावत की है कलम ने
उसे भी अब आरक्षण चाहिए-
कुछ भी लिख दे
पुस्तकाकार में छपना चाहिए!
मैं अड़ गया अपना ईमान लेकर
तो
कलम ने अट्टहास किया,
तोड़ा, मरोड़ा, उखाड़ फेंका
उन शब्दों की पटरी को
जिन पर भूले-भटके
मेरी कल्पना की रेलगाड़ी
कभी-कभी खिसकती महसूस होती थी
और मैं बंद खिड़की के भीतर से
अनायास देखता रहता था पीछे सरकते
लहलहाते हुए, सूखाग्रस्त या
बाढ़ के गंदे पानी में…
Added by sharadindu mukerji on February 25, 2016 at 9:52pm — 1 Comment
Added by amita tiwari on February 25, 2016 at 9:04pm — No Comments
“आज तो गज़ब की टाई पहनी है अमित, बहुत जम रहे हो यार, कहाँ से ली?”
“नेहरू प्लेस से लाया हूँ साले, 90 रूपये की है, चाहिये तो उतार दूं, बता?”
“अबे भड़क क्यों रहा है?, और सुबह-सुबह सिगरेट पर सिगरेट सूते चले जा रहा है, कोई टेंशन है क्या?”
“सॉरी यार, अभी बॉस ने मेरी तबियत से क्लास ले ली, दिमाग खराब कर दिया साले नेI”
“भाई इतनी गाली क्यों दे रहा है, क्या हो गया?"
“अरे यार, कह रहा है, आज अगर धंधा नहीं आया तो कल से आने की जरूरत नहीं है I”, ”पता नहीं किस…
Added by Hari Prakash Dubey on February 25, 2016 at 11:00am — 6 Comments
1222 1222 1222 1222
धरा है घूर्णन में व्यस्त, नभ विषणन में डूबा है
दशा पर जग की, ये ब्रह्माण्ड ही चिंतन में डूबा है
हर इक शय स्वार्थ में आकंठ इस उपवन में डूबी है
कली सौंदर्य में डूबी, भ्रमर गुंजन में डूबा है
बयां होगी सितम की दास्तां, लेकिन ज़रा ठहरो
सुख़नवर प्रेयसी के रूप के वर्णन में डूबा है
उदर के आग की वो क्या जलन महसूस कर पाए
जो चौबीसों…
Added by जयनित कुमार मेहता on February 24, 2016 at 9:17pm — 18 Comments
चंद शेर आपके लिए
एक।
दर्द मुझसे मिलकर अब मुस्कराता है
जब दर्द को दबा जानकार पिया मैंने
दो.
वक्त की मार सबको सिखाती सबक़ है
ज़िन्दगी चंद सांसों की लगती जुआँ है
तीन.
समय के साथ बहने का मजा कुछ और है यारों
रिश्तें भी बदल जाते समय जब भी बदलता है
चार.
जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था
"मौलिक व अप्रकाशित"
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
Added by Madan Mohan saxena on February 24, 2016 at 12:09pm — 3 Comments
1222 1222 1222 1222
न जाने हाथ में किसके है ये पतवार मौसम की
बदल पाया न कोई भी कभी रफ्तार मौसम की /1
सितम इस पार मौसम का दया उस पार मौसम की
समझ चालें न आएँगी कभी अय्यार मौसम की /2
अभी है पक्ष में तो मत करो मनमानियाँ इतनी
न जाने कब बदल जाए तबीयत यार मौसम की /3
उजाड़े जा रहा क्यों तू धरा से रोज ही इनको
दवाई पेड़ पौधे हैं समझ बीमार मौसम की /4
न आए हाथ उतने भी लगाए बीज थे जितने
पड़ी कुछ…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 24, 2016 at 11:55am — 13 Comments
Added by kanta roy on February 24, 2016 at 11:03am — 9 Comments
212 212 212 212
जीत उसको मिली जो लड़ा ही नहीं
कौन सच में लड़ा ये पता ही नही
साजिशों से अँधेरा किया इस क़दर
कब्र उसकी बनी जो मरा ही नहीं
झूठ के पाँव पर मुद्दआ था खड़ा
पर्त प्याज़ी हठी, कुछ मिला ही नहीं
यूँ बदी अपना खेमा बदलती रही
अब किसी के लिये कुछ बुरा ही नहीं
इन ख़ुदाओं को देखा तो ऐसा लगा
इस जहाँ में कहीं अब ख़ुदा ही नहीं
छोड़ दी जब गली, नक्श भी मिट गये
चाहतें…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 24, 2016 at 10:00am — 26 Comments
आज का मामला बहुत गंभीर था| पूरे थाने को अकेले एक हवलदार के भरोसे छोड़कर बाकी सभी पुलिसकर्मी रात से उसी स्थान के आस-पास उसे तलाश रहे थे| सवेरा होते-होते सभी के चेहरों पर थकान झलकने लगी, सवेरे की पाली के पुलिसकर्मीयों को भी वहीँ बुला लिया गया| लेकिन ऊपर से आदेश होने के कारण रात्रि की पाली वाले भी नहीं जा सकते थे|
इतने में वृत्तनिरीक्षक के पास अधीक्षक का फोन आया, उसने फ़ोन उठाया और कहा, "जय हिन्द हुजूर! ....... अभी तक कोई हलचल नहीं हुई है ......... अच्छा! अभी भी इसी इलाके में होने की…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on February 24, 2016 at 8:30am — 6 Comments
हमने बाँट ली ज़मीन
फिर आसमान
अब बाँट लिए
चाँद सूरज और तारे
फिर बाँटा
देश-वेश, रहन- सहन
रंग-ढंग, जाति- प्रजाति
ख़ुदग़रज़ई
बढ़ती जा रही है.
अब हमने छुपा दिया है
सदभावना को, भाईचारे को
किसी गहरी खाई में.
हम अब नहीं बाँटना चाहते
सहज स्नेह
आमने- सामने..
.
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on February 24, 2016 at 8:00am — 4 Comments
Added by amita tiwari on February 23, 2016 at 11:30pm — 4 Comments
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