Added by मनोज अहसास on February 23, 2016 at 6:00pm — 6 Comments
Added by Rahila on February 23, 2016 at 6:00pm — 8 Comments
बह्र : १२२ १२२ १२२ १२
सभी पैरहन हम भुला कर चले
तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले
न फिर उम्र भर वो अघा कर चले
जो मज़लूम का हक पचा कर चले
गये खर्चने हम मुहब्बत जहाँ
वहीं से मुहब्बत कमा कर चले
अकेले कभी अब से होंगे न हम
वो हमको हमीं से मिला कर चले
न जाने क्या हाथी का घट जाएगा
अगर चींटियों को बचा कर चले
तरस जाएगा एक बोसे को भी
वो पत्थर जिसे तुम ख़ुदा कर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 23, 2016 at 5:57pm — 10 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on February 23, 2016 at 4:30pm — 18 Comments
गूंगी गुड़िया ....
कितनी प्रसन्न दिख रही हो
सुनहरे बाल
छोटी सी फ्रॉक
छोटे छोटे पांवों में
लाल रंग की बैली
नटखट आँखें
नृत्य मुद्रा में फ़ैली दोनों बाहें
बिन बोले ही तुम
कितने सुंदर ढंग से
अपने भावों का
सम्प्रेषण कर रही हो
तुम पर
किसी मौसम का
कोई असर नहीं होता
सदैव मुस्कुराती हो
गुड़िया हो न !
शीशे की अलमारी में बंद रह के भी
सदा मुस्कुराती हो//
मैं भी बुल्कुल तुम्हारी तरह…
ContinueAdded by Sushil Sarna on February 23, 2016 at 3:38pm — 2 Comments
स्क्रिप्ट के पन्ने पलटते हुए अचानक प्रोड्यूसर के माथे पर त्योरियाँ पड़ गईं, पास बैठे युवा स्क्रिप्ट राइटर की ओर मुड़ते हुए वह भड़का:
"ये तुम्हारी अक्ल को हो क्या गया है?"
"क्या हुआ सर जी, कोई गलती हो गई क्या?" स्क्रिप्ट राइटर ने आश्चर्य से पूछाI
"अरे इनको शराब पीते हुए क्यों दिखा दिया?"
"सर जो आदमी ऐसी पार्टी में जाएगा वो शराब तो पिएगा ही न?"
"अरे नहीं नहीं, बदलो इस सीन कोI"
"मगर ये तो स्क्रिप्ट की डिमांड हैI"
"गोली मारो स्क्रिप्ट कोI यह सीन फिल्म में…
Added by योगराज प्रभाकर on February 23, 2016 at 2:30pm — 27 Comments
"सर, एक छोटा सा प्रार्थना पत्र है, आपकी स्वीकृति चाहिये|" कार्यालय के वरिष्ठ लिपिक ने अपने अधिकारी की तरफ कागज़ और एक कलम बढ़ाते हुए कहा|
अधिकारी ने कलम को छोड़, हाथ से कागज़ लेकर पढ़ना प्रारंभ किया, पढ़ते हुए उसके चेहरे की भंगिमाएं बदल गयीं, आँखों में कुछ तीक्ष्णता भी आ गयी, लेकिन उसने स्वयं को संयत करते हुए कहा, "अभी तीन माह पूर्व ही तो आपके वेतन में असाधारण वृद्धि की थी, अब फिर से...."
"हर संकट में आपका साथ दिया है, इस कुर्सी पर आप बैठे हैं, उसमें कहीं न कहीं मेरा भी तो हाथ…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on February 23, 2016 at 1:00pm — No Comments
2122 2122 2122 212
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प्यार के इस माह की यारो कहानी क्या कहें
बिन किसी के थम गयी है जिंदगानी क्या कहें /1
यूँ कभी खुशियों के मौसम भी छलकती आँख थी
दर्द से हट आँसुओं के अब तो मानी क्या कहें /2
आजकल बैसाखियों पर वक्त जाने क्यों हुआ
थी कभी किससे जवाँ वो इक रवानी क्या कहें /3
आप कहते हो अकेलापन सताता है बहुत
साथ अपने तो सदा यादें पुरानी क्या कहें /4
खुश रहे बस हो …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 23, 2016 at 11:27am — 10 Comments
Added by kanta roy on February 23, 2016 at 7:00am — 8 Comments
Added by Manan Kumar singh on February 23, 2016 at 6:55am — 4 Comments
[१]
प्यार मुहब्बत संग दया समता,करुणाकर ही रखते हैं.
क्रूर कठोर अघोर सभी जन मे, सदबुद्धि वही फलते हैं.
रावण कौरव कंस बली हिरणाक्ष,सभी पल मे क्षरते हैं.
धर्म सधे जनमानस के हित, सत्यम नित्य कहा करते हैं.
[२]
वक्त बली अति सौम्य तुला रख, नीति सुनीति सदा पगता है.
काल अकाल विधी विधना, सबके सब मूक बयां करता है.
मीन - नदी अति व्यग्र रहें, बगुला - तट शांत मजा चखता है.
वक्त समग्र विकास करे, पर मानव सत्य नहीं गहता…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 23, 2016 at 12:00am — 2 Comments
Added by amita tiwari on February 22, 2016 at 10:30pm — 4 Comments
चुप हो जाते हैं.....
मन ही मन
हम कितना बतियाते हैं
जब अक्सर
हम चुप हो जाते हैं//
कभी आँखें बोलती हैं
कभी लब थरथराते हैं
रुके हुए पाँव
मील का पत्थर हो जाते है
जब अचानक
हम चुप हो जाते हैं//
तारीकियों के कैनवास पे
रिश्तों की सिसकती रेखाओं से
अपनी तूलिका में
दर्द का रंग भरकर
उसमें सिमट जाते हैं
अक्सर जब
हम चुप हो जाते हैं//
तपती राहों पर
सूखे होते शज़र से लिपट…
Added by Sushil Sarna on February 22, 2016 at 9:37pm — 2 Comments
आज मेरी "दुष्कर्म" पर हो रही शोध को पुरे तीन साल हो गएI बस अब तो पर्यवेक्षक का फाइनल वेरिफिकेशन बाकि हैI उसी काम के लिए आज उन्होंने मुझे अपने घर पर बुलाया हैI
"गुड मॉर्निंग सर" - में घर में घुसते ही बोलीI
"आओ दामिनी किसी हो"
"ठीक हुँ सर"
घर में सन्नाटा था, में सोफे पर बैठ गईI "मेडम नहीं दिख रहे" कहाँ है?
वो मायके गई हैI, तपाक से जवाब मिलाI ये सुन में थोड़ी डर गई, वो मेरे पास आकर बैठ गए, मुझे अजीब सी घुटन होने लगीI मेरी धड़कने तेज हो गई, न जाने क्यों मुझे कुछ अनहोनी का…
Added by harikishan ojha on February 22, 2016 at 8:46pm — No Comments
हर कोई लालायित कितना, कैसे भी हों कालजयी
इस चक्कर में ठेला-ठाली, धक्का-मुक्की मची रही
नदी वही है, लहर वही है, और खिवईया रहे वही
लेकिन अपनी नाव अकेली बीच भंवर में फंसी रही
बार-बार समझाते उनको हम भी हैं तुम जैसे ही
बार-बार उनके भेजे में बात हमारी नहीं घुसी
छोडो तंज़-मिजाज़ी बातें, आओ बैठो गीत बुनें
खींचा-तानी करते-करते बात वहीं पे रुकी रही
(अप्रकाशित मौलिक)
Added by anwar suhail on February 22, 2016 at 8:30pm — No Comments
अपनी मांग को लेकर एक समुदाय के लोग शांति से आंदोलन कर रहे थे। अचानक आंदोलन ने उग्र रूप लिया। अन्य समुदायों से झड़पें हुई। मारा-मारी हुई। छोटी-बड़ी सड़कें बन्द। लूट-पाट शुरू। यह सब ऎसे चला की मारा-मारी में हुई झड़पों में कइयों की जानें भी गई।
एक पत्रकार मांग को लेकर आंदोलन कर रहे समुदाय के बड़े नेता से
-यह जो हो रहा है, क्या यह सब ठीक है?
-जब चारों तरफ आगजनी हो, मारा-मारी हो, सब अपने ही लोग अपनों को मारने पर तुले हों, जनता हालातों से तंग आ गई हो तो कुछ ठीक कहा जा सकता है? यह…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on February 22, 2016 at 3:00pm — 5 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 22, 2016 at 12:45pm — 6 Comments
आख़िरकार आज पिछले सत्रह सालों की साधना रंग ला ही गई, कसम से क्या–क्या पापड़ बेलने पड़े इस सचिवालय तक पहुँचने के लिए... नए सचिव साहब, मन ही मन सोचते हुए, कभी अपने खूबसूरत दफ्तर और कभी अपने स्वागत में प्रस्तुत फूलों के अम्बार को देख–देख कर मुस्करा रहे थे कि तभी, दरवाजे की घंटी बज उठी, एक आवाज आयी “क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ ? “जी, फ़रमाइए।”
“जय हिन्द सर, मै आपका ‘वैयक्तिक सहायक’ हूँ, आपका इस नए कार्य क्षेत्र में स्वागत है, मेरी तरफ से ये तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये साहब।”
“ओह ! धन्यवाद आपका,…
Added by Hari Prakash Dubey on February 22, 2016 at 10:06am — 6 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on February 22, 2016 at 8:00am — 4 Comments
115
मेरी प्यारी व्यथा
===========
खपरैल से निर्विघ्न आती
वर्षा की अनुपम फुहारों से,
आर्द्रशीत अनिल ने, भिगोया था तनमन अपना।
मेंढकों की सी जिंदगी में उस दिन...
अपनी 'भुजा की तकिये' के नीचे से आता,
बड़े चाव से, तुम्हारा--- स्वर सुना।
गुंजरित बसंत कहीं पल्लवित वसुंधरा
स्वतंत्र कामना समूह के अनोखे जाल में
बटोरे थी, आकर्षक संन्निधि अपनी,
'बक मीन दर्शन' की दशा को ,
चित्त दे, सौरभ विखेरते शशांक में,
भूख प्यास भूल, तुझे पल पल…
Added by Dr T R Sukul on February 21, 2016 at 4:49pm — 4 Comments
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