पदोन्नति - ( लघुकथा ) –
"डॉ साहब, बाबूजी ठीक तो हो जायेंगे ना"!
"देखिये कुमार बाबू, ऐसे तो इन्हें कोई गंभीर बीमारी नहीं है मगर इनका मानसिक संतुलन बडी जल्दी जल्दी बिगडता है,उससे ब्लड प्रैसर तेज़ी से बढ जाता है! इससे लक़वा होने की संभावना रहती है!यदि इसमें सुधार नहीं हुआ तो मानसिक रुग्णालय भेजना पडेगा"!
"आपका मतलब पागलखाने"!
"जी हॉ, वैसे इनको यह दौरे कब से आते हैं"!
"बाबूजी सरकारी विभाग में अधीक्षक थे!बहुत मेहनत और ईमानदारी से कार्य करते थे!समय के पाबंद…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on February 17, 2016 at 11:14am — 14 Comments
आनंद..!
आनंद का आकार.....
निराकार!
बात-बात पर अट्टहास करते
पल झपकते ही स्वर
हवा में बह जाते.
दिशाओं की कोंख
नित्य जन्मतीं
सूर्य-चंद्र अगणित तारे
सृष्टि के सृजन में
सत्यम शिवम सुंदरम
स्वयं शव!
शांति का संदेश देते ब्रह्म !
ऊंकार,
जीवन पुष्ट करता
जीव !
चक्रवत निरंतर खोजता
जीवन का आनंद..
परमानंद...पर,
आनंद की अनुभूति कभी न हो पाती
मिलता केवल दु:ख
सुख…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 17, 2016 at 8:17am — 4 Comments
अचानक से कुछ होने लगा था । हल्का सा चक्कर और पेपर हाथ से सरककर नीचे गिर पडा़ । उठाने को हाथ बढाया तो एहसास हुआ कि शिथिल पड़ चुका था मै । देह भी निष्प्राण से हो चले थे । आँखों में ही अब होश बाकी था शायद ।सब देख और सुन पा रहा था । बगल वाले कमरे में नये साल की पार्टी अब भी जारी थी । घर के सब सदस्य , बेटे- बहू, नाती- पोते , आज इकट्ठे हो गये थे जश्न मनाने के लिए ।
मुझे पार्टी में ही तबियत नासाज लग रही थी । मै चुपके से अपने कमरे में आकर इस आराम चेयर पर एकदम…
ContinueAdded by kanta roy on February 16, 2016 at 11:45pm — 7 Comments
प्यार में .......
नहीं नहीं
मैं अभी मृत्यु को
अंगीकार नहीं करना सकता//
अभी तो प्रेम सृजन का
शृंगार अधूरा है//
वृक्ष विहीन प्रेम पंथ पर
तलवों की तपिश का
संहार अधूरा है//
पाषाण बने पलों में
किसी लहर के
तट से मिलन का
इंतज़ार अधूरा है//
अभी तो मृत्यु से पूर्व
मुझे उसके लिए जीना है
जिसने आसमान के टूटे तारे से
बंद आँखों से
संग संग जीने की
दुआ माँगी है…
Added by Sushil Sarna on February 16, 2016 at 9:02pm — 4 Comments
माही मुझे चुरा ले मुझसे, मेरी प्याली खाली कर दे।
रम जा या फिर मुझमे ऐसे, छलके प्याली इतना भर दे।
मैं बदरी तू फैला अम्बर
मैं नदिया तू मेरा सागर,
बूँद-बूँद कर प्यास बुझा दे
रीती अब तक मन की गागर,
लहर-लहर तुझमें मिल जाऊँ, अपनी लय भीतर-बाहर दे।
रम जा या फिर मुझमे ऐसे, छलके प्याली इतना भर दे।
शब्द तू ही मैं केवल आखर
तू तरंग, मैं हूँ केवल स्वर,
रोम-रोम कर झंकृत ऐसे
तेरी ध्वनि से गूँजे अंतर,
माही दिल में मुझे बसा कर, कण-कण आज तरंगित…
Added by Dr.Prachi Singh on February 16, 2016 at 1:37pm — 3 Comments
2222 2222 2222 222
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कौन कहेगा यारो बोलो बस्ती की मनमानी की
दोष लगाता हर कोई है गलती कहकर पानी की /1
राह रही जो नदिया की वो घर आगन सब रोक रहे
खादर बंगर पाट रखी है नींव नगर रजधानी की /2
भीड़ बड़ी हर ओर साथ ही कूड़े का अम्बार बढ़ा
धन के बल पर नदी मुहाने आज पँहुच शैलानी की /3
हम को नादाँ कहकर कोई बात न कहने देते पर
यार सयानों ने हर दम ही बात बहुत बचकानी की /4
माना सुविधाओं का यारा…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 16, 2016 at 12:23pm — 6 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on February 15, 2016 at 3:33pm — 3 Comments
Added by Sudhanshu Gupta "AGYAAN" on February 15, 2016 at 2:03pm — No Comments
Added by Dr.Prachi Singh on February 15, 2016 at 1:22pm — 17 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on February 15, 2016 at 1:19pm — 3 Comments
2122 2122 2122 212
इस नगर में हर किसी को इक फसाना चाहिए
ऊँघते को ठेलते का इक बहाना चाहिए /1
कब से ठहरा ताल अब तो मारिए कंकड़ जरा
जिंदगी का लुत्फ कुछ तो यार आना चाहिए /2
बेबसी क्यों ओढ़नी जब हाथ लाठी कर्म की
द्वार किस्मत का चलो अब खटखटाना चाहिए /3
चोट खाकर देखिए खुद दर्द की तफतीस को
बोलना फिर दर्द में भी मुस्कुराना चाहिए /4
हो गयी हो पीर पर्वत हर दवा जब बेअसर
आँसुओं को किसलिए फिर छलछलाना चाहिए…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 15, 2016 at 12:22pm — 6 Comments
Added by Manan Kumar singh on February 15, 2016 at 10:08am — 2 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 15, 2016 at 9:29am — 8 Comments
चिडिया उड गयी - ( वैलेंटाइन डे पर विशेष ) – ( लघुकथा ) -
गोपाल के परिवार को तीन महीने हो गये थे नये मुहल्ले मेंआये हुए!उसके पडोस में एक सुंदर लडकी रहती थी!शायद कमला नाम था!उसकी मॉ सारे दिन कम्मो कम्मो चिल्लाती रहती थी क्योंकि उसका पैर घर के अंदर नहीं टिकता था!!कमला अधिकतर घर के दरवाज़े पर ,लॉन में,छत पर या झूले पर ही दिखती थी ! धूप हो या ना हो हर समय काला धूप का चश्मा लगाये रहती थी !
गोपाल जब भी उस तरफ़ देखता कुछ ना कुछ इशारे करती दिखती!कभी कभी उसके हाथ में कोई खतनुमा कागज़ भी…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on February 14, 2016 at 10:08pm — 8 Comments
कुछ भी
अनुपयोगी नहीं है
उसके लिए
सभी पर है
उसकी निगाहें
गहन कूड़े से भी
बीन और लेता है छीन
वह
प्राप्य अपना
जो है जगद्व्यव्हार में
वह भी
और जो नहीं है वह भी
बीन लेगा एक दिन वह
पेड़ –पौधे, नदी=-पर्वत
और पृथ्वी
यहां तक की जायेगा ले
सूरज गगन, नीहार, तारे
चन्द्र भी
ब्रह्माण्ड के सारे समुच्चय
लोग कहते हैं प्रलय
कहते रहे
किन्तु तय है
बीन…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 14, 2016 at 7:22pm — 4 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on February 14, 2016 at 6:03pm — 1 Comment
ठिठका तो था वो
एक पल को देहरी पर
और फिर निकल गया I
शायद सुन ली होंगी
घर के अन्दर से आती हुई आवाजें
मुट्ठी भींचे ,नारे लगाती,
भ्रामित भी था
कि बाहर से आ रही हैं
या घर के अन्दर से
कि बाहर की ऐसी ही आवाजों को
रोकने के लिये ही तो
ओढ़ी थी सफ़ेद मौत उसने
फिर ये घर के अन्दर से कैसे ?
समझ नहीं सका होगा कुछ
और फिर थक कर
निकल गया उस पार
हर भ्रम से दूर I…
ContinueAdded by pratibha pande on February 14, 2016 at 6:00pm — 5 Comments
ग़ज़ल ( निभा रहे हैं )
12122 ----12122)
फरेब उल्फ़त में खा रहे हैं /
सितमगरों से निभा रहे हैं /
घटाएं हों क्यों न पानि पानी
वो छत पे ज़ुल्फ़ें सुखा रहे हैं /
हुई है मुद्दत ये सुनते सुनते
वो मुझको अपना बना रहे हैं /
शराब ख़ोरी तो है बहाना
किसी को दिलसे भुला रहे हैं /
लगाके इल्ज़ाम दूसरों पर
वो अपनी ग़लती छुपा रहे हैं /
मेरे लिए बज़्म में वो आये
मगर सभी फ़ैज़ पा…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on February 14, 2016 at 11:47am — 10 Comments
212 212 212 212
संग सुख-दुख सहेंगे ये वादा रहा।
साथ हर वक्त देंगे ये वादा रहा।
चाँदनी रात में ओढ़ कर चाँदनी
तुम जो चाहो, जगेंगे ये वादा रहा।
हाथ सर पर दुआओं का बस चाहिए
हम भी ऊँचा उढ़ेंगे ये वादा रहा।
राह काँटो भरी ये पता है हमें
हौसलों पर बढ़ेंगे ये वादा रहा।
दीप बाती से हम, जब भी मिल कर जले
हर अँधेरा हरेंगे ये वादा रहा।
देह के पार जो चेतना द्वार है
हम वहाँ पर मिलेंगे…
Added by Dr.Prachi Singh on February 14, 2016 at 11:30am — 5 Comments
पहुँच रहे मंजिल तक
झटपट
काले काले घोड़े
भगवा घोड़े खुरच रहे हैं
दीवारें मस्जिद की
हरे रंग के घोड़े खुरचें
दीवारें मंदिर की
जो सफ़ेद हैं
उन्हें सियासत
मार रही है कोड़े
गधे और खच्चर की हालत
मुझसे मत पूछो तुम
लटक रहा है बैल कुँएँ में
क्यों? खुद ही सोचो तुम
गाय बिचारी
दूध बेचकर
खाने भर को जोड़े
है दिन रात सुनाई देती
इनकी टाप सभी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2016 at 11:03am — 4 Comments
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