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सूखे होठों की चलो प्यास बुझाई जाए (एक ग़ज़ल)......//डॉ.प्राची

2122 1122 1122 22



सारे धर्मों की सही बात उठाई जाए,

उसकी इक बूँद हर इन्साँ को पिलाई जाए।



है समंदर ही समंदर मगर इन्साँ प्यासा

सूखे होठों की चलो कहाँ प्यास बुझाई जाए।



आज तक माफ़ किया जिनको समझ कर नादाँ

अब जरूरत है उन्हें आँख दिखाई जाए।



जेठ की गर्म हवाओं में भी बरसे सावन

मेहंदी प्यार की प्यार की मेहंदी जो हाथों में रचाई जाए।…

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Added by Dr.Prachi Singh on February 21, 2016 at 2:30pm — 40 Comments

ये दौलत आदमी को आदमी रहने कहाँ देती --आशुतोष

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ 

ये दौलत आदमी को आदमी रहने कहाँ देती

ये बारिश बँध के इन नदियों को भी बहने कहाँ देती

गजब का तैश अहदे नौ के इस आदम में देखा है

ये ऐठन आदमी को आज कुछ सहने कहाँ देती

हुए आजाद आजादी मिली कहने को बस हमको

मगर दहशत दिलों की कुछ हमें कहने कहाँ देती

ये बहशीपन ये गुंडागर्दी ये आतंक का साया

शराफत मेरी दुनिया में…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on February 21, 2016 at 2:08pm — 11 Comments

मौसम चुनावी

मौसम !

आजकल हर किसी चीज का मौसम हो रहा है। ष्षादी का मौसम, खरमास का मौसम मेला का मौसम और उपवास तथा स्नान का मौसम लगता है कि हमें मौसम के अलावा अन्य किसी तरह से रहा ही नहीं जाता। अब चुनाव का भी एक मौसम चल रहा है।

यह तुनक कर संजीव ने कहा और घर के भीतर भाग गया। उसके साथ बातचीत मंे ष्षामिल रहे नन्द गोपाल हक्के -बक्के रह गये और कुछ सोचत हुए सोफे पर पसर गये।

थोड़ी देर बाद पुनः संजीव ने वापस आकर बातचीतषुरू की । कहा कि अब अक्सर चुनाव हो रहे हैं और जनमानस में चुनावी लहर व्याप्त…

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Added by indravidyavachaspatitiwari on February 21, 2016 at 1:43pm — 1 Comment

''तुझको तेरी नज़रों में गिराने की है कोशिश !''

दिल को आज पत्थर बनाने की है कोशिश !

ज़ज़्बात आज मेरे दबाने की है कोशिश !

.........................................

इल्ज़ाम नहीं तुझ पर तू सख्त दिल ही था ,

नरमाई मेरे दिल की मिटाने की है कोशिश !

........................................................

दरियादिली से मेरी उसको है शिकायत ,

आँखों में आंसू मेरे लाने की है कोशिश !

........................................................

हैं ज़ख्म दिए गहरे लफ़्ज़ों की कटारों से ,

दामन पे मेरे दाग लगाने… Continue

Added by shikha kaushik on February 21, 2016 at 12:33pm — 4 Comments

सूरज के तेवर (लघुकथा) [छंदोत्सव-58 चित्र से प्रेरित] /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

अपने दोस्त पेन्टर हबीब की नई पेन्टिंग को अरशद भाई बड़े ग़ौर से देख रहे थे। लाल, धूसर और काले रंगों से बनी पेन्टिंग में नदी के तट पर चिता तैयार करते युवक को और लकड़ियों से सजायी जा रही चिता को स्याह काले रंग से चित्रित किया गया था। लेकिन यह समझ नहीं आ रहा था कि सुरमई से दिख रहे आसमान में लालिमा सी फैलाता सूरज भोर के समय का है या सूर्यास्त के वक़्त का !



"कहाँ उलझ गए अरशद भाई, पेन्टिंग नहीं आयी समझ में?"



"समझ तो गया हूँ, बस यह बता दो हबीब भाई कि यह सूर्योदय का चित्रण है या… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 21, 2016 at 12:02pm — 4 Comments

सवैया - ऋतुराज....

आठ भगण पर आधारित सवैया...किरीट सवैया कहलाती है.

-१-

पावन हैं ऋतुराज समाजिक,  मान सुज्ञान विधान प्रतिष्ठित.

पर्वत दृश्य समीर नदी रस,  धार सुप्रीति समान प्रतिष्ठित.

काम कमान लिये फिरता,  रति संग रखे हर बाण प्रतिष्ठित.

शंकर भस्म करे पल में,  वर काम अनंग प्रधान प्रतिष्ठित.

-२-

गंग तरंग उमंग लिये नव प्राण धरा रस से कर सिंचित.

पाप विकार अनिष्ट गरिष्ठ समेट बही यश से कर सिंचित.

शुद्ध प्रबुद्ध प्रणाम करे…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 21, 2016 at 5:13am — 2 Comments

प्रेम कहानी

         प्रेम कहानी

मेरी भी है प्रेम कहानी,जिसमे राजा और है रानी|

मिल कर खोला दिल का राज ,नदी किनारे की है बात|

कहा तुम्हारा साथ चाहिए ,प्यार भरे ज़ज्बात चाहिए|

दिल की बाते देना बोल ,नीम नहीं मिश्री के घोल|

मृग नैनी सु अधरों वाली ,तेरे बिना मै खाली खाली|

मेरी भी है प्रेम  कहानी ,जिसमे राजा और है रानी|

लड़की का जवाब

यही बात तो सब है कहते ,साथ हमारे कभी न रहते\

कभी यहाँ है कभी वहाँ है ,रब ही जाने कहा कहा है|

कभी है राधा कभी…

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Added by Pankaj sagar on February 20, 2016 at 4:00pm — 1 Comment

शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा (ग़ज़ल)

212  212  212  212

शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा

शह्र में हर कोई भागता-सा लगा

अक्स उसने दिखाया मेरा हू-ब-हू

आज कोई मुझे आइना-सा लगा

यूं मुझे ज़ीस्त के तज़्रिबे थे कई

तज़्रिबा इश्क़ का पर नया-सा लगा

क़ामयाबी मुक़द्दर के हाथ आ गई

कोशिशों से कोई ढूंढता-सा लगा

त्यौरियां हुक्मरानों की चढ़ने लगीं

जब भी आम-आदमी खुश ज़रा-सा लगा

जिस्म-ओ-जां एक कब के हुए…

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Added by जयनित कुमार मेहता on February 19, 2016 at 8:59pm — 13 Comments

तमाचा : लघुकथा : हरि प्रकाश दुबे

सर्द सुबह में गुनगुनी धूप आज विधायक ‘बाबू राम’ के सरकारी बंगले पर मेहरबान थी, ‘बाबू राम’ जी, जो अब मंत्री भी बन चुके थे अपने सफ़ेद कुरते, पायजामे के साथ नीली जैकेट पहन, इत्र छिड़क कर अपने आप को शीशे में निहार-निहार कर आत्ममुग्ध हुए जा रहे थे तभी उनके नौकर ‘हरिया’ ने आवाज़ लगाई, “साहब ! साहब ! नाश्ता तैयार है।”

 

“अच्छा तो बाहर गार्डन में लगा दे और सुन ! जरा अखबार भी लेते आना, देखें क्या खबर है आज अपनी।”

 

जी सरकार, ...कहकर ‘हरिया’ चला गया और मंत्री महोदय बाहर…

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Added by Hari Prakash Dubey on February 19, 2016 at 4:09pm — 6 Comments

शक्ति छ्न्द, मुक्तक (धरती)

(१) शक्ति छ्न्द=== इस छ्न्द मे १, ६, ११ , एवम् १६ लघु होता है /

=========================================

मापनी १२२ १२२ १२२ १२



ज़मीं पे सितारे थिरकने लगे /

मनो भाव बन कर मचलने लगे /

लिखे राज मुक्तक मगन मन सुधा/

सुमन गीत बनकर महकने लगे //

=============================

(२)मापनी= १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

लगाओ पेड़ धरती पर     करो खुशहाल अब धरती /

बिछाओ फूल चुन चुन कर  यही घर घर खुशी भरती/

घटाएँ भी बहर बन के       करें…

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Added by राजकिशोर मिश्र 'राज' प्रतापगढ़ी on February 19, 2016 at 2:30pm — 3 Comments

जिन्न(लघुकथा )राहिला

गृहस्थी का काम मिनट -मिनट को पकड़ कर पूरा किये जा रही थी । सारा दिन चकरघिन्नी बनने के बावजूद किसी ना किसी के कोप का भाजन बन ही जाती । मुझे समझ नहीं आता आखिर किस ने ये दुनियादारी के नियम बनाये और किस ने सारे काम का बंटवारा इतने अन्यायपूर्ण ढंग से किया।हाथ पर हाथ धरे सुविधाओं का रसपान करने वाले घर के लगभग सभी सदस्यों के पास "आका "वरदान था और मैं? मैं किसी घटिया सी कहानी के उस जिन्न की तरह थी जो अपने आका के हुकुम पूरा करने में लगा रहता।मैं अकेली थी, तो बहुत दुःखी थी लेकिन तब तक, जब तक कि मैंने… Continue

Added by Rahila on February 19, 2016 at 12:43pm — 19 Comments

गजल(मनन)

2122 2122 212

बादलों ने दे लिया धरना जरा

रोशनी होगी अभी रूकना जरा।1

चीड़ती लाली घटा को देख तो

है खड़ा कबसेअभी झुकना जरा।2

बात नजरों से मुकममिल हो रही

बंद ही मुख आज बस रखना जरा।3

होंठ देते हैं गवाही मौन की

आँकने का सुख अभी चखना जरा।4

है वजह कुछ बात बनने की अभी

बोलती बुत है कभी कहना जरा।5

वह शिखर से है उतरती भी कभी

बस कहूँ अपनी जगह उठना जरा।6

छिप गयी जो रोशनी तो क्या हुआ

फिर हँसेगी मत अभी रूठना जरा।7

भर रहा रस है कली में बस… Continue

Added by Manan Kumar singh on February 19, 2016 at 12:00pm — 8 Comments

चाणक्य को सज़ा है

नन्द की सभा है

चाणक्य को सज़ा है

बाकी सब ठीक है ......

...

कान्हा जेलों में हैं

कंस मेलों में हैं

बाकी सब ठीक है ........

ताज बहरा है

राज़ गहरा है

बाकी सब ठीक है...........

अखबार झूठी है

तराज़ू देवी रूठी है

बाकी सब ठीक…

Continue

Added by amita tiwari on February 18, 2016 at 10:53pm — 4 Comments

ग़ज़ल ( क्या ज़रूरत थी मुस्कराने की )

ग़ज़ल ( क्या ज़रूरत थी मुस्कराने की )

-----------------------------------------------

2122 ------1212 ------22

फ़ितरते बर्क़ है जलाने  की /

ख़ैर क्या मांगें  आशियाने की /

जाँ अगर लेनी थी बता देते

क्या ज़रूरत थी मुस्कराने की /

उनकी आदत है जुल पे जुल देना

और अपनी फ़रेब   खाने की /

छिन गई नींद लुट गया है सुकूं

ये सज़ा पायी दिल लगाने की /

पास जाके  भी देखते कैसे

उनकी आदत है मुंह…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on February 18, 2016 at 10:02pm — 12 Comments

ज़रूरतें,अपनी-अपनी(लघुकथा)

शूटिंग की तैयारी थी।सेट लग चुका था, बस निर्देशक महोदय के आने की प्रतीक्षा थी। उनके आते ही सब सचेत हो उठे।

“सब रेडी है?”आते ही अपने असिस्टेंट से पूछा।

“जी सर!” उसने मुस्तैदी से उत्तर दिया।

“एक बार सीन ब्रीफ करो।”

“जी, सीन है, माँ-बाप का लाड़ला बेटा रूठ गया है, तो माता पिता तरह-तरह की खाने पीने की चीज़े लाकर उसको मना रहे हैं और बच्चा गुस्से में फेंक रहा है।”

“और वो बाल कलाकार उसका क्या हुआ? अस्पताल से छुट्टी मिल गई ?”

“नहीं सर,पर दूसरे बच्चे का इंतजाम कर लिया है, यहीं… Continue

Added by Seema Singh on February 18, 2016 at 8:39pm — 6 Comments

औपचारिक्ता की दरकार

औपचारिक्ता की दरकार "

" पागलों की तरह भागते हुए लेक्चरर शिल्पी ने कॉलेज में आये उस नवयुवक को आलिंगन में यूँ जकड़ लिया जैसे वह भाग ना पाये।यह बात पुरे कालेज में जंगल में आग की तरह फैल गयी।जितने मुँह उतनी बातें और उतने ही लांछन!

अपने ऊपर लगते लांछनों ने उसे भीतर तक तोड़ दिया और आज तो उनकी पराकाष्ठा हो गयी थी ।लेकिन कभी-भी हार ना मानने वाली शिल्पी सभ्य सहयोगियों से दो-चार हो ली।



" मैं क्यों बदचलन आवारा हूँ कोई बताएगा मुझे ? क्योकि मैं सबसे हँसकर बात करती हूँ? क्योकि मैंने… Continue

Added by Archana Tripathi on February 18, 2016 at 3:34pm — 8 Comments

मोह के धागे / कहानी / कान्ता राॅय

घर से बहुत दूर निकल आई थी । जाने क्या उद्वेग था कि छोड़ आई पल भर में सब कुछ । पिछले कई सालों से मन बडा उद्विग्न था । जतन करके संभाल रखा  था  लेकिन बाढ़ का पानी ,  सुनता है क्या कभी किसी घाट या  तटबंध को ! सो वेग ना सम्भल सकी , टूट गई । आते वक्त , घर से चार कदम दूर ही निकली थी कि आॅटो मिल गया ।

ऐसा लगा जैसे वह मेरा इंतज़ार ही कर रहा था ।



" स्टेशन चलोगे ? "



" बैठिये "



" कितना लोगे ? "



" १६० रूपये "



" क्या ,मीटर से नहीं चलोगे ?… Continue

Added by kanta roy on February 18, 2016 at 12:55pm — 17 Comments

मेरे महबूब के आमद का जलवा

बहर 1222/1222/1222/1222



मेरे महबूब की आमद का जलवा खूब सूरत है//

जहाँ में रंग है जितने वो उतना खूब सूरत है//



मजे की बात है यारों कोई तारा नही वैसा/

फलक पर आज का महताब जितना खूब सूरत है/1/



चलो अब चाँद तुम अपनी मुहब्बत की सुनाओ कुछ/

सुना है चादनी मांझी का रिश्ता खूब सूरत है /2/



कोई हिंदी में लिखता है , कोई उर्दू में लिखता है/

लिखा जो भी गया है वो तराना खूब सूरत है/3/





कभी तुमसे गिरा था जो बरेली की बजारोमे /

तेरी… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on February 18, 2016 at 9:36am — 3 Comments

भीड़ में दुनिया के हम भी खो गए (ग़ज़ल)

2122 2122 212



भीड़ में दुनिया के हम भी खो गए

ख़ुद से जैसे अजनबी-से हो गए



ज़ख़्म-ए-दिल में थे तेरे बाकी निशां

अश्कों के सैलाब वो भी धो गए



आदमीयत होश में आने लगी

आदमी जब शह्र के सब सो गए



काटता हूँ फ़स्ल अम्न-ओ-चैन की

जो कभी पुरखे थे मेरे बो गए



आसमां ने सुन ली मेरी दास्तान

मेघ भी आके दो आंसू रो गए



लौटकर आए नहीं हैं आजतक

इस नगर से उस नगर तक जो गए

========================



जयनित कुमार… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 17, 2016 at 9:35pm — 8 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
ग़ज़ल प्रयास 6......डॉ. प्राची

2122 1212 22/112

फाइलातुन मुफ़ाइलुन फैलुन



वो जुनूँ है वो दिल की राहत है

हर घड़ी वो मेरी ज़रूरत है



इश्क ही कलमा इश्क ही रोज़ा

इश्क ही अब मेरी इबादत है



ज़र्रे-ज़र्रे में है महक उसकी

उसने हरसू बिखेरी जन्नत है



अब्र बन कर कभी तो बरसे वो

तर-बतर कर दे बस ये चाहत है



उसको पढ़ती हूँ बंद आँखों से

मन के मंदिर में उसकी मूरत है



वो ही दिखता मुझे जहाँ देखूँ

ये करिश्मा है या मुहब्बत है



वो शहंशाह है फकीरी… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 17, 2016 at 12:27pm — 4 Comments

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