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दो हमशक्ल ग़ज़लें

एक बह्र ---दो हमशक़्ल ग़ज़ल

2122--2122--212

रस्म-ए-उल्फ़त है य' ऐसा कीजिए

रात-दिन उसको ही चाहा कीजिए

बदनसीबी का तमाशा कीजिए

आज फिर उसकी तमन्ना कीजिए

यूँ न हरदम मुस्कुराया कीजिए

जब सताए ग़म तो रोया कीजिए

ख़ुद को मसरूफ़ी दिखाया कीजिए

जब कभी बेकार बैठा कीजिए

अच्छा तो 'खुरशीद' जी हैं आप ही

आइए साहब उजाला कीजिए

©खुरशीद खैराड़ी जोधपुर । 9413408422



2122--2122--212

आइने में ख़ुद को देखा कीजिए

फिर…

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Added by khursheed khairadi on March 6, 2019 at 8:24pm — 1 Comment

कोई उम्मीद का सूरज कहीं पर है खड़ा सायद

1222-1222-1222-1222

जो नजरें अब तलक बेख़ौफ़ दौड़ी जा रहीं हैं यूँ।।

कई आशाएं तपती रेत को खंघला रहीं हैं यूँ।।

कोई उम्मीद का सूरज , कहीं पर है खड़ा सायद।

पहल की किरने ये पैग़ाम लेकर आ रहीं हैं यूँ।।

ये सन्नाटा जो पसरा चीख़ के कुछ अंश बांकी हैं।

दिशाएँ इंतक़ाम-ए-जंग को दुहरा रहीं हैं यूँ।।

विषमता में खड़ी हो लोकधर्मी जंग लड़कर अब।

रिसाल ए रौशनाई हौसले उमड़ा रहीं हैं यूँ।।

कोई तो लिख रहा बेशक नया भारत किताबों में।…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on March 6, 2019 at 7:39pm — 1 Comment

यह खबर इज़्तिराब की सी है

2122 1212 22



यह ख़बर इज़्तिराब की सी है ।

बात जब इंकलाब की सी है ।।

वह बगावत पे आज उतरेगा ।

उसकी आदत नवाब की सी है ।।

हम सफ़र ढूढना बहुत मुश्किल ।

सोच जब इंतखाब की सी है ।।

देखकर जिसको बेख़ुदी में हूँ ।

उसकी फ़ितरत शराब की सी है ।।

आ रहे रात में सनम शायद ।

रोशनी आफ़ताब की सी है ।।

रोज पढ़ता हूँ उसको शिद्द्त से ।

वो जो मेरी किताब की सी है…

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Added by Naveen Mani Tripathi on March 6, 2019 at 6:55pm — No Comments

एक ग़ज़ल रुबाइ की बह्र में

मफ़ऊल मफ़ाईल मफ़ाईल फ़अल

221     1221   1221    12

पाना जो शिखर हो तो मेरे साथ चलो

ये अज़्म अगर हो तो मेरे साथ चलो

दीवार के उस पार भी जो देख सके

वो तेज़ नज़र हो तो मेरे साथ चलो

होती है ग़रीबों की वहाँ दाद रसी

तुम ख़ाक बसर हो तो मेरे साथ चलो

पत्थर पे खिलाना है वहाँ हमको कँवल

आता ये हुनर हो तो मेरे साथ चलो

हर शख़्स वहाँ कड़वा…

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Added by Samar kabeer on March 6, 2019 at 5:55pm — 27 Comments

क्यूँ जाने लोग कुछ अपने ही जल गए---ग़ज़ल

1212 1222 1212

हमारे वार से जब अरि दहल गए
क्यूँ जाने लोग कुछ अपने ही जल गए

ख़बर ख़बीस के मरने की क्या मिली
वतन में कईयों के आँसू निकल गए

वो बिलबिला उठे हैं जाने क्यूँ भला
जो लोग देश को वर्षों हैं छल गए

नसीब-ए-मुल्क़ पे उँगली उठाए हैं
सुकून देश का जो खुद निगल गए

मिलेगा दण्ड ए दुश्मन ज़रु'र
वो और ही थे, जो तुझ पर पिघल गए

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 5, 2019 at 4:30pm — 2 Comments

मिला न जो हिज़्र इश्क़ में तो कहाँ मुक़म्मल हुई मुहब्बत (३५)

मिला न जो हिज़्र इश्क़ में तो कहाँ मुक़म्मल हुई मुहब्बत 

डरे फ़िराक़-ओ-ग़मों से उसको न इश्क़ फरमाने की ज़रूरत 

**

सफ़र मुहब्बत की मंजिलों का हुज़ूर होता कभी न आसाँ 

यहाँ न साहिल का कुछ पता है न तय सफ़र की है कोई मुद्दत

**

न जाने कितने हैं इम्तिहाँ और क़दम क़दम पर बिछे हैं कांटे 

रह-ए-मुहब्बत पे है जो चलना तो दिल में रक्खें ज़रा सी हिम्मत 

**

रक़ीब गर मिल गया कोई तो बढ़ेंगी…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 5, 2019 at 10:30am — 4 Comments

परिचय [लघु कथा ]

परिचय

मेला प्रांगण में आयोजित बारहवाँ साहित्य सम्मेलन में देशभर के साहित्यकारों का जमावड़ा लगा हुआ था,जिसमें माननीय राज्यपाल के करकमलों से पुस्तक का विमोचन किया जाना था.

आगंतुकों में शहर के प्रतिष्ठित,मनोहर बाबू भी विशिष्ठजन की पंक्ति मंं विराजमान थे.शीघ्र ही मंच पर राज्यपाल की उपस्थित से सन्नाटा खिंच गया.औपचारिकताओं के पश्चात,जिस लेखक की किताब ‘मेरा परिचय’का अनुमोदन किया जाना था,उसे संबोधित कर मंच पर आने का आग्रह किया गया.तो सभी की उत्सुकता में एकटक निगाहें मंचासीन होने वाले के…

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Added by babitagupta on March 4, 2019 at 10:45pm — 7 Comments

ग़ज़ल (जो वाकिफ़ ही नहीं नामे वफ़ा से)

ग़ज़ल (जो वाकिफ़ ही नहीं नामे वफ़ा से)

(मफाई लुन _मफाई लुन _फ ऊलन)

जो वाकिफ़ ही नहीं नामे वफ़ा सेl

लगा बैठा हूँ दिल उस दिलरुबा से l

वो बिन मांगे ही मुझको मिल गए हैं

करूँ कोई दुआ अब क्या ख़ुदा से l

झुका मुंसिफ़ भी ज़र के आगे वर्ना

बरी होता नहीं क़ातिल सज़ा से l

परायों का करूँ मैं कैसे शिकवा

मुझे लूटा है अपनों ने दगा से l

ये है फिरक़ा परस्तों की ही साज़िश

बुझा कब दीप उलफत का हवा से…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on March 4, 2019 at 7:49pm — 8 Comments

-कह मुकरिंयाँ -

महाशिवरात्रि की शुभकामनाओं सहित कुछ

- कह मुकरिंयाँ-

---------------------

1-

उसे कहें सब औघड़दानी,

फिर भी मैं उसकी दीवानी,

बड़ा निराला उसका वेश,

क्या सखि साजन? नहीं महेश !!

2-

खाता है वह भाँग धतूरा,

फक्कड़नाथ लगे वह पूरा,

पर मेरा मन उस पर डोले,

क्या सखि साजन ? ना बम भोले !!

3-

लोग कहें वह पीता भंग,

मुझ पर चढ़ा उसी का रंग,

मेरा मन उस पर ही डोले,

क्या सखि साजन ? ना बम भोले !!

4-

भस्म रमाता वह …

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Added by Hariom Shrivastava on March 4, 2019 at 2:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल



2122 1212 22

खूब सूरत गुनाह कर बैठे ।

हुस्न पर हम निगाह कर बैठे ।।

आप गुजरे गली से जब उनके ।

सारी बस्ती तबाह कर बैठे ।।

कुछ असर हो गया जमाने का ।

ज़ुल्फ़ वो भी सियाह कर बैठे ।।

देख कर जो गए थे गुलशन को ।

आज फूलों की चाह कर बैठे ।।

जख्म दिल का अभी हरा है क्या ।

आप फिर क्यों कराह कर बैठे ।।

किस तरह से जलाएं मेरा घर ।

लोग मुझसे सलाह कर बैठे ।।

लोग नफरत की इस सियासत…

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Added by Naveen Mani Tripathi on March 4, 2019 at 1:00pm — 11 Comments

अहसास होगा याद अगर करते हैं

2212-22-1122-22

अहसास होगा याद अगर करते हैं।।

आती है क्यूँ चाहत, के क्यूँ घर करते हैं।।

इस आस से की कल कुछ अच्छा होगा।

हम लोग इक दिन और सफर करते हैं।।

मैंने भी अक्सर नाम लिये बिन लिख्खा।

जज्बात ए दिल बेनाम सफर करते हैं।।

ये आपकी आहट ही कुरेदेगी घर को।

जो छोड़ जाना आप नज़र करतें हैं।।(पेश करना)…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on March 4, 2019 at 12:30pm — 4 Comments

हम मानेंगे बात जो हमको प्यारी है- ग़ज़ल

22 22 22 22 22 2

नमक मसाले से बनती तरकारी है

सच मानों यह असली दुनियादारी है।

देख सलीका नकली बातें करने का

असली पर ही पड़ जाता कुछ भारी है।

छेदों से ही जिसकी है औक़ात यहाँ

छलनी ही समझाती, क्या खुद्दारी है?

होते हों कितने भी पहलू बातों के

हम समझेंगे जितनी अक्ल हमारी है।

तुम मानों जो तुमको अच्छा है लगता

हम मानेंगे बात जो हमको प्यारी है ।

आज लबादे में लिपटे अल्फ़ाज़ सभी

जिनको सुनना जनता की…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 4, 2019 at 9:00am — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गीत- मिथिलेश वामनकर

न गुनगुनाना न बोल पड़ना,

अभी अधर पर सघन हैं पहरे।



अगर तिमिर को सुबह कहोगे

तभी सुरक्षित सदा रहोगे

अभी व्यथा को व्यथा न कहना

कथा कहो या कि मौन रहना

न बात कहना निशब्द रहना

सुकर्ण सारे हुए हैं बहरे।

न तार छेड़ो सितार के तुम

बनो न भागी विचार के तुम

हवा बहे जिस दिशा बहो तुम

स्वतंत्र मन को विदा कहो तुम।

यही समय की पुकार सुन लो

सवाल सारे दबा दो गहरे।

मशाल रखना गुनाह घोषित

वहाँ करें कौन दीप पोषित।

प्रकाश की हर…

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Added by मिथिलेश वामनकर on March 4, 2019 at 3:50am — 13 Comments

मीडिया भारत का या तो वायरस इक बन गया---ग़ज़ल

2122 2122 2122 212

मीडिया भारत का या तो वायरस यक बन गया

दीमकों के साथ मिलकर या के दीमक बन गया

मीडिया का काम था जनता की ख़ातिर वो लड़े

किन्तु वो सत्ता के उद्देश्यों का पोषक बन गया

दोस्तों टी वी समाचारों का चैनल त्यागिए

क्योंकि उनके वास्ते हर दर्द नाटक बन गया

क्या दिखाना है, नहीं क्या क्या दिखाना चाहिए

कुछ न, जाने मीडिया, सो अब ये घातक बन गया

ज़ह्र भर कर शब्द में, वो वार जिह्वा से…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 3, 2019 at 10:00pm — 9 Comments

"क़तरा-क़तरा मेरा-तेरा!" (लघुकथा) :

अपने दिल के टुकड़े को अपने सीने से अचानक चिपटे देख उसने कहा -"स्वागत-अभिनंदन, ख़ैर-मक़्दम बहादुर, मेरे लख़्ते-जिगर!"

अपने ही भू-खंड पर पैराशूट समेत गिरा जवां पायलट सैनिक पहले तो भौंचक्का था, इस भ्रम में कि यह भू-खंड उसका अपना वाला है या पड़ोसी मुल्क द्वारा हथियाया हुआ! फ़िर जब उसने कुछ युवकों से पुष्टि करनी चाही, तो उनके जवाब सुन वह  चौकन्ना हो गया। उसके ज़ख़्मी मुख से देशभक्ति के नारे समां में गूंज उठे।

"अभिनंदन मेरे अज़ीज़ शेर-ए-हिंद!" एक अजीब सी क़ैद से रिहा…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 3, 2019 at 8:11pm — 6 Comments

खिजाँ ने गुलशनों में दर्द यूँ बिखेरे हैं (३४ )

खिजाँ ने गुलशनों में दर्द यूँ बिखेरे हैं 

चमन के बागबाँ के बच्चे आज भूखे हैं 

**

बहार तुझ पे है दारोमदार अब सारा 

कि फूल कितने चमन में ख़ुशी के खिलते हैं 

**

अजीब शय है तरक़्क़ी भी लोग जिस के लिए 

ज़मीर बेच के ईमान बेच देते हैं 

**

क़ुबूल कर ली खुदा ने हर इक दुआ जब भी 

दुआ में ग़ैर की खातिर ये हाथ उट्ठे…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 3, 2019 at 7:30pm — 4 Comments

तपस्या [लघु कथा ]

तपस्या     

राशि  को एकटक सास-श्वसुर की फोटो देख,रोमिल के झकझोरने पर,सपने से जागी,कहने लगी,‘मेरी तपस्या पूरी हुई.’

'मुझे पाकर,अब कौन-सी तपस्या?'प्रश्नभरी निगाहों से,देखकर बोला.

झेप गई,,फिर संभलते हुए बोली,'हां,लेकिन मम्मी-पापा की बहू,दिल से अपनाने की तपस्या.' 

सुनकर,खुशी में,हाथ पकड़कर बोला,'पर,तुम्हें.... कैसे..........?'

चेहरे पर बनते-बिगड़ते भावों से,लगा,जैसे उसे स्वर्ग मिल गया,‘आज तड़के सुबह,फोन पर मम्मी ने पहली बार बात…

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Added by babitagupta on March 3, 2019 at 4:51pm — 8 Comments

ज़माने के आशियाने (लघुकथा) :

 मिर्ज़ा मासाब को रिटायर होने में आठ-दस साल ही बाक़ी थे। परिवार के प्रति सारे फ़र्ज़ अदा कर चुके थे । एक बढ़िया सा मकान हो जाये और हज अदा हो जाये; बस यही आरजू रह गई थी। पैसों का इंतज़ाम तो हो गया। अब इस सदी में मुल्क के ऐसे हालात में इस बस्ती का पुराना घर बेचकर नये ज़माने का मकान कब, कहां व कैसे बनवाएं या बना बनाया ख़रीदें; बस यही उनके दिमाग़ में था। इसी सिलसिले में एक चर्चित सोसाइटी में वे अज़ीज़ दोस्त महफ़ूज़ का फ्लैट देखने पहुंचे। मुआयना किया। जानकरियां जमा कीं। सकारात्मक व नकारात्मक…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 3, 2019 at 2:30pm — 4 Comments

साँझ होते  माँ  चौबारे  पर  जलाती  थी दीया -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'(गजल )

२१२२/२१२२/२१२२/२१२



मखमली  वो  फूल  नाज़ुक  पत्तियाँ  दिखती  नहीं

आजकल खिड़की पे लोगों तितलियाँ दिखती नहीं।१।



साँझ होते  माँ  चौबारे  पर  जलाती  थी दीया

तीज त्योहारों पे भी  वो बातियाँ दिखती नहीं।२।



कह  तो  देते  हैं  सभी  वो  बेचती  है  देह  पर

क्यों किसी को अनकही मजबूरियाँ दिखती नहीं।३।



अब तो काँटों  पर  जवानी  का  दिखे  है ताब पर

रुख पे कलियों के चमन में शोखियाँ…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 2, 2019 at 7:41pm — 7 Comments

फ्रोज़न माइंड ( लघुकथा)

अस्पताल में एक रूम में बैठी हुई थी। तभी एक नर्स दौड़ती हुई आई और कहने लगी, " मिस्टर सुदर्शन के साथ कौन है?"

काव्या के कान चौकन्ने हो गए, उसने उस नर्स से कहा," जी मैं हूँ। क्या बात है सिस्टर?"

"आई.सी.यू. में आपको तुरंत बुलाया है...।

नर्स की बात पूरी भी नही हुई और काव्या चीते की गति से उस ओर दौड़ पड़ी।

आई.सी. यू. का दरवाजा खोलते ही उसने कमरे में चारों तरफ नज़र घुमाई, उसके पिताजी पिछले एक माह से कोमा में थे, डॉक्टरों ने फिर भी उम्मीद नही छोड़ी थी। उसने डॉक्टर की तरफ देखते हुए पूछा,"… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on March 1, 2019 at 8:14pm — 6 Comments

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