Added by Kumar Gourav on April 21, 2018 at 9:15pm — 9 Comments
22 22 22 22
अपना घाव छुपा के रखना
मन को भी समझा के रखना।1
ऊपर ऊपर जैसा भी हो
अंदर आग जला के रखना।2
और उजाला करना होगा
थोड़ा तेल बचा के रखना।3
तीर चलेंगे जाने कितने
देखो ढ़ाल बढ़ा के रखना।4
कौन सुनेगा बातें ढ़ब की
बाण-धनुष चमका के रखना।5
मंजिल कोई दूर नहीं है
ख्वाहिश को उमगा के रखना।6
रात अँधेरी,चंदा संगी,
रुनझुन बीन बजा के…
Added by Manan Kumar singh on April 21, 2018 at 7:30pm — 10 Comments
122 122 122 122
युगों तक जगत में वही जी सका है
हृदय अपना जिसने समंदर किया है
हक़ीक़त से नज़रें हटाने से यारो
कभी झूठ भी क्या कहीं सच हुआ है?
कहाँ रात के मानकों से हो चिपके
उजाले का वाहक तो सूरज रहा है
गरल एकता के लिए पीना होगा
सिखाती सभी को परम शिव कथा है
'सुनो आइनो तुम भी पढ़ लो सुकूँ से
कि 'पंकज' ने सब सामने रख दिया है' (आदरणीय बाऊजी समर कबीर द्वारा…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 21, 2018 at 3:00pm — 15 Comments
"लोकतंत्र ख़तरे में है!
कहां
इस राष्ट्र में
या
उस मुल्क में!
या
उन सभी देशों में
जहां वह किसी तरह है!
या जो कि
कठपुतली बन गया है
तथाकथित विकसितों के मायाजाल में,
तकनीकी, वैज्ञानिकी विकास में! या
ब्लैकमेलिंग- व्यवसाय में!
धरातल, स्तंभों से दूर हो कर
खो सा गया है
कहीं आसमान में!
दिवास्वप्नों की आंधियों में,
अजीबोग़रीब अनुसंधानों में!
"इंसानियत ख़तरे में है!
कहां
इस मुल्क में
या
उस राष्ट्र…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 21, 2018 at 2:35pm — 14 Comments
सुर्ख अंगारे से चटक सिंदूरी रंग का होते हुए भी मेरे मन में एक टीस हैं.पर्ण विहीन ढूढ़ वृक्षों पर मखमली फूल खिले स्वर्णिम आभा से, मैं इठलाया,पर न मुझ पर भौरे मंडराये और न तितली.आकर्षक होने पर भी न गुलाब से खिलकर उपवन को शोभायमान किया.मुझे न तो गुलदस्ते में सजाया गया और न ही माला में गूँथकर देवहार बनाया गया.हरित विहीन वन में मेरे बासंती फूल जंगल के सूनेपन को बांटता.प्रज्ज्वलित पुष्प धरा को ,नभ को रंगीन बनाते.धरा पर बिछे सूखे,पीले पत्तों पर मेरी मखमली,चटकती कलिया अपनी भावनाओं को…
ContinueAdded by babitagupta on April 21, 2018 at 1:51pm — 2 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
.
ज़ाहिदो! रूतबा इबादत-गाहों का अपनी जगह
पर सुकूँ की राह में है मैकदा अपनी जगह.
.
इश्क़ में मजबूरियों को बेवफ़ाई क्यूँ कहें
चाहना अपनी जगह था भूलना अपनी जगह.
.
सादा-दिल होने के दुनिया में कई नुक्सान हैं
पर किसी के काम आने का मज़ा अपनी जगह.
.
आपने जब दिल लगाया ही नहीं, समझेंगे क्या?
जीतना हो शौक़ कोई, हारना अपनी जगह.
.
इम्तिहाँ कब “नूर” का है इम्तिहाँ आँधी का है
रात भर जलता रहेगा यह दीया…
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 21, 2018 at 12:30pm — 11 Comments
गुहार - लघुकथा –
मंत्री जी की गाड़ी जैसे ही बँगले से बाहर निकली, एक जवान औरत हाथ में खून से सनी दरांती और गोद में छोटी बच्ची लिये गाड़ी के आगे आकर खड़ी होगयी। ड्राइवर ने बताया कि वह सुबह से आपसे मिलने की ज़िद कर रही थी। दरबान ने नहीं आने दिया।
"क्या हुआ बेटी। यह क्या हालत बना रखी है"?
"साहब मैं एक फ़ौज़ी की विधवा हूं। मेरा ससुर और देवर मेरी ज़मीन और मेरे शरीर के लिये मुझे परेशान करते हैं”|
"तुम थाने क्यों नहीं गयी। वहाँ जाकर रिपोर्ट लिखाओ"?
"गयी थी साहब।…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on April 21, 2018 at 11:42am — 10 Comments
निष्कलंक कृति .....
अवरुद्ध था
हर रास्ता
जीवन तटों पर
शून्यता से लिपटी
मृत मानवीय संवेदनाओं की
क्षत-विक्षत लाशों को लांघ कर
इंसानी दरिंदों के
वहशी नाखूनों से नोची गयी
अबोध बच्चियों की चीखों से
साक्षात्कार करने का
रक्त रंजित कर दिए थे
वासना की नदी ने
अबोध किलकारियों को दुलारने वाले
पावन रिश्तों के किनारे
किंकर्तव्यमूढ़ थी
शुष्क नयन तटों से
रिश्तों की
टूटी किर्चियों की
चुभन…
Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 4:25pm — 8 Comments
क्षणिकाएं ....
१.
खेल रही थी
सूर्य रश्मियाँ
घास पर गिरी
ओस की बूंदों से
वो क्या जानें
ये ओस तो
आंसू हैं
वियोगी
चाँद के
....................
२.
जीवन
मिटने के बाद भी
ज़िंदा रहता है
स्मृति के गर्भ में
अवशेष बन
श्वासों का
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 12:16pm — 6 Comments
"सर ! बलात्कार का केस और ये नार्कोटेस्ट ..ये सीबीआई जाँच की खुद माँग करना !!!
ये तो ख़ुदकुशी करना हुआ ।"
शतरंज की बिसात पर अकेले बैठे खेल रहे मंत्री जी से मुँह लगे सेक्रेटरी ने चिंतित होकर कहा।
" सुरेश बाबू ! इतनी चिंता क्यों करते हो ? इससे तो आपका बीपी बढ़ जाएगा । शान्ति पकड़ो जरा । देखे नहीं का..., जनता की सवालिया चितावन को ? लेकिन हम जरा दम भरे नहीं , कि गेट के बाहर भीड़ छटी नही। "
"लेकिन...!!!
"अच्छा यह सब छोड़ो..., जरा यहाँ आओ और बताओ तो सरी इस पारी को कौन…
Added by Rahila on April 20, 2018 at 7:15am — 4 Comments
212 212 212 212 212 212
जानें क्या बात है आज कल, दर्द अपना छिपाने लगा
हाल उसका पता कीजिए, वो बहुत मुस्कुराने लगा
हम उसे बस यूँ ही चारागर, झूठे ही तो नहीं लिख दिए
एक बेजान से बुत में भी, वो जो धड़कन चलाने लगा
उसको पागल नहीं जो कहें, तो भला नाम क्या और दें
एक निर्जन नगर में कोई, स्वप्न के घर बसाने लगा
शुक्रिया आपका शुक्रिया है ये तोहफा बहुत कीमती
देखिए तो विरह का असर शेर मैं गुनगुनाने लगा
उम्र भर की ख़लिश…
ContinueAdded by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 20, 2018 at 12:00am — 14 Comments
क्यों अंजान रखा 'उन काले अक्षरों से'
तेरे लिए क्या बेटा, क्या बेटी,
तेरी ममता तो दोनों के लिए समान थी,
परिवार की गाडी चलाने वाली तू,
फिर, कैसे भेदभाव कर गई तू,
क्यों शाला की ओर बढते कदमों को रोका,
क्यों उन आडे टेढे मेढे अक्षरों से अंजान रखा,
कहीं पडा, किसी किताब का पन्ना मिल जाता,
तो, उसे उलट पुलट करती, एक पल निहारती,
हुलक होती, पढते लिखते हैं कैसे,
जिज्ञासा होती इन शब्दों को उकेरने की,
या फिर…
ContinueAdded by babitagupta on April 19, 2018 at 8:31pm — 2 Comments
रामप्रसाद जी की इकलौती बेटी की शादी थी । सुबह से गहमा-गहमी लगी हुयी थी । रामप्रसाद जी का सबके साथ इतना अच्छा व्यवहार था उनके अड़ोस-पड़ोस में रहने वाले भी इस विवाह को लेकर उतने ही उत्साहित थे जितने स्वयं रामप्रसाद जी । रामप्रसाद जी के बराबर वाले घर में रहने वाले मोहनलाल जी से कभी छोटी बातों को लेकर हुयी कहा-सुनी इतनी बढ़ गयी थी कि आपस में एक-दूसरे को देखना तो क्या नाम भी सुनना पसंद नहीं था । इस वजह से मोहनलाल जी को विवाह में शामिल होने का बुलावा भी नहीं भेजा था उन्होने । रामप्रसाद जी कि पत्नी…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on April 19, 2018 at 4:04pm — 12 Comments
(फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फाइलुन )
कीजियेगा हुस्न वालों से मुहब्बत देख कर|
हो गए बर्बाद कितने लोग सूरत देख कर |
यूँ नहीं उसकी बुझी आँखों में आई है चमक
वह रुखे दिलबर पे आया है मुसर्रत देख कर|
बागबां आख़िर सितम ढाने से बाज़ आ ही गया
यकबयक फूलों की गुलशन में बग़ावत देख कर |
देखता है कौन यारो आजकल किरदार को
लोग रिश्ता जोड़ते हैं सिर्फ़ दौलत देख कर |
बे वफ़ाई के सिवा इन से तो कुछ मिलता नहीं
आज़माना हुस्न की चौखट पे…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on April 19, 2018 at 1:30pm — 8 Comments
मुंतज़िर मुंतज़िर रहा
मूरत बनाई थी जो
मुस्सवर ख़्यालों में
अब तक वह पाक
हसीन खवाब ही रही
रातों अँधेरे में कभी
दिन के उजाले में भी
रोज़ आई मुस्तकिल:
हलकी-सी मुस्कराई
बिना सलाम चली गई
मैं डरता रहा थर-थर
तस्वीर की तकदीर…
ContinueAdded by vijay nikore on April 19, 2018 at 11:47am — 26 Comments
एकाकीपन
भटकती भीड़ है बाहर
भीतर पसर रहा
कपूर-सा उड़ता
आँसू-विहीन
अटूट अकेलापन
सांकल लगे बंद कमरे का
निर्जीव सुन्न…
ContinueAdded by vijay nikore on April 19, 2018 at 11:30am — 12 Comments
तब्दीले आबोहवा
न सवाल बदला, न जवाब बदला....
न मंज़र न मक़ाम बदला
कागज़ के उड़ते चिन्दे-सा हूँ मैं
उड़ा दिया हवा ने जब-कभी
उड़ा जिधर रुख हवा ने बदला
चाह कर भी न बदल सका
न खुद को न खुदाई को मैं
हाँ, कई बार क़िर्वात का
आदतन क़ुत्बनुमा बदला
गुज़रा जब भी तुम्हारी गली से
बेरहम बेरुखी के बावजूद भी
साँकल खटखटाई हरबार
न आई चाहे तुम दरवाज़े …
ContinueAdded by vijay nikore on April 19, 2018 at 11:30am — 18 Comments
(फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फ़ाइलातुन -फ़ाइलुन )
बन गया है आज का इंसान हैवां दोस्तो |
पाक औरत का रहेगा कैसे दामां दोस्तो |
पेश आया था कभी दिल्ली में जैसा वाक़्या |
हो गया कठुआ ,रसाना में भी वैसा हादसा |
जिसको सुन कर हो रहे हैं जानवर दुनिया के ख़्वार |
कर दिया इंसान ने इंसानियत को शर्म सार |
यह नहीं है ख़्वाब कोई है हक़ीक़त दोस्तो |
आसिफ़ा है वह लुटी है जिसकी इज़्ज़त दोस्तो |
उम्र उस मासूम की थी सिर्फ़ लोगों आठ साल |
मुफ़लिसी थी घर में लेकिन था नहीं कोई…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on April 18, 2018 at 10:00pm — 16 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
.
जो किताबों ने दिया वो फ़लसफ़ा अपनी जगह.
लोग जिस पर चल पड़े वो रास्ता अपनी जगह.
.
फिर लिपटकर रो सकूँ मैं ये दुआ अपनी जगह
लौट कर आए न तुम मैं भी रहा अपनी जगह.
.
हक़ बयानी का सभी को हौसला होता नहीं
संग हैं बेताब फिर भी आईना अपनी जगह.
.
छोड़ कर मुझ को तेरा क्या हाल है यह तो बता
तेरे पीछे हश्र मेरा जो हुआ अपनी जगह.
.
ये वो मंजिल तो नहीं है आज पहुँचे हैं जहाँ
गो तुम्हारे साथ चलने का मज़ा अपनी…
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 18, 2018 at 8:30pm — 19 Comments
“भेड़िया आया... भेड़िया आया...” पहाड़ी से स्वर गूंजने लगा। सुनते ही चौपाल पर ताश खेल रहे कुछ लोग हँसने लगे। उनमें से एक अपनी हँसी दबाते हुए बोला, “लो! सूरज सिर पर चढ़ा भी नहीं और आज फिर भेड़िया आ गया।“
दूसरा भी अपनी हँसी पर नियंत्रण कर गंभीर होते हुए बोला, “उस लड़के को शायद पहाड़ी पर डर लगता है, इसलिए हमें बुलाने के लिए अटकलें भिड़ाता है।“
तीसरे ने विचारणीय मुद्रा में कहा, “हो सकता है... दिन ही कितने हुए हैं उसे आये हुए। आया था तब…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 18, 2018 at 7:00pm — 10 Comments
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