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नदी और पखेरू

उड़ गए पखेरू  

अब उजाड़ वीराने में

खुद को बहलाती हूँ

सूख गया है नीर

फ़िर भी

नदी तो कहलाती हूँ।





लहरों की चंचलता

थिरकन, चपलता

अब भी है चस्पा

इस दमकती रेत पर

उन अवशेषों को देख

जी उठती हूँ।





कुछ स्वार्थी, समर्थ हाथ

बढ़ चले हैं रेत की ओर

देख रही हूँ, तड़प रही हूँ

मेरी स्मृतियों से

चिन रहे अपने मकान

और मैं निस्सहाय

देख रही हूँ लाचार

निशब्द, निष्‍प्राण।





कूल…

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Added by sushila shivran on June 23, 2013 at 11:22am — 13 Comments

बैठे-ठाले ~~

हेलीकाप्टर से उड़ान हुई ,

संवेदना उनकी महान हुई !



घूमे ,फिरे ,खेले ,खाए ,

किस कदर थकान हुई !



ये जो मौत के मंज़र देखे,

कुदरत है ,मेहरबान हुई…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 22, 2013 at 11:00pm — 9 Comments

व्यथा … !

व्यथा!

तुम

मन के किबाड़े

खोलना मत 

खोलना मत 

सौ तरह के 

व्यंग होगे 

धूल धूसर 

संग होंगे 

भाव कोई गैर 

अपनी 

भावना में 

घोलना मत 

घोलना मत 

व्यथा!

खुद से कहना 

खुद ही सहना 

तेरी

अंतर यातना 

पर किसी से 

बोलना मत 

बोलना मत 

व्यथा!  

गीतिका 'वेदिका'

मौलिक एवम अप्रकाशित  

Added by वेदिका on June 22, 2013 at 10:06pm — 32 Comments

बूँद बूँद से सागर भरता | विनय - अतुकांत |

आगे आओ हाथ बढाओ , साथी फँसे मुसीबत में |
बूँद  बूँद से सागर भरता , हाथ बँटाओ आफत में |  
एक चना भाड़ नहीं फोड़े , मदद चाहिए विपदा में |   
हर देशवाशी दें सहारा , आगे आयें…
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Added by Shyam Narain Verma on June 22, 2013 at 11:22am — 4 Comments

मैं नदी

मैं नदी –

पहाड़ों से उतरी,

उन्मुक्त बहती

कल कल करती मतवाली

मैं नदी -

गाँव खलिहानों से होती

बच्चों की किलकारियों सी,

खेतों में ठुमकती

मैं नदी -

सरदी की धूप,

षोडसी की चोटी सम लम्बी

लहराती इठलाती बलखाती

मैं नदी जो कभी थी.

2

समय का बदलता रूप -

हाइटेक का ज़माना,

तरक्की की चरमसीमा,

बलिदान स्वरूपा

मैं नदी अधुना.

झुलसती गरमी

बीच शहर,

कूड़े का ढेर

अछूत सी पड़ी,

मैं नदी…

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Added by coontee mukerji on June 22, 2013 at 3:05am — 15 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
पाँच दोहे.. // --सौरभ

तू  मुझमें  बहती  रही, लिये धरा-नभ-रंग

मैं    उन्मादी   मूढ़वत,   रहा  ढूँढता  संग



सहज हुआ अद्वैत पल,  लहर  पाट  आबद्ध

एकाकीपन साँझ का, नभ-तन-घन पर मुग्ध



होंठ पुलक जब छू रहे,   रतनारे  …

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Added by Saurabh Pandey on June 22, 2013 at 2:00am — 51 Comments

एक नवगीत ~~

एक निर्झर नदी सी बहो 

खिलखिलाती हुई कुछ कहो 

फासले अब नहीं दरमियां 

आंच है,उम्र है,गरमियां

अब तो सम्बन्ध हैं इस तरह 

जैसे हों झील में मछलियां 



थाम लेंगे…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 22, 2013 at 12:23am — 7 Comments

कविता : हथियार

कुंद चाकू पर धार लगाकर

हम चाकू से छीन लेते हैं उसके हिस्से का लोहा

और लोहे का एक सीदा सादा टुकड़ा

हथियार बन जाता है

 

जमीन से पत्थर उठाकर

हम छीन लेते हैं पत्थर के हिस्से की जमीन

और इस तरह पत्थर का एक भोला भाला टुकड़ा

हथियार बन जाता है

 

लकड़ी का एक निर्दोष टुकड़ा

हथियार तब बनता है जब उसे छीला जाता है

और इस तरह छीन ली जाती है उसके हिस्से की लकड़ी

 

बारूद हथियार तब बनता है

जब उसे किसी कड़ी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 21, 2013 at 9:00pm — 12 Comments

साम्प्रदायिक भावना व राष्ट्रीय एकता

साम्प्रदायिक भावना राष्ट्रीय एकता 

बड़े गर्व की बात है …

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Added by SAURABH SRIVASTAVA on June 21, 2013 at 8:30pm — 1 Comment

दोहे

फुटकर दोहे ....
** *** *** **

आज पुरस्कृत हो रहे ,प्राय: वो पाखण्ड।

जिन  देहों  से लुप्त हैं ,उनके  मेरुदण्ड।।
--
झांसा जग को दे रहे, कर ऊर्जा का ह़ास।
सरल राह पर जो चले,सुखद मिले अहसास 
--
छद्म एकता का सदा ,रचते हम पाखण्ड।
क्यूँ हम जग को तोड़ते,आओ रहे अखण्ड।।
--
नाम धर्म का हो रहा ,पकता खूब अधर्म।
भोली जनता नासमझ,नहीं जानती…
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Added by AVINASH S BAGDE on June 21, 2013 at 8:15pm — 5 Comments

सरस्वती वंदना

वंदना हम कर रहे

माँ शारदे माँ शारदे

अज्ञान के अंधेरों से

तू हमें तार दे

हम तो अज्ञानी  हैं

ज्ञान से संवार दे

माँ शारदे------------

.

श्वेत वस्त्र धारणी

कमल पे विराजती

वीणा के तार की

झंकार दे झंकार दे

माँ  शारदे----------

.

चरणों में तेरे हम

शीश को झुका रहे

ज्ञान की ज्योति

हमको उपहार दे

माँ शारदे------------

 

 

मौलिक व अप्रकाशित------

Added by Pragya Srivastava on June 21, 2013 at 11:00am — 9 Comments

’’वेगवती छन्द’’

’’वेगवती छन्द’’

इसमें विषम चरण में तीन सगण-(112) तथा एक गुरू-(2) तथा

सम चरण में तीन भगण-(211) तथा दो गुरू-(22) होते हैं।

.1.

कण कारक ज्यों मन कृष्णा। कारण कृष्ण कमाल सुतृष्णा।

जन.लोक अतीव नसाना। घोर. विरोध सजाय मसाना।।

जगती तल-अम्बर-वर्षा। बाढ़-हुताशन ज्यों यम हर्षा।

अब तो मन सोच सुकर्मा। कार्य सुहाय अघोर.विकर्मा।।



.2.

मन राम सुनाम विचारो। मानव से नित प्यार सॅवारो।

वन-बाग-सुभाष सुधारो। कर्म-सुधर्म  सदा मन धारो।।

रख हाथ…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 21, 2013 at 9:56am — 14 Comments

गीतिका : आह पानी ,वाह पानी !

ये आह पानी ,वो वाह पानी ,

कर गया आखिर तबाह पानी !



कभी बादलों से रही शिकायत ,

जिधर डालिए अब निगाह पानी !



दिखे ऐसे मंजर,उतराती लाशें

उठे दर्द,चीखें,कराह पानी !



जहां ज़िंदगी मांगने को गए थे,

कर के गया सब सियाह पानी !



रहम करनेवाला खुद ही परीशां

माँगी है तुझसे पनाह पानी !



____________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ



(मौलिक और अप्रकाशित…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on June 20, 2013 at 11:00pm — 10 Comments

कविता में प्रेम



उसने मुझसे कहा



ये क्या लिखते रहते हो



गरीबी के बारे में



अभावों, असुविधाओं,



तन और मन पर लगे घावों के बारे में



रईसों, सुविधा-भोगियों के खिलाफ



उगलते रहते हो ज़हर



निश-दिन, चारों पहर



तुम्हे अपने आस-पास



क्या सिर्फ दिखलाई…

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Added by anwar suhail on June 20, 2013 at 10:28pm — 4 Comments

प्राकृतिक आपदा के मध्य जीवन मूल्यों का अवमूल्यन

उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा ने जहाँ एक ओर जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है,वहीं दूसरी और पूरे देश को हिला कर रख दिया है।यह विषम परिस्थिति हम सभी के धैर्य की परीक्षा है और परस्पर एक-दूसरे के सहयोग की,सहायता की आवश्यकता का ये परम अवसर है।यही समय मानवता रुपी धर्म के पालन का उचित समय है, परन्तु कुछ लोग इस समय मानवता को लज्जित कर रहे हैं।वे प्रकृति की मार से त्रस्त भूखे-प्यासे लोगों से ५ रूपये के बिस्किट के स्थान पर एक सौ रूपये,तीस-चालीस रुपये के दूध के स्थान पर दो सौ रुपये, किसी को अपने…

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Added by Savitri Rathore on June 20, 2013 at 9:21pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मेरे द्वारा हल्द्वानी आयोजन में प्रस्तुत की हुई नज्म/गीत

जख्म कांटो से खायें  हैं हमें फूलों को सताना नहीं आता 

इश्क़े सफीने  बचाए हैं हमे तूफाँ में डुबाना नहीं आता 

 

तुम   बुजदिली कहलो या समझो शाइस्तगी मेरी  

 हुए सब अपने पराये हैं हमे  सच्चाई  छुपाना नहीं आता 

 

किसी ने दिल से निकाला ,  किसी ने राह में फेंका 

सर पे हमने बिठाए हैं हमे ठोकर से हटाना नहीं आता    

 

 कभी  ना  बेरुखी भायी   कभी ना नफरतें पाली 

दिलों में ही घर …

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Added by rajesh kumari on June 20, 2013 at 7:30pm — 18 Comments

वो हँसी गुल संवर रही होगी

वो हँसी गुल संवर रही होगी

चांदनी सी बिखर रही होगी

सारी दुनिया हो बेखबर चाहे…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on June 20, 2013 at 12:00pm — 13 Comments

वक्त जो हम पर भारी है - वीनस

छोटी बहर पर ग़ज़ल का एक प्रयास  .....

वक्त जो हम पर भारी है 

अपनी भी तय्यारी है 



पूरा कारोबारी है 

ये अमला सरकारी है 

.…

Continue

Added by वीनस केसरी on June 20, 2013 at 11:00am — 36 Comments

खुदा से मिला के चला गया

वो आया था और सच्चाई बता के चला गया,

बुरा ना कहो उसे जो हाथ छुडा के चला गया|

वो भी भला था फ़क्त इक दुआ देके देख लो,

जो मेरी रूह को खुदा से मिला के चला गया|

मैं बादल था बरसना था कहीं खेतों की ज़मीं पे,

वो हवाओं को ही सागर में छुपा के चला गया|

सुना था कहीं इंसान बसते हैं यहीं ज़मीन पे,

वो आईने में मेरा चेहरा दिखा के चला गया|

दम आख़िरी था, मुस्कान चेहरे पे आ ही गयी,

हँसते हुए वो दुनिया को रुला के चला…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on June 20, 2013 at 9:30am — 14 Comments

वो आवाज

वो आवाज

जो पल भर पहले था कितना खुशहाल

अचानक हुई एक धमाके की आवाज

उस धमाके की आवाज से बंद हुई पलकें

जब खुली तब तक,

खत्म हो चुका था सब कुछ

रह गए थे टूटे हुए बर्तन,

बिखरी हुई चूड़ियाँ, छितराई हुई लाशें,

फैला हुआ खून, ढ़ूढ़ती हुई आँखें,

एक अकेले रोते हुए बच्चे की आवाज

 

 

 

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on June 20, 2013 at 12:34am — 9 Comments

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