बह्र : २१२ २१२ २१२
जब उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी नोच डाली गई
एक भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी नोच डाली गई
रीझ उठी नाचते मोर पे
मोरनी नोच डाली गई
खूब उड़ी आसमाँ में पतंग
जब कटी नोच डाली गई
देव मानव के चिर द्वंद्व में
उर्वशी नोच डाली गई
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 24, 2014 at 9:55pm — 34 Comments
बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
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झील के पानी में गिर के चाँद मैला हो गया।
स्वाद मीठी नींद का कड़वा-कसैला हो गया॥
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दो घड़ी भी चैन से मैं साँस ले पाता नहीं,
यूँ तुम्हारी याद का मौसम विषैला हो गया।
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सभ्यता के औपचारिक आवरण से ऊब कर,
आदमी का आचरण फिर से बनैला हो गया।
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आँख में मोती नहीं बस वासना की धूल है,
प्यार देखो किस क़दर मैला-कुचैला हो गया।
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हर किसी को सादगी के नाम से नफ़रत हुई,
कल जिसे कहते थे मजनूँ,आज लैला हो गया।…
Added by Ravi Prakash on January 24, 2014 at 5:00pm — 16 Comments
बड़ी मुश्किल से कुछ 'अपने' मिले हमको ज़माने में
कहीं उनको न खो दूँ ख्वाहिशें अपनी जुटाने में /
बने जो नाम के अपने हैं उनसे दूरियाँ अच्छी
मिलेगा क्या भला नजदीकियां उनसे बढ़ाने में/
उजाले छोड़े हैं तेरे लिए रहना सदा रोशन
अँधेरे रास हैं आए वफ़ा तुझसे निभाने में /
हसीं यादों ने छोड़े हैं सफ़र में ऐसे कुछ लम्हे
रँगें हैं हाथ अपने अब निशाँ उनके मिटाने में /
दिलों को तोड़ते हैं जो विदा कर यार को ऐसे
जो थामे धडकनें तेरी न डर…
Added by Sarita Bhatia on January 24, 2014 at 3:30pm — 9 Comments
सच कहता है शख्स वो ,भले बोलता कम है
बहुत सोचता है , भले वो लब खोलता कम है
कितनी भी हावी सियासत हो गयी हो आज भी
वो वादे निभाता तो नहीं , मगर तोड़ता कम है
कहीं जज़बात के रस्ते में कोई दुश्वारियां न हों
वो ख़त भी रखता है , तो लिफाफा मोड़ता कम है
मशीनी हो गयी है , रफ़्तार-ए -ज़िन्दगी , अब
आदमी हाँफता ज़िआदा , मगर दौड़ता कम है
फुटपाथों पे वो नंगे ज़िस्म सो रहा है , "अजय"
चीथड़े पहनता तो है वो , मगर ओढ़ता कम…
Added by ajay sharma on January 23, 2014 at 11:30pm — 5 Comments
जमाना बेताब है मुश्किलें पैदा करने को,
मेरी अनकही बातों पर ऐतबार न कर.
बढ़ते रहे दरमियाँ दिलों के बीच,
चाहत ये जमाने की कामयाब न कर.
एक लकीर है हमारे और उसके बीच,
डर है गुम होने का, उसे पार न कर.
कल का सूरज किसने देखा है,
आ भर ले बाहों में इन्कार न कर.
यक़ीनन ढला ज़िस्म फौलाद के सांचें में,
पर दिल है शीशे का, तू वार न कर.
शक अपनों पर, परायों के खातिर,
यकीं नहीं है तो फिर प्यार न…
ContinueAdded by अनिल कुमार 'अलीन' on January 23, 2014 at 11:30pm — 12 Comments
बर्फ की ये चादरी सफ़ेद ओढ़कर
पर्वतों की चोटियाँ बनी हैं रानियाँ
पत्ती पत्ती ठंड से ठिठुरने लगी,
फूल फूल देखिये हैं काँपते यहाँ ।
काँपती दिशाएँ भी हैं आज ठंड से,
बह रही हवा यहाँ बड़े घमंड से ।
बादलों से घिरा घिरा व्योम यूं लगे,
भरा भरा कपास से हो जैसे आसमाँ।। पर्वतों की .....
धरती भी गीत शीत के गा रही,
दिशा दिशा भी मंद मंद मुस्कुरा रही।
झरनों में बर्फ का संगीत बज उठा,
और हवा गा रही है अब रूबाईयाँ॥ पर्वतों की .....…
Added by Pradeep Bahuguna Darpan on January 23, 2014 at 9:30pm — 5 Comments
याद है मुझे
उसका वो पागलपन
लिखता मेरे लिए प्रेम कवितायेँ
जिनमें होते मेरे लिए कई प्रेम सवाल
उसमें ही छुपी होती उसकी बेपनाह ख़ुशी
क्योंकि जानता न था वो मेरे जवाब
वो उसकी आजाद दुनिया थी
जिसमें नहीं था किसी का दखल
उसके दिल के दरवाजे पर खड़ी रहती मैं
उस पार से उससे बतियाती
उसका पा न सकना मुझे
मेरा खिलखिला कर हँसना
और टाल देना उसका प्रेम अनुरोध
देता उसको दर्द असहनीय
जैसा आसमान में कोई तारा टूटता
और अन्दर टूट जाते उसके ख़्वाब…
Added by Sarita Bhatia on January 23, 2014 at 6:11pm — 4 Comments
जीवन दर्शन पर ३ मुक्तक :
1.है पानी का बुलबुला ....
है पानी का बुलबुला ....ये जीवन तेरा जीव
बड़े भाग से मानव का ...मिला तुझे शरीर
आती जाती साँसों का ...नहीं कोई विश्वास
आत्म सुख के वास्ते हर ले किसी की पीर
2.मूर्ख मानव काया पे …
मूर्ख मानव काया पे ....तू काहे करे गुमान
नश्वर इस संसार में .....व्यर्थ है अभिमान
जान के भी अंजाम को क्योँ बनता अंजान
तू माया की…
Added by Sushil Sarna on January 23, 2014 at 5:30pm — 13 Comments
Added by Gul Sarika Thakur on January 23, 2014 at 3:30pm — 12 Comments
मंदरा मुंडा के घर में है फाका,
गाँव में नहीं हुई है बारिश,
पड़ा है अकाल.
जंगल जाने पर
सरकार ने लगा दी है रोक ,
जंगल, जहाँ मंदरा पैदा हुआ,
जहाँ बसती है,
उसके पूर्वजों की आत्मा.
भूख विवेक हर लेता है.
उसके बेटों में है छटपटाहट.
एक बेटा बन जाता है नक्सली.
रहता है जंगलों में.
वसूलता है लेवी.
दुसरे को कराता है भरती
पुलिस में.
बड़े साहब को ठोक कर आया है सलामी
चांदी के बूट से .
चुनाव…
ContinueAdded by Neeraj Neer on January 23, 2014 at 2:00pm — 6 Comments
बद से बदतर हाल है, नाजुक हैं हालात ।
बोझिल लगती जिंदगी, पल पल तुम पश्चात ।१।
बरसी हैं कठिनाइयाँ, उलझें हैं हालात ।
हर पल भीतर देह में, जख्म करें उत्पात ।२।
दिन काटे कटते नहीं, मुश्किल बीतें रात ।
होता है आठों पहर, यादों का हिमपात ।३।
रूठी रूठी भोर है, बदली बदली रात ।
दरवाजे पर सांझ के, पीड़ा है तैनात ।४।
आती जब भी याद है, बीते दिन की बात ।
धीरे धीरे दर्द का, बढ़ता है अनुपात ।५।
व्याकुल मन की हर दशा, लिखते हैं हर…
Added by अरुन 'अनन्त' on January 23, 2014 at 11:30am — 16 Comments
1222 1222 1222 1222
हमारी प्यास ले जाओ, जरा सूरज घटाओं तक
समय इतना नहीं बाकी, खबर भेजें हवाओं तक
तुम्हारी कोशिशें थी नित, यहाँ केवल दवाओं तक
हमारा भाग भा खोटा, न जा पाया दुआओं तक
कहाँ से भेजता रब भी, मदद को रहमतें अपनी
पहुचनें ही न पायी जब, सदा मेरी खलाओं तक
कहो तुम चाँद से इतना, सितारों रोशनी मकसद
रहा मत कर सदा इतना, सिमटकर तूँ कलाओं तक
सुना है हो गये हो अब, खुदा तुम भी मुहब्बत के
हमारी हद सहन तक ही,…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2014 at 7:30am — 12 Comments
भ्रष्ट मंत्र है भ्रष्ट तंत्र है
इसे बदलना होगा
अब सत्ता के गलियारों में
हमें पहुंचना होगा
वीरों ने हुंकार भरी है
दुश्मन सभी दहल जाओ
भ्रष्टाचारी रिश्वतखोरों…
ContinueAdded by sanju shabdita on January 22, 2014 at 7:30pm — 23 Comments
Added by Poonam Shukla on January 22, 2014 at 4:01pm — 6 Comments
साथी! तोड़ न निर्दयता से चुन चुन मेरे पात...
नन्हीं एक लता मैं निर्बल,
मेरे पास न पुष्प न परिमल,
मेरा सञ्चित कोष यही बस,
कुछ पत्ते कुम्हलाये कोमल,
तोड़ न दे यह शाख अकिञ्चन, निर्मम तीव्र प्रवात...
मैं हर भोर खिलूँ मुस्काती,
पर सन्ध्या आकुलता लाती,
साँस साँस भारी गिन गिन मैं,
रजनी का हर पहर बिताती,
एक नये उज्ज्वल दिन की आशा, मेरी हर रात...
पड़ती तेरी ज्वलित दृष्टि जब,
भीत प्राण भी हो जाते तब,
सहमी सकुचायी मैं…
Added by अजय कुमार सिंह on January 22, 2014 at 3:30pm — 20 Comments
नैतिकता के पतन से, फैला कंस प्रभाव॥
मात- पिता सम्मान नहि, नस नस में दुर्भाव॥
पश्चिम संस्कृति जी रहे, हम भूले निज मान।
कहते हम संतान कपि, जबकि हैं हनुमान॥
निज गौरव को भूलकर, बनते मार्डन लोग।
ये भी क्या मार्डन हुए, पाल रहे बस रोग॥
अपने घर में त्यक्त है, वैदिक ज्ञान महान।
महा मूढ़ मतिमंद हम, करते अन्य बखान॥
लौटें अपने मूल को, जो है सबका मूल।
पोषित होता विश्व है, सार बात मत भूल॥
मौलिक व अप्रकाशित
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on January 22, 2014 at 12:30pm — 16 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on January 21, 2014 at 11:30pm — 10 Comments
मात्रिक छंद
जो रस्मों को मन से माने, पावन होती प्रीत वही तो!
जीवन भर जो साथ निभाए, सच्चा होता मीत वही तो!
रूढ़ पुरानी परम्पराएँ, मानें हम, है नहीं ज़रूरी।
जो समाज को नई दिशा दे, प्रचलित होती रीत वही तो!
मंदिर-मंदिर चढ़े चढ़ावा, भरे हुओं की भरती झोली।
जो भूखों की भरे झोलियाँ, होता कर्म पुनीत वही तो!
ऐसा कोई हुआ न हाकिम, जो जग में हर बाज़ी जीता,
बाद हार के जो हासिल हो, सुखदाई है जीत वही…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on January 21, 2014 at 11:00pm — 18 Comments
एकदम से ये नए प्रश्न हैं
जिज्ञासा हममें है इतनी
बिन पूछे न रह सकते हैं
बिन जाने न सो सकते हैं
इसीलिए टालो न हमको
उत्तर खोजो श्रीमान जी....
ऐसे क्यों घूरा करते हो
हमने प्रश्न ही तो पूछा है
पास तुम्हारे पोथी-पतरा
और ढेर सारे बिदवान
उत्तर खोजो ओ श्रीमान...
माना ऐसे प्रश्न कभी भी
पूछे नही जाते यकीनन
लेकिन ये हैं ऐसी पीढ़ी
जो न माने बात पुरानी
खुद में भी करती है शंका
फिर तुमको काहे छोड़ेगी
उत्तर तुमको देना…
Added by anwar suhail on January 21, 2014 at 9:35pm — 5 Comments
छंद पर मेरा प्रथम प्रयास
छलक छलक जाती अँखियाँ हैं प्रभुश्याम
आपके दरस को उतानी हुई जाती हूँ ।
ब्रज के कन्हाइ का मुझे भरोसा मिल गया ,
खुशी न समानी मन मानी हुई जाती हूँ ।
भक्ति रस मे ही डूबी श्याम मै पोर पोर
भावना मे डूबी पानी पानी हुई जाती हूँ ।
सांवरे का जादू ऐसा चढ़ा तन मन पर ,
राधिका सी प्रेम की दीवानी हुई जाती हूँ ।
अप्रकाशित एवं मौलिक
Added by annapurna bajpai on January 21, 2014 at 8:30pm — 16 Comments
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