फूलों को प्यार से सुनाती है प्रेम धुन
उन्हीं पर लुटाती अपना सर्वस्य जीवन
बदले में फूलों को देती है नया जीवन
निभाते हैं रिश्ता ये दोनों सारा जीवन ॥
जो फूल हमारे जीवन लाते हैं खुशियाँ
मिटा देते गम भर देते हैं सारी खुशियाँ
भौरें और तितलियाँ बजाती हैं तालियाँ
बदले में जीवन भर करते हैं रंगरेलियाँ ॥
हम इंसानों को नहीं है जरा भी शरम
हम इन फूलों के प्रति कितने बेरहम
फूल तो क्या !कलियों पर नहीं रहम
कहीं भगवान के नाम पर करते…
ContinueAdded by Ram Ashery on January 20, 2017 at 9:00pm — 6 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 20, 2017 at 8:37pm — 8 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 20, 2017 at 7:32pm — 8 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 20, 2017 at 5:30pm — 3 Comments
देर तक .....
देर तक
मैं मयंक को
देखती रही
वो वैसा ही था
जैसा तुम्हारे जाने से
पहले था
बस
झील की लहरों पे
वो उदास अकेला
तैर रहा था
देर तक
मैं उस शिला पर
बैठी रही
जहां हम दोनों के
स्पर्शों ने सांसें ली थीं
शिला अब भी वैसी ही थी
जैसी
तुम्हारे जाने से पहले थी
बस
मैं
और थे मेरी देह में
समाहित
तुम्हारे अबोले स्पर्श
देर तक …
Added by Sushil Sarna on January 20, 2017 at 1:30pm — 6 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on January 20, 2017 at 2:39am — 15 Comments
2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
झिलमिल तारों सा सपनो के अम्बर में रहते हो क्यों ?
मलयानिल की मधु धारा सा मानस में बहते हो क्यों?
रेशम सी शर्मीली आँखे गाथा कहती है मन की
निर्ममता के अभिनय क्षण में अंतर्गत चहते हो क्यों?
अंतस में भावों की गंगा यदि पावन है पूजा सी
तो संकल्पों की वर्षा हो फिर पीड़ा सहते हो क्यों?
वृन्दावन की वीथी में तुमने ही झिटकी थी बाहें
फिर उन बाँहों को मंदिर की शाला में गहते हो…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 19, 2017 at 8:30pm — 21 Comments
212 1222 212 1222
वक्त मेरे हाथों से, यूँ फिसल गया चुपचाप
मेरी हर तमन्ना को, वो कुचल गया चुपचाप
चाक दिल, शिकस्ता पा, बेचराग़ गलियों से
भूल अपने ख्वाबों को, मैं निकल गया चुपचाप
एक आइना था…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 19, 2017 at 6:16pm — 7 Comments
गीत लिखो कोई ऐसा जो निर्धन का दुख-दर्द हरे।
सत्य नहीं क्या कविता में,
निर्धनता का व्यापार हुआ?
जलते खेत, तड़पते कृषकों को बिन देखे बिम्ब गढ़े।
आत्म-मुग्ध होकर बस निशदिन आप चने के पेड़ चढ़े।
जिन श्रमिकों की व्यथा देखकर क्रंदन के नवगीत लिखे।
हाथ बढ़ा कब बने सहायक, या कब उनके साथ दिखे?
इन बातों से श्रमजीवी का
बोलो कब उद्धार हुआ?
अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।
स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 19, 2017 at 6:00pm — 26 Comments
व्यस्त है हवा
रुक जाए चिंगारी
दावानल से
बीमार पिता
बेटों का झगड़ना
इतना खर्च!
महानगर
भूल गये अपने
पुराने दिन
भूख ग़रीबी
क्या जाने, महलों में
पैदा हुआ जो.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 19, 2017 at 4:57pm — 8 Comments
हम मजा लूटते कितने सुख चैन से
कुछ तो सोचो, मजा पे क्या अधिकार है ?
जो शहादत दिए हैं हमारे लिए
याद उनको करो, ना तो धिक्कार है
अपना कर्तव्य क्या है धरा के लिए
फ़र्ज़ कितना चुकाया है हमने यहाँ
मैं कहानी सुनाता हूँ उस वीर की
खो गया आज है जो न जाने कहाँ
वीरता हरदम ही दुनिया में पूजी जाती है
बन के ज्वाला दुष्टों के हौसले जलाती है
ऐसे ही वीरता की गाथा आज गाता हूँ
वीर अब्दुल हमीद की कथा…
Added by आशीष यादव on January 19, 2017 at 2:30pm — 4 Comments
हाँ तुम सपने में आई थी
होठों पर मुस्कान सजाये
बालों में बादल लहराए
गालों पर थी सुबह लालिमा
माथे पर बिंदिया चमकाए
जब तुमको मैंने देखा था
पास खड़ी तुम मुस्काई थी
हाँ तुम सपने में आई थी…
Added by आशीष यादव on January 19, 2017 at 1:45pm — 10 Comments
"तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो", बालों में अंगुलियां फिराते हुए उसने कहा|
"हूँ", कहते हुए वह खड़ी होने लगी|
"थोड़ी देर और बैठो ना", उसने उसका हाथ पकड़ कर खींच लिया| वह वापस बिस्तर पर बैठ गयी|
"सच में तुमको देखे बिना चैन नहीं मिलता", एक बार फिर उसने उसका हाथ पकड़ा|
वह उसको लगभग अनदेखा करते हुए बैठी रही| थोड़ी देर बाद वह फिर से उठने लगी तो उसने कहा "तुम जवाब क्यों नहीं देती, क्या मैं तुम्हें अच्छा नहीं लगता?
"लगते तो हो, लेकिन तुम्हीं नहीं, बाकी सब भी", उसने एक गहरी नजर डाली और…
Added by विनय कुमार on January 18, 2017 at 9:51pm — 14 Comments
भोजन कक्ष में बैठ कर परिवार के सभी सदस्यों ने भोजन करना प्रारंभ किया ही था कि बाहर से एक कुत्ते के रोने की आवाज़ आई। घर की सबसे बुजुर्ग महिला यह आवाज़ सुनते ही चौंकी, उसने सभी सदस्यों की तरफ देखा और फिर चुपचाप भोजन करने लगी।
उसने मुश्किल से दो कौर ही खाये होंगे और कुत्ते के रोने की आवाज़ फिर आई, अब वह बुजुर्ग महिला चिंताग्रस्त स्वर में बोली, "यह कुत्ता क्यों रो रहा है?"
उसके पुत्र ने उत्तर दिया, "चिंता मत करो, होगी कुछ बात।"
"नहीं! यह तो अपशगुन…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on January 18, 2017 at 8:59pm — 11 Comments
“भैय्या, जल्दी बस रोकना!!” अचानक पीछे से किसी महिला की तेज आवाज आई|
सभी सवारी मुड़ कर उस स्त्री को घूरती हुई नजरों से देखने लगी शाम होने को थी सभी को घर पँहुचने की जल्दी थी|
महिला के बुर्के में शाल में लिपटी एक नन्ही सी बच्ची थी जो सो रही थी |ड्राइवर ने धीरे धीरे बस को एक साइड में रोक दिया| पीछे से वो महिला आगे आई और तुरत फुरत में बच्ची को ड्राईवर की गोद में डाल कर सडक के दूसरी और झाड़ियों में विलुप्त हो गई|
ड्राईवर हतप्रभ रह गया कभी बच्ची को कभी सवारियों को देख…
ContinueAdded by rajesh kumari on January 18, 2017 at 7:16pm — 18 Comments
इंतज़ार ...
छोड़िये साहिब !
ये तो बेवक़्त
बेवज़ह ही
ज़मीं खराब करते हैं
आप अपनी उँगली के पोर
इनसे क्यूं खराब करते हैं
ज़माने के दर्द हैं
ज़माने की सौगातें हैं
क्योँ अपनी रातें
हमारी तन्हाईयों पे
खराब करते हैं
ज़माने की निगाह में
ये
नमकीन पानी के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
रात की कहानी
ये भोर में गुनगुनायेंगे
आंसू हैं,निर्बल हैं
कुछ दूर तक
आरिजों पे फिसलकर
खुद-ब-खुद ही सूख जायेंगे
हमारे दर्द…
Added by Sushil Sarna on January 18, 2017 at 6:34pm — 13 Comments
2122 1212 22
गर वो करता है बात बेपर की ?
क्या ज़रूरत नहीं है पत्थर की
क्या हुकूमत लगा रही है अब ?
कीमत उस फतवे से किसी सर की
सिर्फ तहरीर में मिले भाई
सुन कहानी तू दाउ- गिरधर की
जिनके अजदाद आज ज़िन्दा हों
वो करें बात गुज़रे मंज़र की
क्या मुहल्ला तुझे बतायेगा ?
आग भड़की थी कैसे उस घर की
दीन ओ ईमाँ की बात करता है
क्या हवा लग न पायी बाहर की
रोशनी आज…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 18, 2017 at 8:30am — 15 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on January 18, 2017 at 6:56am — 7 Comments
Added by नाथ सोनांचली on January 18, 2017 at 4:21am — 12 Comments
आधार छन्द : 16+14 लावणी व कुकुभ मिश्रित,,
कोयल कुहुकी मैना बोली,भौंरे गूँजे भोर हुई ।।
आँख चुराये चन्दा भागा,रैन बिचारी चोर हुई ।।
कोयल कुहुकी,,,,
पूरब में ज्यों लाली निकली,सजा आरती धरा खड़ी,
उत्तुंग हिमालय पर लगता,कंचन की हो रही झड़ी,
बर्फ लजाकर लगी पिघलने,हिमनद रस की पोर हुई ।।(1)
कोयल कुहकी मैना बोली,भौंरे,,,,
सात अश्व के रथ पर चढ़कर,आ गए दिवाकर द्वारे,
स्वागत में मुस्काई कलियाँ,भँवरों नें मन्त्र उचारे,
सूर्यमुखी को देख…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 18, 2017 at 12:00am — 4 Comments
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