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March 2014 Blog Posts (163)

परिक्रमा

न जानें कितने जीवन से परिक्रमा

ही तो करती आई हूँ ,

क्या पाया ?क्या खोया ?

पता नहीं भूली हूँ माया के जाल में ।



बस एक मेरा "मैं "

तैयार रहता मुझ पर हर दम,

कहता, मैं ही हूँ सबसे अच्छा ।



पर ये क्या सच है ?

नहीं ये हमारे "मैं "

का ही भ्रम है ।



घूमी हूँ यहाँ से वहाँ ,

लगाईं हैं कई जन्मों की

परिक्रमाएँ,

चुनी हैं मायेँ कई,

हर पल माना खुद को सही।



क्या ये सच है?…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 27, 2014 at 6:45pm — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ताकि, बचा सकूँ हताशा से ( अतुकांत ) गिरिराज़ भंडारी

ताकि, बचा सकूँ हताशा से

*********************

इसलिये नही कि ,

सतत चलती सीखने की प्रक्रिया से भागना चाहता हूँ

इसलिये भी नही कि ,

मेरे लिए सब कुछ जाना-जाना , सीखा-सीखा है ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on March 27, 2014 at 4:30pm — 3 Comments

कुंडलिया छंद - लक्ष्मण लडीवाला

बागी ठोके ताल यूँ, दल को देने चोट

टिकिट मिले दागी खड़े, किसको डाले वोट

किसको डाले वोट, नहीं कुछ समझ में आता

खूब जताए प्यार, निकाले  रिश्ता  नाता

कह लक्ष्मण कविराय, देख अब जनता जागी

दागी की हो हार, भले ही जीते बागी |

(२)

योगी भोगी तो नहीं, उसके मन में टीस,

सुनो अरज माँ शारदे,दो अपना आशीष 

दो आपना आशीष,यही है बस अभिलाषा 

भारत रहे अखंड, रहे न एक भी प्यासा  

कह लक्ष्मण कविराय, रहे सब यहाँ निरोगी

करो सभी का…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 27, 2014 at 2:30pm — 6 Comments

सत्य

सत्य की राह

होती है अलग,

अलग, अलग लोगों के लिए.

किसी का श्वेत ,

श्याम होता है किसी के लिए .

श्वेत श्याम के झगड़ें में

जो गुम  होता है

वह होता है सत्य,

सत्य सार्वभौमिक है,

पर सत्य नहीं हो सकता

सामूहिक .

सत्य निजता मांगता है ,

हरेक का सत्य

तय होता है

निज अनुभूति से.

... नीरज कुमार नीर 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Neeraj Neer on March 27, 2014 at 8:32am — 4 Comments

विजय – पराजय

विजय – पराजय

 

वह जो मैंने सपने मे देखा

सोने की गाय

कुतुबमीनार पर घास चर रही थी , और –

नीचे ज़मीन पर बैठा कोई ,

सूखी रोटियाँ तोड़ रहा था ।

अचानक कुतुब झुकने लगा

मुझे ऐसा लगा, जैसे -

वह झुक कर स्थिर हो जाएगा

पीसा के मीनार की तरह

और बनेगा

संसार का आठवाँ आश्चर्य ।

पर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ

वह धराशायी हो गया

गाय कहाँ गयी , कुतुब कहाँ गया

कह नहीं सकता

किन्तु सूखी…

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Added by S. C. Brahmachari on March 26, 2014 at 9:30pm — 9 Comments

अभी तो म्यान देखी है अभी तलवार देखोगे

१२२२    १२२२     १२२२    १२२२

अभी तो म्यान देखी है अभी तलवार देखोगे

हिरन के सींग देखे सींग की तुम मार  देखोगे 

 

बहुत खुश होते हो परदे के जिन अश्लील चित्रों पर

बहुत रोओगे जब घर पर यही बाज़ार देखोगे

 

जिस्म की मंडियों में डोलते हो बन के सौदागर

करोगे खुदकशी बेटी को जब लाचार देखोगे

 

नदी, नाले, तलैया-ताल यारों देखकर सँभलो

नहीं तो तुम सड़े पानी का पारावार देखोगे

 

अभी भाता बहुत है ये सफ़र पूरब से पश्चिम…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on March 26, 2014 at 5:00pm — 12 Comments

हिन्दी श्लोक (अनुष्‍टुप छंद)

अनुष्‍टुप छंद 4 चरण प्रत्येक चरण 8-8 वर्ण

विषम चरण - वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, गुरू, गुरू

सम  चरण -  वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ  क्रमशः लघु, गुरू, लघु, गुरू

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मदिरापान कैसा है, इस देश समाज में ।

अमरबेल सा मानो, फैला जो हर साख में ।।



पीने के सौ बहाने हैं, खुशी व गम साथ में ।

जड़ है नाश का दारू, रखे…

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Added by रमेश कुमार चौहान on March 26, 2014 at 4:38pm — 4 Comments

पैसे की बिसात पर लोकतंत्र

पैसे की बिसात पर लोकतंत्र

लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सबसे भव्य प्रदर्शन अप्रैल और मई में होने वाला है जब देश के 81करोड़ मतदाताओं को अपने सांसदों को चुनने का सौभाग्य मिलेगा। मतदाताओं को अपने एक-एक वोट से उत्कृष्ट नेताओं को संसद तक पंहुचाने के लिए चुनावी इम्तिहान से गुजरना होगा। पैसा, प्रलोभन  और भाई भतीजावाद से ऊपर उठकर लोकतंत्र के सभी मानकों…

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Added by DR. HIRDESH CHAUDHARY on March 26, 2014 at 3:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल: वो चिड़ियों जैसे पर लाया

बस्ते में रोटी भर लाया

बच्चा भी ये क्या घर लाया 


होठों पे खुशियाँ धर लाया
वो बोले किसकी हर लाया

सोने चांदी सब नें मांगे
वो चिड़ियों जैसे पर लाया

इक तूफानी झोंका आया
जाने किसका छप्पर लाया

दुत्कारा लोगों नें उसको
जो धरती पे अम्बर लाया

काम के इंसा मैंने मांगे
वो बस्ती से शायर लाया

भुवन निस्तेज
(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by भुवन निस्तेज on March 26, 2014 at 2:30pm — 9 Comments

गीत कोकिला गाती रहना/नवगीत/कल्पना रामानी

बने रहें ये दिन बसंत के,

गीत कोकिला गाती

रहना।

 

मंथर होती गति जीवन की,

नई उमंगों से भर जाती।

कुंद जड़ें भी होतीं स्पंदित,

वसुधा मंद-मंद मुसकाती।

 

देखो जोग न ले अमराई,

उससे प्रीत जताती

रहना।

 

बोल तुम्हारे सखी घोलते,

जग में अमृत-रस की धारा।

प्रेम-नगर बन जाती जगती,

समय ठहर जाता बंजारा।

 

झाँक सकें ना ज्यों अँधियारे,

तुम प्रकाश बन…

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Added by कल्पना रामानी on March 26, 2014 at 1:30pm — 14 Comments

कुछ दोहे आज के हालात पर

छप्पन व्यंजन खाय के,भरा पेट कर्राय

तब टीवी की खबर पर, 'देश प्रेम' चर्राय

नेता उल्लू साधते, आपन गाल बजाय

जनता देखय फायदा, बातन में आ जाय

जोड़-तोड़ बनि जाय जो, दोबारा सरकार

लूट-पाट होने लगे, बढ़ता भ्रष्टाचार

महंगाई जस जस बढ़ै, व्यापारी मुस्कायँ,

जैसे आवय आपदा, फौरन दाम बढ़ायँ

पत्रकारिता बिक गयी, कलम करे व्यापार

समाचार के दाम भी, माँग रहे अखबार

कामकाज को टारि के, बाबू गाल बजायँ

देश तरक्की…

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Added by VISHAAL CHARCHCHIT on March 26, 2014 at 1:00pm — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
'अल्प विराम-पूर्ण विराम' अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

अल्प विराम – पूर्ण विराम  

********************

वो मै होऊँ या आप

छोटा मोटा विद्यार्थी

सबके अंदर जीता है ,

आवश्यक रूप से

और वो जानता भी है ,

जीते रहने की…

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Added by गिरिराज भंडारी on March 26, 2014 at 7:00am — 12 Comments

कनक कनक रम बौराया जग

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कनक  कनक रम बौराया जग

----------------------------------

किसको किसको मै समझाऊँ

ये जग प्यारे रैन   बसेरा

सुबह जगे बस भटके जाना

ठाँव नहीं, क्या तेरा-मेरा ??

आंधी तूफाँ  धूल बहुत है

सब है नजर का फेरा

खोल सके कुछ चक्षु वो देखे

पञ्च-तत्व बस, दो दिन…

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Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on March 26, 2014 at 2:30am — 11 Comments

ग़ज़ल: घर की अस्मत घर के बाहर रह गयी

रह गयी कुछ है यही ग़र रह गयी

घर की अस्मत घर के बाहर रह गयी

 

ज़िन्दगी तक उसकी होकर रह गयी  

अपने हिस्से की ये चादर रह गयी

 

वो मुझे बस याद आया चल दिया

शाम मेरी याद से तर रह गयी

 

तृप्ति ने बोला बकाया काम है

और तृष्णा घर बनाकर रह गयी

नाव जब डूबी तो बोला नाख़ुदा

थी कमी सूई बराबर रह गयी*

बन गई मेरी ग़ज़ल वो आ गया

कुछ खलिश फिर भी यहाँ पर रह गयी

भुवन निस्तेज

(मौलिक व…

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Added by भुवन निस्तेज on March 25, 2014 at 11:00pm — 16 Comments

दोहा........राम हुए भव पार

दोहा........

कददू -पूड़ी ही सदा, शुभ मुहुर्त में भोग।

वर्जित अरहर दाल जब, शुभ विवाह का योग।।1

अन्तर्मन की आंख से, देखो जग व्यवहार ।

धोखा पर धोखा सदा, देता यह संसार ।।2

तन मन में सागर भरा, जीव प्राण आाधार।

सम्यक कश्ती साध कर, राम हुए भव पार ।।3

धर्म कर्म अति मर्म से, विषम समय को साध।

मन की माया जीत लें, मिले प्रेम आगाध ।।4

जैसी जिसकी नियति है, तैसा भाग्य लिलार।

लेकिन आत्मा राम नित, सदा करें…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 25, 2014 at 8:30pm — 6 Comments

रेत उड़ती रही धरा बेबस

रेत  उड़ती  रही  धरा  बेबस

गजल -  2122, 1212, 22

पथ के पत्थर कहे परी हो क्या?

ठोकरों से कभी बची हो क्या ?



रात  ठहरी  हुयी   सितारों  में,

दोस्तों, चॉंद की खुशी हो क्या ?



लूटते  रोशनी  अमावस  जो,

दास्तां आज भी सही हो क्या ?



आदमी धर्म - जाति का खंजर,

आग ही आग आदमी हो क्या ?



रोशनी आज भी नहीं आयी,

राह की भीड़ में फसी हो क्या ?



रेत  उड़ती  रही  धरा  बेबस,

अब हवा धूप आदमी हो क्या…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 25, 2014 at 7:20pm — 6 Comments

जुड़े रहे सम्बन्ध (दोहे)

जुड़े रहे सम्बन्ध (दोहे)- लक्ष्मण लडीवाला 

==============

संस्कारी बच्चे बने,बुजुर्ग बने सहाय,

चले राह सन्मार्ग की, वैभव बढ़ता जाय |

 

मान बढे सहयोग से, सबका हल मिल जाय,    

सद्गुण अरु सम्पन्नता, प्रतिदिन बढती जाय |         

 

साथ रहे तो लाभ है, युवा समझते आज,

आजादी भी चाहते,  ये तनाव का साज |

 

बंधिश इतनी ही रहे, टूटे नहि तटबंध   

वीणा जैसे तार ये, जुड़े रहे सम्बन्ध |

 

मन में भरे विकार…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 25, 2014 at 2:00pm — 14 Comments

औरो से हूँ जुदा तुझे भी होगा कल यकी

२२१२ १२१२ १२१२ १२

कातिल हँसी तू इक दफा जो हमको  देख ले

किस की हो फिर मजाल भी जो तुझको देख ले

 

औरो से हूँ जुदा तुझे भी होगा कल यकी

मलिका-ए- हुस्न पहले जो तू सबको देख ले

 

दिलकश हसींन कातिलों में कुछ तो बात है

धड़कन थमें जो इक दफा भी उसको देख ले

 

दिल चाहता जिसे उसे मैं कहता हूँ खुदा

जब सामने खुदा तो कोई किसको देख ले

 

सागर की आरजू कभी भी थी नहीं मेरी

आँखों में जाम भर के ही तू हमको देख…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2014 at 1:30pm — 16 Comments

खेला नया हर पल ही रचाती है जिन्दगी |

2212     2211     221     212 

पल में रुलाती पल में हँसाती है जिन्दगी

खेला नया हर पल ही रचाती है जिन्दगी |



ऐ नौजवानों देश के इतिहास अब रचो

हर रोज ही इक पाठ सिखाती है जिन्दगी | 



टूटे हैं जो विश्वास कहीं आइने से अब

फिर रोज क्यों विश्वास दिलाती है जिन्दगी ?



गुलशन कभी पतझड़ कभी मेरी है बगिया में

कैसे कहाँ क्या रंग दिखाती है जिन्दगी |



जब भी विचारों में घुली हैं रंजिशें यहाँ

ऐसे विचारों से जहर पिलाती है…

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Added by Sarita Bhatia on March 25, 2014 at 10:30am — 14 Comments

बेटियों आगे बढ़ो/ग़ज़ल/कल्पना रामानी

212221222122212  

 

सीख लो अधिकार पाना, बेटियों आगे बढ़ो।

स्वप्न पूरे कर दिखाना, बेटियों आगे बढ़ो।

 

चाहे मावस रात हो, जुगनू सितारे हों न हों,

ज्योत बनकर जगमगाना, बेटियों आगे बढ़ो।

 

सिर तुम्हारा ना झुके, अन्याय के आगे कभी,

न्याय का डंका बजाना, बेटियों आगे बढ़ो।

 

ज्ञान के विस्तृत फ़लक पर, करके अपने दस्तखत,

विश्व में सम्मान पाना, बेटियों आगे बढ़ो।

 

तुम सबल हो,  बाँध लो यह बात अपनी गाँठ…

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Added by कल्पना रामानी on March 25, 2014 at 10:00am — 14 Comments

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