बह्र --हजज मुसद्दस सालिम
१२२२ १२२२ १२२२
गुलाबी रंग दो रुख्सार होली में
खुमारी भंग की हो यार होली में
मिटा दो दुश्मनी मिलकर गले यारो
मुहब्बत का करो इजहार होली में
कहानी प्रीत की फिर से नई लिक्खो
पुरानी भूल कर तकरार होली में
अनेकों रंग मिलकर एक हो जाओ
करो मत धर्म का व्यापार होली में
खुले दिल से बिना डर के खिलें कलियाँ
हटाओ रास्ते से ख़ार होली में
मिटाकर दूरियाँ…
ContinueAdded by rajesh kumari on March 22, 2016 at 10:10am — 4 Comments
खिलौने वाली गन (लघुकथा) – शुभ्रान्शु पाण्डॆय
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“पापा, वो वाली गन ! देखो न, कितनी असली सी लगती है !” – सुपर बाज़ार की भीड़-भाड़ में बिट्टू उस खिलौने वाली गन के पीछे हठ कर बैठा था ।
“नहीं बेटा.. हमें वो चावल वाली सेल के पास चलना है । जल्दी करो, नहीं तो वो खत्म हो जायेगा..”
“पापा, इस पर भी सेल की बोर्ड लगा रखी है.. पापा ले लो ना…प्लीऽऽज..”,
बिट्टू की मनुहार भरी आवाज सुन कर किसी का मन न रीझ जाये । लेकिन रमेश अपने एक मात्र हजार…
ContinueAdded by Shubhranshu Pandey on March 22, 2016 at 9:30am — 10 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on March 21, 2016 at 8:27pm — 2 Comments
पुन्न (पुन्य)
आज बड़ी बुआ आ गई,थैला और पेटी के साथ ।
"ये लल्लू ,पइसा दे दे रिक्शा बाले को,मेरे पास फुटकर नहीं हैं ।"
रिक्शा के पैसे दे ,चरणस्पर्श का आशीर्वाद लेकर पेटी अम्मा के कमरे में रख दी ।बुआ ने पेटी पलंग के नीचे खिसका ,ताला हिला कर तसल्ली कर ली ।इस बार पेटी कुछ ज्यादा ही भारी है।पेटी पर लगा अलीगढ़ी ताला ,जिसकी चाबी उनके गले में पड़ी तीन तोले की चेन में लटकी रहती ।
क्या किस्मत है,इस लोहे की चाबी की ,चौदह वर्ष की उम्र से ब्लाउज के अंदर उनके साथ। बाल विधवा बुआ ने…
Added by Pawan Jain on March 21, 2016 at 2:30pm — 5 Comments
संग तुम्हारे नाम के ......
इस लम्हा
जब शून्यता ने
मुझे अंगीकार कर लिया है //
मेरे ख्वाब
सूखे शज़र के ज़र्द पत्तों से
बिखर गए हैं
कम से कम
मुझ पर इतना तो रहम कर दो
तुम अपनी याद का
इक चराग तो जलने दो//
इस लम्हा
जब मेरा वज़ूद
ख़ाक में मिलने से पहले
अंतिम साँसों से
जीने की जिद्दो ज़हद में उलझा है
अपने अस्तित्व की याद को
मेरे ज़हन में जी लेने दो//
इस लम्हा जब
मेरी तमाम हसरतें…
Added by Sushil Sarna on March 21, 2016 at 2:15pm — 4 Comments
2212 122 2212 122
दुःख सर पे चढ़ गया है, पीड़ा पिघल रही है।
हालात की तपिश से, नदिया निकल रही है।।
मरघट सा हो गया है, हर रास्ता शहर का।
इंसानियत चिता पर, हर ओर जल रही है।।
ज़िंदा अभी तलक हैं, रावण दहेज़ वाले।
अब भी दहेज़ वाली, क्यों सोच पल रही है।।
विद्रोह कर रही है, अब सोच भी हमारी।
क्यों मौन हूँ अभी तक, ये बात खल रही है।।
ग़र चे कलम के बदले, हथियार उठ गया तो।
पंकज से फिर न…
ContinueAdded by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 21, 2016 at 11:30am — 6 Comments
Added by रामबली गुप्ता on March 21, 2016 at 10:57am — 11 Comments
Added by Rahila on March 20, 2016 at 11:10pm — 18 Comments
२१२२ २२१२ २२,
जख्म जब दिल कोई छुपाता है।
दर्द होठों पर मुस्कुराता है।
******
मद भरी आँखे होठ के प्याले,
शाम ढलते ही याद आता है।
******
वो भला कैसे सँभलना जाने,
जो नही कोई चोट खाता है।
******
जाम पीकर भी प्यास कब बुझती,
बस कदम ही तो लड़-खड़ाता है।
******
लूट ले फिर इक बार आ करके,
आ तुझे दिल फिर बुलाता है।
*******
ख़ाक परवाने हो चलें देखो,
अब चिरागों को क्यों बुझाता है।
******
मौलिक अप्रकाशित…
Added by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on March 20, 2016 at 11:30am — No Comments
ऊँची, नीची, मैदानी, पठारी,
उथली, गहरी...
दूर तक विस्तृत
उपजाऊ जमीन.
यहाँ नहीं उपजते
गेहूँ, धान
फल, फूल,
न उगायी जाती हैं साग, सब्जियाँ
किन्तु,
जो उपजता हैं
उससे....
करोड़ों कमाती हैं
बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ
तय होतें हैं
सियासी समीकरण
बनती बिगड़ती हैं
सरकारें
पैदा होता है
विकास
आते हैं
अच्छे…
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 20, 2016 at 9:00am — 16 Comments
पीढ़ियां !
सीढ़ियों पर चढ़ कर
पीढ़ियां !
थूंकती आसमान पर
धरा आर्द्रवश सहेज लेती
नदियों के कछार
दलदल - सदाबहार वन
आमंत्रित मेघ
बरसते नहीं.
पीढ़ियां !
असमय कड़क कर चमकतीं
गिरती बिजलियां
जलते घास-पूस के छप्पर
ढह जाते दुर्ग
सम्मान के...
संस्कृति के.
बिखरे अवशेष कराहते
खण्डहर में उग आते बांस
सीढ़ियां बनने को उत्सुक
पीढ़ियां उत्साह में फिसल…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 20, 2016 at 8:30am — No Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on March 20, 2016 at 7:18am — 1 Comment
"ये लो इस गद्दार की लाश" एक सैनिक उस घर के बाहर खड़ा होकर चिल्लाया| आवाज़ सुनकर मोहल्ले के लोगों की भीड़ जमा हो गयी|
"इनका परिवार पुश्तों से सेना में है और आखिरी वंशज गद्दार निकला" मोहल्ले के लोगों में फुसफुसाहट होने लगी|
उसका पिता सिर झुकाये चुपचाप घर से बाहर निकला| उसकी लाल आँखें और उतरा हुआ चेहरा बता रहा था कि कुछ रातों से वह सोया नहीं है|
"देश के लोगों के खून के साथ होली खेलनी थी ना, तो आज होली के दिन ही लाये हैं" दूसरा सैनिक तल्खी से बोला|
"अब इस पर हस्ताक्षर…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on March 19, 2016 at 10:30pm — 5 Comments
2122 2122 2122 212
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दुश्मनों के डर को उसने अपना ही डर कर लिया
और दामन दोस्तों के खून से तर कर लिया ।1।
जब नगर में रह न पाए दोस्तो महफूज हम
आदिमों के बीच हमने दश्त में घर कर लिया ।2।
चोट खाकर भी हँसे हैं आँख नम होने न दी
सब गमों को आज हमने देखिए सर कर लिया ।3।
आपके तो पर परिंदों फिर भी क्यों लाचार हो
हर कठिन परवाज भी यूँ हमने बेपर कर लिया ।4।
कह न पाए बात कोई…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 19, 2016 at 12:31pm — 10 Comments
Added by रामबली गुप्ता on March 19, 2016 at 11:26am — 2 Comments
१
राहत देती
घुटने सहलाती
टुकड़ा धूप
२
पहाड़ स्पर्श
आचमन झीलों का
पधारी धूप
३
वक्त की छन्नी
बारीक-दरदरा
छानती धूप
४
थी गुलाब वो
बनी है अब शूल
धूप बबूल
५
तप के आई
बादलों से लड़ती
साहसी धूप
६
खेत में सोना
फलियों में मणिका
बो गई धूप
७
भोर को लाल
संध्या को सुनहरा
रंगती…
ContinueAdded by Manisha Saxena on March 19, 2016 at 12:00am — 3 Comments
221/2121/122/1212
.
आसानियों के साथ परेशानियाँ रहीं,
गर रौशनी ज़रा रही, परछाइयाँ रहीं.
.
क़दमों तले रहा कोई तपता सा रेगज़ार,
यादों में भीगती हुई पुरवाइयाँ रहीं.
.
नाकामियों में कुछ तो रहा दोष वक़्त का,
ज़्यादा कुसूरवार तो ख़ुद्दारियाँ रहीं.
.
ऐसा नहीं कि तेरे बिना थम गया सफ़र
हाँ! ज़िन्दगी की राह में तन्हाइयाँ रहीं.
.
क़िरदार.. कुछ कहानी के, कमज़ोर पड़ गए
कुछ लिखने वाले शख्स की कमज़ोरियाँ रहीं.
.
मिलते…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on March 18, 2016 at 9:08pm — 19 Comments
कैक्टस का फ़ूल –( लघुकथा ) –
कालेज की ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में सुबोध इस बार अपने मित्र आनंद का आग्रह टाल ना सका और उसके गॉव आगया!काफ़ी बडा गॉव था!कहने को गॉव था पर शहरी हर सुविधा मौज़ूद थी!रेलवे स्टेशन,बस स्टॉप,अस्पताल,बैंक ,बिजली,पानी,टी वी,इंटरनैट आदि सब उपलब्ध था!
बैठक में सुबोध अकेला बैठा था कि एक सज्जन मिलने आगये!बडा अजीब प्रश्न किया,"क्या तुम भी माया को देखने आये हो"!
सुबोध कुछ कहता उससे पहले ही आनंद आगया और वह सज्जन खिसक लिये!सुबोध को कुछ समझ नहीं आया अतः आनंद से…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on March 18, 2016 at 8:06pm — 6 Comments
Added by रामबली गुप्ता on March 18, 2016 at 7:58pm — 2 Comments
Added by रामबली गुप्ता on March 18, 2016 at 7:49pm — 3 Comments
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