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April 2015 Blog Posts (226)

देशभक्ति (लघुकथा)

"अरे इस बॉल पे तो चार रन बन जाते पर सब तो पेप्सी के एड से ही कमाते है..। देश जाए भाड़ में." रेस्टोरेंट में टी वी देखते हुए स्वदेश ने ज्यूँ ही बिल देखा।"अरे ये १४० रूपये टैक्स के क्यों जोड़ दिए कच्चा बिल ही बना देते।"

"पर बाबू जी इसी टैक्स से तो देश चले है। चुप कर जानता है कौन हूँ मैं ?" "सेल्स टैक्स की रेड पड़वा दी तो भूल जाएगा ये देशभक्ति।"

मौलिक एवम् अप्रकाशित

Added by Sudhir Dwivedi on April 25, 2015 at 9:47am — 12 Comments

बदलते चेहरे (लघुकथा)

दानशीलता , सज्जनता और खुली सोच के कारण लाला गजेन्द्र प्रसाद का हर कोई कायल था । चुनाव में वे दमदार प्रत्याशी होकर जब बस्ती में गये तो गरीबों की दशा देख रो पडे । स्त्री सम्मान और गरीबों के प्रति बेहद संवेदनशील भाषण भी दिया । अपने ऑफिस से निकले तो ड्राइवर को नदारद देख उनका पारा चढ़ गया।उसके आते ही एक तमाचा उसके गाल पर दिया और बिना कारण जाने सप्ताह भर की तनख्वाह काट लेने का आदेश भी। उनकेे कार्यकलाप के ब्यौरे के लिए पीछा कर रही संवाददाता छाया उनके ये बदलते रूप देखकर चौंक गई।पर कुछ सोच समझ पाती…

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Added by jyotsna Kapil on April 25, 2015 at 8:00am — 4 Comments

चार दिन की चांदनी (लघुकथा)

श्रेया अपने से बड़ी उम्र के,अत्यंत आकर्षक एवं विवाहित बॉस रजत के प्रेम में पड़कर ज़माने को भूल बैठी। माँ व भाई ने कितना समझाया, विवाह के लिए,पर वह तो कुछ सुनने को तैयार ही न थी। अलग फ्लैट लेकर रहती थी,जहाँ सुविधा के अनुसार रजत आकर उसके साथ वक़्त बिताते थे।



उस दिन वह ज्वर से तप रही थी। रजत को पता लगा तो तुरंत भागे चले आये।श्रेया को उनका साथ बहुत अच्छा लग रहा था।

तभी मोबाइल बज उठा । उन्होंने दूसरी ओर से जो कहा गया सुना,

फिर उठते हुए कहा - "सॉरी श्रेया-आज तुम्हारे पास नहीं रुक…

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Added by jyotsna Kapil on April 25, 2015 at 8:00am — 5 Comments

तोहफा (कहानी )

तोहफा :

हेमा के हाथों में मेहँदी लग चुकी थी | विवाह में अब केवल दो ही दिन शेष रह गए थे |

रिश्तेदारों के नाम पर आए हुए कुछ लोगों में से दो महिलाएं खुसर फुसर कर रहीं थीं ||

“अरे इसके चेहरे पर तो दुल्हनों जैसी चमक ही नहीं है कितना बुझा बुझा सा मुखड़ा लग रहा है!

“अब क्या करे बेचारी ! माँ बाप ने कैसे न कैसे, जोड़ तोड़ करके तो यह रिश्ता करवाया है | “

"हाँ तुम सही कह रही हो | लेकिन यह अकेली ही तो इस घर की जिम्मेदारी उठा रही थी| अब क्या होगा इसके जाने के बाद ?"

"भाई है न…

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Added by डिम्पल गौड़ on April 25, 2015 at 12:47am — 10 Comments

खुदा से भी मिला हूँ मैं

भला हूँ मैं बुरा हूँ मैं
मुहब्बत का ज़ला हूँ मैं 
----
खुदा भी साथ है उसके
खुदा से भी मिला हूँ मैं
-----
बिना ही तेल के जलता
रहा हूँ वो दिया हूँ मैं
-----
न पूछो हाल कैसा है
न पूछो क्यों जीया हूँ मैं
-----
चला जा तू दगा देकर
मगर फिर भी तेरा हूँ मैं
-----
बिना सावन बरसती है 
सदा ही वो घटा हूँ मैं

उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित

Added by umesh katara on April 24, 2015 at 6:43pm — No Comments

कर्त्तव्यो की अजब कहानी...

कर्त्तव्यो की अजब कहानी, जीवन भर करता नादानी।

भूख लगे तो चिल्लाता यों, सारे जग का मालिक है वो।

शोषण का अपराध हृदय में, खोखल तना घना लगता वो।।

हाथ, पैर, मुख कर्म करे पर, अॅखियॉं मूंद करे बचकानी।

कर्त्तव्यो की अजब कहानी, जीवन भर करता नादानी।। 1

दया-करूण की ममता देवी, निश्छल अन्तर्मन की वेदी।

नहीं जरा भी रूक पाती है, करूणा-ममता बरसाती है।।

जीवन भर उल्लास बॉंट कर, पीती सदा नयन से पानी।

कर्त्तव्यो की अजब कहानी, जीवन भर करता नादानी।।…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 24, 2015 at 6:35pm — 3 Comments

कब्र में आज कुछ नमीं सी है !

कब्र में आज कुछ नमीं सी है,

शबे-माह कौन यहाँ आया है !

कहाँ हैं वो ..जिनके अश्कों नें,

अज़ल को ......ख्व़ाब से जगाया है !!

दूर वीरानें में .....दरख्तों पर ,

ये किसने चाँद को लटकाया है !

उम्र बस यूँ हि.....गुज़र जायेगी,

वक़्त बीता ...कब लौट के आया है !!

चले थे साथ ...मगर चल न सके,

एहसासात ........बेनवा निकले ! 

दर्द की दर्ज़ को भी सी न  सके,

रफूगर ही ......बेवफ़ा निकले !!

ता उम्र मिला न…

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Added by rajkumarahuja on April 24, 2015 at 3:30pm — 2 Comments

काश (लघु कथा )

वह आकाश में परिंदे की तरह उड़ रही थी ।माँ निश्चिन्त थी की बेटी तरक्की कर रही और पिता आजादी दे समय से ताल मिला रहे थे।बेटी के सोने -जागने , आने जाने से किसी का कोई सरोकार नहीं था।

" पापा मेरी तबियत खराब हो गयी है ।"

मुँह अँधेरे होटल पंहुचे पिता अपनी पुत्री को अस्त व्यस्त और नशे में डूबी देख समझ चुके थे की क्या घट चुका है।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Archana Tripathi on April 24, 2015 at 8:30am — 21 Comments

पाषाण ........

हो चुकी हो तुम एक पाषाण

वो एहसासों की लहरों पे तैरना

धड़कनों को खामोशीओं में सुनना

होठों को छू लेने की तड़प

आगोश में भर लेने की चसक

सब रेत के घरोंदे थे .........

रेत के इन घरोंदों को

तूफ़ान से पहले क्यूँ खुद ही ढाना पड़ता है !

चादर में ग़मों की फटन को

वक़्त के धागे से क्यूँ ख़ुद ही सीना पड़ता है !

नींद के आगोश में

मरे हुए ख़वाबों को क्यूँ खुद ही ढोना पड़ता है !

उमंगों के उड़ते परिंदों को

दर्द के दरिया में क्यूँ…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 24, 2015 at 4:15am — 12 Comments

चेहरे पे चेहरा ( लघुकथा )

स्त्री का सम्मान , आजादी और शिक्षा के लिए भरपूर प्रयास करने जैसी ढेरों आदर्श वादी बातों से प्रभावित स्नेहा लेक्चरर साहब घर जा पहुंची।
दस्तक से पूर्व ही कर्कश आवाज " खबरदार बिना मेरी अनुमति के कोई परिवर्तन किया तो लात मार घर से निकाल दूंगा I"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Archana Tripathi on April 24, 2015 at 1:00am — 9 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : संवेदना (गणेश जी बागी)

गर्मी में भीग जाते हैं

पसीने से  

ठंढ में खड़े हो जाते हैं

रोयें...

हमारी त्वचा

तुरंत परख लेती है

मौसम परिवर्तन को

 

धूल-कण आने से पहले

बंद हो जाती हैं पलके

उन्हें पता चल जाता है

है कोई खतरा

 

सुगंध और दुर्गन्ध में

अंतर करना जानती हैं

ये नासिका

खट्टा, मीठा, तीखा सब

तुरंत भाप लेती है

हमारी जिह्वा

 

हल्की सी आहट को

पहचान लेते…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 23, 2015 at 8:18pm — 23 Comments

नक़ाब (लघुकथा)

" अब्बू ,ये नकाब और ये बुर्का? मैं नहीं पहनूंगी बस। "कहते हुए नीलोफर बाहर निकल गयी।
"क्या आप भी नीलोफर के अब्बा।ज़माना बदल गया है।आप भी बदल जाइए न।"
"कैसे बताऊँ तुमलोगों को बेग़म। ज़माना बिलकुल भी नहीं बदला है।बल्कि और भी बदतर हो गया है लड़कियों के लिए।"
कहते हुए हुए सिद्दकी साहब के जहन में वे सारी एक्स रे जैसी निगाहें घूमने लगीं जो कल बाज़ार में उनकी मासूम बच्ची के शरीर को छेदती हुई उनके दिल में सुई की तरह चुभ रही थीं।

.

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Mala Jha on April 23, 2015 at 7:00pm — 17 Comments

राजनीती - एक मुक्त तुकांत कविता

पार्टियों की रेस तो देखो कितनी है रफ़्तार

सत्ता में जब भी आ जाती, होता हाहाकार

 

चुनाव जीतकर आ जाए तो कितना अहंकार

भ्रष्टाचार का सभी तरफ फ़ैल गया अंधकार

 

काम करे सरकारी अफसर, कर रहे उपकार

रिश्वत खाकर फूले हैं और हो गए मक्कार

 

ईमानदारी पर आजकल मिलती है फटकार

बिक गए हैं बेईमानी में हम सब के संस्कार  

 

नेता भाई किसान को जाकर दे गए ललकार

दाम दे देंगे जमीन के बंद करो फुफकार

 

कदम कदम पे रह…

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Added by Nidhi Agrawal on April 23, 2015 at 6:15pm — 8 Comments

मन्दिर का घंटा



बिना लाग लपेट के 

बिना पाखण्ड के 

सुन लेता है 

समझ लेता है

ईश्वर मन की बात

जान लेता है आत्मा के भाव

फिर भी जाने क्यों 

मन्दिर का घंटा जोर जोर से

तीन बार बजाने पर हr

प्रार्थना पूर्ण होने का

पूर्ण सा अहसास होता है

आत्म-मन -चित्त को  

बडा ही भ्रमित है 

मेरा अल्पज्ञान 

ये सोच सोचकर 

भारहीन मौन प्रार्थना को

ईश्वर तक पहुँचाने के लिये 

मन्दिर के घंटे की आबाज 

का  भारी भरकम

भार क्यों लपेटा जाता है ?



मौलिक व…

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Added by umesh katara on April 23, 2015 at 9:01am — 21 Comments

विवशता (लघुकथा) : डॉo विजय शंकर

बहुत ही व्यस्त कार्यक्रम था आज मंत्री जी का। सारे दिन शैक्षिक गुणवत्ता की कायर्शाला में अधिकारियों , शिक्षाविदों के साथ वाद-विवाद में जबरदस्त सक्रिय रहे माननीय मंत्री जी, बार बार यही दोहराते रहे , " सदियों से हम विश्व-गुरु रहें हैं, हम ऐसी शिक्षा दें कि कोई भी शिक्षा के लिए विदेश न जाना चाहे।"

शाम घर जाते कार में पी ए से बता रहे थे:

"हफ्ते भर बाहर रहूंगा, रात दिल्ली निकल रहा हूँ I कल अमेरिका की फ्लाइट है, बेटे को हॉस्टल छोड़ कर आना है।.कहाँ कहाँ का जुगाड़ लगाया है तब एडमिशन मिला…

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Added by Dr. Vijai Shanker on April 23, 2015 at 9:00am — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- कोलाहल थोड़ा सा कोई लाया क्या ? ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  2   

दरवाज़े पर देखो कोई आया  क्या ?

अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?

ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी

खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?

कुतिया दूध पिलाती है, बंदरिया को

इंसाँ मारे इंसाँ को, शर्माया क्या ?

 

फुनगी फुनगी खुशियाँ लटकी पेड़ों पर

छोटा क़द भी, तोड़ उसे ले पाया क्या ?

 

सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े

कोई पत्थर ,पत्थर से टकराया क्या ?



जुगनू सहमा सहमा सा…

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Added by गिरिराज भंडारी on April 22, 2015 at 6:30pm — 28 Comments

जिन्दगी के गीत गाता आदमी रो जायेगा

२१२२    २१२२    २१२२   २१२

जिन्दगी के गीत गाता आदमी रो जायेगा

जिस घड़ी पत्थर का ये दिल मोम सा हो जायेगा

 

भूख से बेहाल बच्चा जो न सोया अब तलक

माँ अगर लोरी सुना दे भूखा ही सो जायेगा

 

आज तक मंदिर न जाकर कर दिया जो पाप है

माँ की सेवा से मिला आशीष वो धो जायेगा

 

मुतमइन था देख कर मैले में इंसानों की भीड़

तब न सोचा था,यहाँ बच्चा मेरा खो जाएगा

 

मानती जिस को थी दुनिया इक मसीहा आज…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on April 22, 2015 at 1:00pm — 15 Comments

बेवकूफ कौन (लघुकथा)

"माँ, इस एफ.डी.आर. में भी नॉमिनी मुझे ही रखना, भैया सम्भाल नहीं सकता|"


"बेटे, मैं बराबर बांटना चाहती हूँ| उसको देख, तेरे पिताजी के देहांत के बाद उसने खुदके हक की सरकारी नौकरी तुझे दे दी और खुद प्राइवेट नौकरी में धक्के खा रहा है|"


"यही बात तो उसको बेवकूफ साबित करती है|"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 22, 2015 at 12:35pm — 13 Comments

"भूख में उछाल आ गया"

आदमी की भूख में उछाल आ गया |
पत्थरों को घिस दिया पहाड़ खा गया |

रुख बदल के जल प्रवाह मोड़ ही दिया,
भूख ही थी आदमी कमाल पा गया |

तम निगल कर रौशनी तमाम कर दिया,
जब लगाई युक्ति तो विकास छा गया |

देखकर सबकुछ खुदा मगन दिखा वहाँ,
आदमी को आज का मचान भा गया |

तन मिला दुर्लभ इसे वृथा नहीं किया
जिन्दगी थोड़ी मगर उठान ला गया ||

( मौलिक अप्रकाशित )

Added by Chhaya Shukla on April 22, 2015 at 12:00pm — 6 Comments

कोकिला क्यों मुझे जगाती है,

कोकिला क्यों मुझे जगाती है,
तोड़ कर ख्वाब क्यों रुलाती है.


नींद भर के मैं कभी न सोया था,
बेवजह तान क्यों सुनाती है.

चैन की भी नींद भली होती है 
मधुर सुर में गीत गुनगुनाती है 

बेबस जहाँ में सारे बन्दे हैं
फिर भी तू बाज नहीं आती है

(मौलिक व अप्रकाशित)

- जवाहर लाल सिंह 

गजल लिखने की एक और कोशिश, कृपया कमी बताएं 

Added by JAWAHAR LAL SINGH on April 22, 2015 at 12:00pm — 12 Comments

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