For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

May 2016 Blog Posts (130)

ग़ज़ल (गुलशन के लिए )

ग़ज़ल (गुलशन के लिए )

------------------------------

2122 --2122 --212

जो चुने तिनके नशेमन के लिए ।

जल गए वह रात गुलशन के लिए ।

ख़ार मुरझाते नहीं गुल की तरह

क्यों नहीं चाहूँ मैं दामन के लिए ।

उनको ही शायर समझता है जहाँ

जिन के ईमां बिक गए धन के लिए ।

रास्ते तन्हा कभी कटते नहीं

लाज़मी साथी है जीवन के लिए ।

क्या पता कब दिल पे कर जाए असर

मैं वफ़ा रखता हूँ दुश्मन के लिए…

Continue

Added by Tasdiq Ahmed Khan on May 16, 2016 at 9:28pm — 6 Comments

आवारगी – ( लघुकथा ) -

आवारगी – ( लघुकथा )  -

 मुंबई जाने वाली एक्सप्रेस गाडी में टिकट चैक करने पर टी सी गोस्वामी जी को दो लडके बारह तेरह साल की उम्र के बिना टिकट मिले!

"कहां जा रहे हो"!

"शहर"!

"कौनसे शहर"!

"मालूम नहीं, जहां तक गाडी लेजाय"!

"टिकट क्यों नहीं लिया"!

"साब टिकट के पैसे नहीं थे!तीन दिन से कुछ खाया भी नहीं है!गॉव में सूखा और अकाल है!भुखमरी फ़ैली है!सोचा था शहर जाकर कहीं ढावा या होटल में वर्तन धोने का काम कर लेंगे तो रोटी तो मिलती रहेगी"!

"अब बिना…

Continue

Added by TEJ VEER SINGH on May 16, 2016 at 7:06pm — 16 Comments

ग़ज़ल

ग़ज़ल2122-1212-22
अब तो चेहरा गुलाब लगता है
ना पढ़ी वो किताब लगता है
दर से तेरे खुदा असर पाया
रात दिन अब सबाब लगता है
जब से डूबी है सोहनी इसमें
मुझको कातिल चिनाब लगता है
खुश वो दिखता बहुत है अब सबको
जख्म गहरा जनाब लगता है
प्यार के नाम पर करे झगड़ा
सोच के ही इताब लगता है
मुनीश 'तन्हा'....नादौन...9882892447
मौलिक व अप्रकाशित

Added by munish tanha on May 16, 2016 at 6:04pm — 2 Comments

फ़रेबी रात …

फ़रेबी  रात …

छोडिये साहिब !

ये तो बेवक्त

बेवजह ही

ज़मीं खराब करते हैं

आप अपनी अंगुली के पोर

इनसे क्यूं खराब करते हैं

ज़माने के दर्द हैं

क्योँ अपनी रातें

हमारी तन्हाई पे खराब करते हैं

ज़माने की निगाह में

ये नमकीन पानी के अलावा

कुछ भी नहीं

रात की कहानी

ये भोर में गुनगुनायेंगे

आंसू हैं,निर्बल हैं

कुछ दूर तक

आरिजों पे फिसलकर

खुद-ब-खुद ही सूख जायेंगे

हमारे दर्द हैं

हमें ही उठा लेने दीजिये…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 16, 2016 at 4:31pm — 6 Comments

ग़ज़ल- काम आईँ नही दवाएँ क्यूँ

2122 1212 22



बेअसर हो गईं दवाएँ क्यूँ

काम आईं नहीं दुआएँ क्यूँ



हम ग़लत फ़हमियों में आएँ क्यूँ

दोस्त है वो तो आज़माएँ क्यूँ



आँख तक आँसुओं को लाएँ क्यूँ

ज़ब्त की एहमियत गिराएँ क्यूँ



साँस दर साँस एक ही सरगम

दूसरा गीत गुनगुनाएँ क्यूँ



जिसके सीने में दिल हो पत्थर का

उसकी चौखट पे गिडगिडाएँ क्यूँ



वक्त आने पे जान जाएगा

इश्क़ क्या है उसे बताएँ क्यूँ



हो गईं क्या समाअतें कमज़ोर

कोई सुनता नहीं सदाएँ…

Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on May 16, 2016 at 12:00am — 12 Comments

ग़ज़ल~ तेरे आगे

(1122।1212।1212)



तेरे आगे मेरा जो हाल था सो है।

तेरी चाहत तेरा मलाल था सो है।



तू मेरी ज़िन्दगी बनेगी एक दिन

दिलेफित्ना का ये खयाल था सो है।



तेरी हसरत तेरी दिवानगी जुनून

तू मुझे साहिबे-कमाल था सो है 



यूँ गमों ने की बारिशें बहुत मगर

जो रगों में मेरे उबाल था सो है।



न रही तेरे दिल में पहले सी वफ़ा

न सही, मुझको ये बवाल था सो है



वही क़ातिल वही गवाह और सितम

वही मुंसिफ वही सवाल था सो है।



(मौलिक व्… Continue

Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 15, 2016 at 9:57pm — 8 Comments

​ग़ज़ल ..भूख के चर्चे हुये हैं मुफलिसी की बात है...

2122        2122       2122      212



हो बड़े मगरूर अपनी जीत मेरी हार में

हम लुटा देते हैं हस्ती प्रेम के व्यापार में

भूख के चर्चे हुये हैं मुफलिसी की बात है

वांच ली सारी किताबें क्या रखा है सार में

गीत बैठे तक रहे हैं झनझनाहट तार की

क्या जुगलबंदी हुई है राग सुर औ प्यार में

बाँध कर सिर पे कफ़न हैं चल पड़े कुछ…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 15, 2016 at 8:30pm — 10 Comments

गजल(मनन)

2122 2122 2122 212

सैर करना हो रहा हावी बला की वार पर

चौखटें कब लाँघती वह बिलबिलाती द्वार पर।1



ध्यान केंद्रित कीजिये आचार फिर आहार पर

शर्करा कम लीजिये नजरें रखें जी खार पर।2



तेल-घी कुछ कम चपोड़ें सादगी सबसे भली

दाल-रोटी सब्जियाँ फल बात बनती चार पर।3



रात को बिस्तर लगाना जल्द होना चाहिए

ध्यान रहना चाहिए रोजी तथा व्यापार पर।4



त्यागिये बिस्तर सबेरे ताजगी देती हवा

भागिये मैदान में कर रोग- बाधा द्वार पर।5

मौलिक व… Continue

Added by Manan Kumar singh on May 15, 2016 at 7:00pm — 6 Comments

मिलन / गद्यगीत पर एक प्रयास

जैसे ही धरती को छूने आकाश नीचे सरक कर आया कि अपने में सिमटती धरती घुटनों पर झुक गई।

ऊँचे - ऊँचे पहाड़ों में ,निस्पंद- सा देवदार अपने ही साये में सिमटकर खड़ा रहा। पहाड़ों को भी अब अपनी अलंध्यता गलत साबित हो रही थी । उल्लासमय वातावरण में

मायावी संगीत-सी , अलग - अलग ताल ,अलग - अलग रंगों में सपने ,एक अविस्मृत अद्भुत मायाजाल -सी फैला गई । मोह - पाश का बँधन और मुक्ती की यातनामय चाहना , धूप के संग -संग पल -छिन उजालों के रंगों का भी बदलना , मन की अतल गहराईयों से निकलकर उगते चाँद पर सिन्दूरी रंग… Continue

Added by kanta roy on May 15, 2016 at 11:39am — 9 Comments

लौट आओ साजन सावन के पहले - (अरुणेन्द्र मिश्र)

वो लम्हे विरह गीत न बन जाये

लौट आओ साजन सावन के पहले

पपिहा पीऊ पीऊ आवाज लगाये

पेडो पर पड गये झुले

कजरी लागे मोहे सौतन

बदरा की बुन्दे जलये तन मन

लगी है प्रित मेरी अब अशुअन से

लौट आओ साजन सावन के पहले

 

जोगन न बन जाये कही ये बिरहन

लौट आओ साजन सावन के पहले

 

 

मुख मलिन , जैसे काली बदरिया

पनघट पे ना रिझाये कोइ सवरिया

सुनी सुनी पडी है पुरी डगरिया

आंगन सुना, सुना भयॊ मेरे मन का…

Continue

Added by arunendra mishra on May 14, 2016 at 7:30pm — 3 Comments

मॉ की दवा – ( लघुकथा )

"राजू बेटा, क्या कर रहा है! मेरी दवा खत्म हो गयी है! मेरी डायरी ले जा और मेरी दवाइंयॉ ले आ"!

"मॉ, आज क्लब में हम लोग मदर्स डे मना रहे हैं! मुझे क्लब का सैक्रेटरी होने के नाते मदर्स डे के ऊपर एक भाषण देना है! अपनी सोसाइटी में काम करने वाली बाइयों एवम अन्य महिला कर्मचारियों को वस्त्र, मिठाईयां और दबाईयां वितरण करनी हैं! अतःउसी की रूप रेखा तैयार कर रहा हूं! आज तो बहुत मुश्किल है! "!

“तो बेटा ऐसा कर कि उसी महिलाओं की लिस्ट में मेरा भी नाम लिख ले”!

मौलिक व अप्रकाशित

Added by TEJ VEER SINGH on May 14, 2016 at 1:00pm — 12 Comments

रोशनी

अंधेरे में रोशनी,

जीवन का सहारा ।

शाम को बिछड़ती,   

जब सुबह निहारा ।

इधर जब पौ फटी,  

तो देखो लो नजारा।  

क्या जानवर, पक्षी,

सब दिखे बे सहारा।

कोई रहम न करता ,

क्या कानून निराला ।

भूखे इंसान की रोटी,

बेटी हजम कर डाला। 

रोशनी की आस दिखती,

परंपरा का डर दे डाला ।

तन मन पर हजारों पीड़ा,  

सहन करके भी जी लेता ।  

अपनों का पेट भरता ,

अतीत को भूल जाता ।

मानवता को कलंकित…

Continue

Added by Ram Ashery on May 14, 2016 at 1:00pm — 3 Comments

दुख की धूप हमें दे रक्खो सुख की सारी छाँव घनी - ( गजल) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2222    2222    2222    222

*********************************

यौवन  भर  देखी  है  हमने  कैसी  कैसी  छाँव घनी

कहने से भी मन डरता अब मिलती थोड़ी छाँव घनी।1



धूप अगर  होती  राहों  में तो  साया  भी मिल जाता

लेकिन अपने पथ में यारो मंजिल तक थी छाँव घनी।2



हमको तो  आदत  सहने की  सर्दी गर्मी बरखा सब

दुख की धूप हमें दे रक्खो सुख की सारी छाँव घनी।3



छाया अच्छी तो है  लेकिन बढ़ने से जीवन जो रोके

कड़ी  धूप से  भी बदतर  है यारो  ऐसी छाँव घनी।4



फसलों…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 14, 2016 at 10:51am — 6 Comments

प्रार्थना

हे जग जननी आस तुम्हारा
शब्दों को देती तुम धारा
वाणी को स्वर मिलता तुमसे
कण-कण में है वास तुम्हारा |

दिनकर लेते ओज तुम्ही से
शशि की शीतलता में तुम हो
नभ गंगा की रजत धार में
झिलमिल करता सार तुम्हारा |

सिर पर रख दो वरद हस्त माँ
कलम चले अनवरत मेरी
अंतर्मन के हर पन्ने पर
लिखती हूँ उपकार तुम्हारा ||


मीना पाठक
मौलिक/अप्रकाशित

Added by Meena Pathak on May 14, 2016 at 8:54am — 3 Comments

गुस्ताख सवाल(लघुकथा)राहिला

स्वर्ग के प्रवेश द्वार के बाहर लंबी-लंबी कतारें लगी हुई थीं ।तभी खुद से बहुत आगे आ़ला दर्ज़े के स्वर्ग वाली कतार में अपने खा़दिम को खड़ा देख, उनकी अना को जबरदस्त ठेस पहुंची।लेकिन ये वो जगह नहीं थी जहां किसी के मन में किसी प्रकार की शिकायत या सवाल रह जाये ।सो मन में सवाल का आना हुआ नहीं कि वहाँ के दो कर्मचारियों ने फौरन उसे कतार से उठा कर परमेश्वर के समक्ष ला खड़ा किया ।

"बोलो. .!हमारे न्याय पर तेरे मन में क्या सवाल खड़ा हुआ है? "

"प्रभु! समस्त जीवन मेरा दान, पुण्य,पूजा-पाठ में गुजरा ।… Continue

Added by Rahila on May 13, 2016 at 4:24pm — 14 Comments

होली

आज सबके मन का उल्लास देखते ही बनता था। सभी के हाथ में पिचकारी व रंग की बाल्टी थी जिससे वे सभी राहगीर और परिचितों को सराबोर कर रहे थे। रास्ते से गुजरने वाले उधर जाने से डर रहे थे कि जाने कब बच्चों की पार्टी उन्हें देख ले और उन पर रंगों की बौछार कर दे। सभी प्रसन्न चित हो घूम रहे थे। रामू ने देखा कि एक आदमी तेजी से उस तरफ चला आ रहा है। वह बगैर इधर-उधर देखे चला आ रहा था लगता था कि उसे बड़ी जल्दी थी। वह जब नजदीक आया तो रामू ने अपने हथियार संभाले और प्रहार की तैयारी की निशाना लगा ही रहा था कि तब…

Continue

Added by indravidyavachaspatitiwari on May 13, 2016 at 6:00am — 3 Comments

ख्वाब-ऐ-बशर ...

ख्वाब-ऐ-बशर ...

आज फिर

किसी का चूल्हा

उदास ही

बिन जले सो गया।

आज फिर

सांझ के दामन पे

भूख लिख गया कोई।

आज फिर

पेट की आग

झूठी आशा की बर्फ से

ठंडी कर

सो गया कोई।

आज फिर

कटोरे से

सिक्कों की आवाज़

रूठी रही।

आज फिर

खारा जल

पकी दाढ़ी को

धोता रहा।

आज फिर

निराशा का कफ़न ओढ़े

बिन साँसों के

सो गया कोई।

आज फिर…

Continue

Added by Sushil Sarna on May 12, 2016 at 2:47pm — 6 Comments

कोई छेड़े न ग़र बेहतर- ग़ज़ल

बहुत बेचैन हूँ इस पल

कोई छेड़े न गर, बेहतर।

उठा भूकम्प है मन में

सभाले तो कोई ये घर।।



चली है आरी-ए-मतलब

नहीं बाक़ी शज़र कोई।

हुआ पूरा शहर नंगा

ये दिल तो हो गया बंज़र।।



कहाँ तुमको खिलाऊँगा

न वो पनघट न पानी है।।

लहर नफ़रत की बहती है,

बहुत ही ख़ार है अंदर।।



अभी तो नींद टूटी है

अभी दुनिया से मिलना है।

मिलाकर आँख कहना है

ज़रा दिखलाओ अपने "पर"।।



डरायेगा कोई मुझको

अतल गहराइयों से क्या?

बताया जाये… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 12, 2016 at 9:53am — 6 Comments

सदा सुन के ज़मीं की, चाँद तारे छोड़ आया हूँ (ग़ज़ल)

1222 1222 1222 1222



फ़लक पर के सभी दिलकश नज़ारे छोड़ आया हूँ

सदा सुन के ज़मीं की, चाँद-तारे छोड़ आया हूँ



मैं अपने बोरिये-बिस्तर शहर ले के तो आया, पर

वो पनघट,बाग़,पोखर,खेत...सारे छोड़ आया हूँ



जहाँ अपनी वफ़ा का मुस्कुराता एक गुलशन था

वहीं अश्कों के कुछ तालाब खारे छोड़ आया हूँ



वज़ूद उसका न मिट जाए कहीं दरिया के दलदल में

तड़पती मीन को सागर किनारे छोड़ आया हूँ



पिछड़ जाए न बेटा रेस में, ज्यों गोद से उतरा

उसे हॉस्टल प्रतिस्पर्धा के… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on May 12, 2016 at 8:46am — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
डूबता हूँ रोज़ मैं तिनके लिये

2122 2122 212
डूबता हूँ रोज़ मैं तिनके लिये
जिंदा हूँ यूँ जाने किस दिन के लिये

साँसें तो भरपूर दी अल्लाह ने
पर हिसाब इनके भी गिन-गिन के लिये

ज़िन्दगी से रोज़ पल चुनता रहा
पर नहीं दो पल भी जामिन के लिये

ये ख़याल आये न मुझको आख़िरश
उम्र भर मरता रहा किनके लिये

हाल तक वो पूछने आये नहीं
इक तरफ़ रख दी क़लम जिनके लिये

-मौलिक, अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on May 11, 2016 at 8:57pm — 7 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, आपने रचना संशोधित कर पुनः पोस्ट की है, किन्तु आपने घनाक्षरी की…"
27 minutes ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
35 minutes ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व स्नेहाशीष के लिए आभार। जल्दबाजी में त्रुटिपूर्ण…"
1 hour ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आयोजन में सारस्वत सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी। शीत ऋतु की सुंदर…"
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"शीत लहर ही चहुँदिश दिखती, है हुई तपन अतीत यहाँ।यौवन  जैसी  ठिठुरन  लेकर, आन …"
11 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सादर अभिवादन, आदरणीय।"
11 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सभी सदस्यों से रचना-प्रस्तुति की अपेक्षा है.. "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post दीप को मौन बलना है हर हाल में // --सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। लम्बे अंतराल के बाद पटल पर आपकी मुग्ध करती गजल से मन को असीम सुख…"
Friday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं।हार्दिक बधाई। भाई रामबली जी का कथन उचित है।…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में…"
Tuesday
रामबली गुप्ता commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल…"
Nov 18
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी"
Nov 18

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service