उसकी अपनी कोई संतान नहीं थी लोग उसे बाँझ कहते थे ! उसने (बाँझ) दरवाजे में कुण्डी लगाया ही था, की तभी किसी बच्चे की रोने की आवाज सुन वो वही ठिठक भर गयी ! दरवाजे की कुण्डी खोल हाथ में लालटेन लिए वो आवाज के दिशा में चल पड़ी ! थोड़ी दूर पहुंची ही थी की अचानक सामने का दृश्य देख चौक पड़ी, छोटे से कपडे में लिपटा वो बच्चा भूख से बुरी तरह बिलबिला रहा था ! उसने बच्चे को उठा कर सीने से लगा लिया,बच्चा ममतामयी स्पर्श पा शांत होकर सो गया ! सुबह लोगो ने उसके झोपडी से बच्चे की आवाज सुनी सुनकर सब चौक गए ! सच से…
ContinueAdded by Jitendra Upadhyay on May 7, 2015 at 4:58pm — 9 Comments
गर्व से सर उठाये
पर्वत की शिखरोँ को
सूर्य की किरण, सर्वप्रथम
व अंतिम किरण, अंत तक
निज दिन चूमती है
परंतु चकित हूँ
यह फिर भी हरित नहीँ होती
हरित होती हैँ घाटियाँ
जीवन वहीँ विचरता है
किँचित यह ओट देने का श्राप है
अथवा दमन का प्रतिशोध
कि जल की एक बूँद नहीँ ठहरती यहाँ
जल स्त्रोत इसी गोद मेँ जन्म ले
पलायन कर जाते हैँ
हवा की सनसनाहट
बादलोँ की गडगडाहट
के अतिरिक्त कोई स्वर नहीँ…
ContinueAdded by Mohinder Kumar on May 7, 2015 at 3:45pm — 3 Comments
Added by मनोज अहसास on May 7, 2015 at 3:36pm — 5 Comments
1212 1122 1212 22 /112
चली गई मेरी मंज़िल कहीं पे चल के क्या
या रह गया मैं कहीं और ही बहल के क्या
वहाँ पे गाँव था मेरा जहाँ दुकानें हैं
किसी से पूछता हूँ , देख लूँ टहल के क्या
असर बनावटी टिकता कहाँ था देरी तक
वही पलों में तुम्हें रख दिया बदल के क्या
हरेक हाथ में पत्थर छुपा हुआ देखा
ये गाँव फिर से रहेगा कभी दहल के क्या
मेरा ये घर सही मिट्टी, मगर ये मेरा है
मुझे न पूछ थे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 7, 2015 at 9:16am — 31 Comments
पग पग तेरा मान करूँ
अपमान मेरा मत कर तू भी
एक दिन तो सबको मरना है
अभिमान जरा मत कर तू भी
जीवन की आँख मिचौली में
ठहरूँ पल भर मैं पलक तले
क्या है भरोसा कल सुबह तक
कौन बचे और कौन जले
कौन मिलेगा बीच सफर में
साथ मेरे ही चलता जा
आयू भी आधी निकल गयी
हाथ मले तो मलता जा
इक दूजे को देते रहें है
जाने क्यों हम गम दोनों
रेल की पटरी जैसे चलती
साथ चले हैं हम दोनों
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by umesh katara on May 7, 2015 at 7:20am — 8 Comments
Added by shashi bansal goyal on May 6, 2015 at 8:00pm — 18 Comments
मध्य अपने जम गयी क्यों बर्फ़.. गलनी चाहिये
कुछ सुनूँ मैं, कुछ सुनो तुम, बात चलनी चाहिये
खींचता है ये ज़माना यदि लकीरें हर तरफ
फूल वाली क्यारियों में वो बदलनी चाहिये
ध्यान की अवधारणा है, ’वृत्तियों में संतुलन’
उस प्रखरतम मौन पल की सोच फलनी…
Added by Saurabh Pandey on May 6, 2015 at 6:30pm — 40 Comments
2122 2122 2122
शम्स तो है वो मगर डूबा हुआ है
रौशनी से बेख़बर डूबा हुआ है
अपने होने का उसे अहसास तो हो
क्यों ग़मों में इस कदर डूबा हुआ है
क्या अँधेरा मेरी नज़रों में है मौजूद
या अँधेरे में ये घर डूबा हुआ है
रौशनी के सिर्फ इक ज़र्रे के दम पर
ठण्ड से वो बेअसर डूबा हुआ है
इस जुनूने इश्क़ का होगा समर* क्या *नतीजा
सोच में कोई इधर डूबा हुआ है
फिर गुजश्ता…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 6, 2015 at 5:00pm — 18 Comments
(१)
तुम्हारा शरीर
रेशमी ऊन से बुना हुआ
सबसे मुलायम स्वेटर है
मेरा प्यार उस सिरे की तलाश है
जिसे पकड़कर खींचने पर
तुम्हारा शरीर धीरे धीरे अस्तित्वहीन हो जाएगा
और मिल सकेंगे हमारे प्राण
(२)
तुम्हारे होंठ
ओलों की तरह गिरते हैं मेरे बदन पर
जहाँ जहाँ छूते हैं
ठंडक और दर्द का अहसास एक साथ होता है
फिर तुम्हारे प्यार की…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 6, 2015 at 4:00pm — 10 Comments
२१२२/ २१२२/ २१२२/ २१२
.दिल में गर तूफां उठे तो मुस्कुराना है कठिन
याद करना है सरल पर भूल जाना है कठिन.
.
यादों के झौंके पे झूले झूलना कुछ और है,
यादों के अंधड़ को लेकिन रोक पाना है कठिन.
.
हिचकियाँ आई यूँ ही होंगी तुझे नादान दिल!
भूलने वालों को तेरी याद आना है कठिन.
.
आड़ दो हाथों की पाकर सर उठा लेती है लौ,
हाँ खुली छत पर दीये का जगमगाना है कठिन.
.
कैसे कैसे लोग अब बसने लगे हैं शह्र में
अब लगे है यां भी अपना…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2015 at 4:00pm — 22 Comments
Added by मनोज अहसास on May 6, 2015 at 3:21pm — 10 Comments
समय कितना बदल गया है. वो दिन थे जब शरीर तोड़कर उतना ही पैदा कर पाता था, कि साल भर अपने परिवार का पेट भर सके.. अगर चार दिन को कोई मेहमान आ जाए तो आस-पड़ोस से उधार मांग लाता. और खूब से खूब इस बार के कर्ज के गड्डे को भर, फिर खुदाई शुरू कर देता..
आज भरपूर बिजली, पानी और कम ब्याज पर सरकारी ऋण से पैदावार बहुत बड़ गई है, अश्विन और बैशाख के माह में हर तरफ अनाज ही अनाज. खुशियों के सपने संजोये, बैलगाड़ी की जगह ट्रकों से अनाज लेकर उपार्जन केंद्र पर खड़ा है..
“ बाबूजी!! यह रहा मेरा…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on May 6, 2015 at 11:11am — 24 Comments
2122 1122 1122 22/112
हुस्न है रब ने तराशा न जुबाँ से कहिये
आप हैं बुझते दिए आप जरा चुप रहिये
आईना देख के बालों की सफेदी देखें
गाल भी लगते हैं अब आपके पंचर पहिये
आप तैराक थे उम्दा ये हकीकत है पर
बाजू कमजोर हवा तेज न उल्टे बहिये
इश्क का भूत नहीं सर से है उतरा माना
पर सही क्या है ये, इस उम्र में खुद ही कहिये ?
लोग जिस मोड़ पे अल्लाह के हो जाते हैं
आप उस मोड़ पे मत दर्दे…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on May 6, 2015 at 11:00am — 10 Comments
Added by VIRENDER VEER MEHTA on May 6, 2015 at 10:09am — 10 Comments
121 22 121 22 121 22 121 22
ये कैसी महफिल में आ गया हूँ , हरेक इंसा , डरा हुआ है
सभी की आँखों में पट्टियाँ हैं , ज़बाँ पे ताला जड़ा हुआ है
कहीं पे चीखें सुनाई देतीं , कहीं पे जलसा सजा हुआ है
कहीं पे रौशन है रात दिन सा , कहीं अँधेरा अड़ा हुआ है
ये आन्धियाँ भी बड़ी गज़ब थीं , तमाम बस्ती उजड़ गई पर
दरे ख़ुदा में झुका जो तिनका , वो देखो अब भी बचा हुआ है
हरेक…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 6, 2015 at 6:30am — 25 Comments
क्यूँ आज फिर घेर रहे,सन्नाटे मुझे?
क्यूँ उठ रहे बवंडर,यादों के?
क्यूँ ले रहे गिरफ़्त में अपनी?
जिनसे दूर बहुत,निकल आई हूँ मैं,
जिन्हें दबा चुकी ,बहुत गहरा
अरमानों के कब्रिस्तान में,
क्यूँ जकड़ रहे फिर आज?
मानो कि यकीन हूँ ज़िंदा।
हूँ महज़ इक बुत,चलता-फिरता।
बेजान बेज़ार सी ज़िन्दगी हलचल से दूर,
ढो रही हूँ बोझ,जिस्म का,
चुका रही हूँ कर्ज,साँसों का।
क्यूँ दिखाता है खुदा ख्वाब?
कभी जो पूरे हो नही सकते ,
क्यूँ देता है…
Added by jyotsna Kapil on May 5, 2015 at 10:30pm — 12 Comments
"कितने शर्म की बात है, हमारे आका लोग दुनिया भर से अरबों खरबों भेज चुके हैं, मगर तुम लोग फिर भी आज तक हिन्दुस्तान के टुकड़े नही कर पाए।"
"हमने हरचन्द कोशिश की, मगर ....."
"मगर क्या ?"
"ये लोग टूटते ही नहीI"
"क्यों नही टूटेंगे ? तुम इनको धर्म के नाम पर क्यों नही तोड़ते?"
"हम कश्मीर और पंजाब समेत कई जगहों पर ये कोशिश पहले ही कर चुके हैं सर।"
"कोशिश कर चुके हो तो कामयाब क्यों नही हुए अब तक?"
"क्योंकि इस देश की बुनियाद नफ़रत पर नही प्रेम पर रखी गई है…
Added by योगराज प्रभाकर on May 5, 2015 at 10:30pm — 15 Comments
फ़'इ'लात फ़ाइलातुन फ़'इ'लात फ़ाइलातुन (बह्र-ए-शिकस्ता) |
1121 - 2122 - 1121 - 2122 |
|
मेरे नाम से न चाहे तू अगर तो मत सदा दे |
मुझे देख के मगर तू, कभी हाथ तो हिला दे… |
Added by मिथिलेश वामनकर on May 5, 2015 at 10:00pm — 25 Comments
सात साल हो गये अत्याचार सहते सहते सोचा था कभी तो मनीष समझेगा उसे कभी तो उसके दिल मे उसके लिए प्यार जागेगा और कभी तो वो राधा को अपनी इस्तमाल की चीज़ के बजाय अपनी जीवन संगनी मानेगा!
पर नहीं अब भी वो वैसा ही था !!!! रोज़ दफ्तर से आकर वहाँ का गुस्सा राधा पर उतारना !आए दिन हर बात पे अपमानित करना गंदी गालियाँ देना !
पर आज तो हद ही हो गयी जब मनीष ने उसके चरित्र पर लांछन लगाया !
तडाक ****** एक ज़ोर का चाटा जडते हुए राधा ने उसका घर छोड़ने का एलान कर दिया।
राधा के जाने पर मनीष को…
Added by Priya mishra on May 5, 2015 at 9:30pm — 8 Comments
गौमाता का दर्द
कल जब देखा मैंने गौमाता की ओर मेरी ऑंखें भर आई
आंसू थे उनकी पलकों के नीचे , जैसे ही वह मेरे पास आई
गुम-सुम सी होकर देख रही थी मेरी ओर
रम्भा कर ही सही "मगर कह रही थी कुछ और"
हे मानव तुम चाहते क्या हो मुझ से ?
क्या संतुष्ट नहीं तुम इतने सुख से ?
धुप-छांव में दिन रात गुजारूं
बिना किसी ईंधन के वाहन की तरह रोज़ मैं चलती हूँ
खाने को जो भी मिले
ख़ुशी ख़ुशी चर लेती हूँ
कचरे की पेटी में पड़ा तुम्हारा झुटा भोजन खा लेती हूँ
घास में न…
Added by Rohit Dubey "योद्धा " on May 5, 2015 at 9:02pm — 5 Comments
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