डुगडुगी बजती रही.......
1.
गरजे घन घनघोर
प्रलय चहुँ ओर
तृण बहे
तन बहे
करके
सब को अशांत
फिर
वृष्टि का तांडव
हो गया
शांत
2
बुझ गयी
कुछ क्षण जल कर
माचिस की तीली सी
जंग लड़ती
साँसों से
असहाय काया
अस्थि कलश में
सिमट गयी
मुट्ठी भर राख में
साँसों की
माया
3
तालियों के शोर
चिलचिलाती धूप
करतब दिखाती बच्ची
रस्सी से गिर पड़ी
साँसों से संघर्ष…
Added by Sushil Sarna on August 4, 2017 at 5:26pm — 4 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 4, 2017 at 4:30pm — 14 Comments
घर के बाहर खुले आंगन में चेहरा लटका कर बैठे देख उसकी माँ ने उसके पास जाकर उसके सिर पर हाथ रखा और कहा, "परेशान मत हो, अगली बार बेटा ही होगा।"
"नहीं माँ, अब बस। दो बच्चे हो गए हैं, तीसरा होने पर इन दोनों बच्चियों की परवरिश भी अच्छी तरह नहीं कर पाऊंगा।" वहीँ पालने में सो रही अपनी नवजात बेटी को देखते हुए उसने उत्तर दिया।
माँ के पीछे-पीछे तब तक आज ही हस्पताल से लौटी अंदर आराम कर रही उसकी पत्नी को तरह-तरह के निर्देश देकर कुछ और महिलायें भी बाहर आ गयीं थीं। उनमें से…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 4, 2017 at 12:27pm — 5 Comments
यूँ तो सावन जाने को है, फिर भी ...
आया सावन मास सखी री
हरी हो गई घास सखी री
हरी चूड़ियाँ बिंदी साड़ी
हाथों में मेहँदी रंग गाढ़ी
झूले हो गए खास सखी री
गहराई है आस सखी री
श्वेत श्याम बादल उड़ आते
प्रियतम का संदेशा लाते
भरें कुलाँचे साँस सखी री
आया सावन मास सखी री
रंग गेरुआ घर घर डोले
जिसको देखो बम बम भोले
मन में है उल्लास सखी री
सुंदर वर की आस सखी री
ज्यों ज्यों सावन बीता जाए
मन उछाह से भर भर जाए
रक्षा…
Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 4, 2017 at 12:00pm — 4 Comments
Added by Tasdiq Ahmed Khan on August 4, 2017 at 8:13am — 12 Comments
मोबाईल पर खेला जाने वाला वह खेल युवाओं का पसंदीदा खेल बन गया था। युवाओं को दीवानगी की हद तक पहुंचाने वाले इस खेल में खिलाडी को हाथ पर मछली का चित्र गुदवाना और हर स्टेप जीतने पर गुदी हुई मछली पर एक कट मारकर किसी बहुमंजिला इमारत की पहली, दूसरी,तीसरी छत पर पहुंचनाऔर अंत में छटवीं मंज़िल से कूद कर आत्महत्या करना,सारे टास्क पूरे करके विजेता के लिये यह पुरस्कार था।दुनियाँ मेंअनेक स्थानों पर इस खेल के कारण हादसे हो रहे थे।आखिर पुलिस ने ऐसा खतरनाक खेल बनानेवाले उसआदमी को धर दबोचा।
"तुमने ऐसा…
Added by VASUDHA GADGIL on August 3, 2017 at 1:00pm — 4 Comments
दिल जिन्हें ढूंढे, वो हालात कहाँ
खाली दिल में वो है जज्बात कहाँ
बस एक रस्म निभा देते हैं
अब वो पहले सी मुलाक़ात कहाँ
लॉन शहरों में खूबसूरत हैं
गांव की उसमें मगर बात कहाँ
वक़्त बस यूँ ही गुजर जाता है
अब वो दिन और अब वो रात कहाँ
कभी शामिल थे जिनकी हर शै में
उनके अब ऐसे, खयालात कहाँ !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on August 3, 2017 at 12:30pm — 12 Comments
Added by surender insan on August 3, 2017 at 9:54am — 21 Comments
मैंने देखी आज रंगोली..
टी० वी० पर दूरदर्शन वाली
पहले भी देखा है कई बार
इसके अनेकों रूप कई प्रकार
कभी स्कूल के प्रांगण में सजी
कभी घर की देहली पर,
कभी दिवाली में तो कभी ब्याह–शादी में
रंग-बिरंगी, अनोखी-अलबेली
जब बनती तो अनोखा उत्साह होता
पहले धीरे-धीरे आकार लेती
उत्सुकता का कारण बनती
फिर अलग-अलग रंगों से
सजती-सँवरती, बनती-बिगड़ती
जब बन कर तैयार हो जाती
बच्चे खुश हो तालियाँ बजाते
युवा सेल्फी…
ContinueAdded by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 3, 2017 at 7:28am — 2 Comments
कितनी सहज हो तुम
कोई रिश्ता नही
मेरा ओर तुम्हारा
फिर भी
अनगिनत पढ़ी जा रही हो,मुझे
बिन कुछ कहे
बस मुस्कुरा कर
अनवरत सुनी जा रही हो ,मुझे
बस यही अहसास काफी है
संपूर्ण होने का,मेरे लिए !!
"मौलिक व अप्रकाशित"
© हरि प्रकाश दुबे
Added by Hari Prakash Dubey on August 2, 2017 at 11:30pm — 2 Comments
Added by Mohammed Arif on August 2, 2017 at 11:13pm — 10 Comments
कहाँ है,कौन है, कैसा नज़र आता है ,
वो ख़ुद में कम ,अब मुझ में ज़ियादा नज़र आता है
ये कैसी इबादत है ख़ुदा को मिरी,
माँगू ख़ुदा को भी ,तो वो ही नज़र आता है
वो धड़कन है,साँस है, ज़िंदगी भी है मिरी
करूँ आँखें बंद भी तो ,चेहरा उसी का नज़र आता है
अश्क़ ,ग़म,ख़ुशी ,मौसम,सभी तो है शामिल उसमें,
वो मुझे अब मिरी, ग़ज़ल नज़र आता है
चाहता तो वजूद ही मिटा देता उसका मगर,
वो ऐसा ज़ख़्म है दिल का ,जो फिर उभर आता…
Added by santosh khirwadkar on August 2, 2017 at 9:30pm — No Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 2, 2017 at 8:30pm — 8 Comments
Added by santosh khirwadkar on August 2, 2017 at 8:24pm — 2 Comments
Added by santosh khirwadkar on August 2, 2017 at 8:02pm — 6 Comments
आज कुछ यूँ हुआ कि ...
घोंसला टूटा गिरा था पेड़ के नीचे
एक नन्ही जान बैठी आँखें थी मींचे
उसकी माँ मुँह में दबाए थी कोई चारा
ढूँढती फिरती थीं नजरें आँख का तारा
हाथ मैंने जब बढाया मदद की खातिर
उसने समझा ये शिकारी है कोई शातिर
माँ हो चाहे जिसकी भी वो एक सी बनी
आज नन्हे पंछी की इंसान से ठनी
उसी टूटे नीड़ को रखा उठा फिर पेड़ पर
पंछी बनाते घोंसले इंसान तो बस घर..
सुबह आकर देखा तो हालात कल से थे
बारिश हुई थी और तिनके…
ContinueAdded by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 2, 2017 at 7:30pm — 6 Comments
Added by Samar kabeer on August 2, 2017 at 3:00pm — 27 Comments
दोहरा सुख
“सरकारी नौकरी में रखा क्या है”
“क्यों बहुत परेशान लग रहे हो| इस नौकरी ने तुम्हें क्या नहीं दिया है? अच्छी तन्खवाह ,सरकारी घर, काम करने के तय घंटे, और क्या चाहिये |”
“बंधीबंधाई तनखा से गुजारा कहाँ ?”
“और जो बंगले की ज़मीन, हर मौसम की सब्जी ,फल ----ताज़े का मज़ा ही और है|”
“अपने पोती पोतियों को इन्हीं साग-भाजी की फोटो दिखाना और तो कुछ कमाई तो की नहीं जीवन में|”
“दादा जी आम तोड़ दीजीये ना, मेरा हाथ नहीं पहुँच रहा है|”
“पेड़ पर चढ़ कर…
ContinueAdded by Manisha Saxena on August 2, 2017 at 12:11pm — 8 Comments
२२१/ २१२१/ १२२१/ २१२
हैरान क्या करेगा कोई मोजज़ा मुझे,
दुनिया का हर तमाशा लगे ख़्वाब सा मुझे.
.
हालाँकि ख़ुशबू इल्म-ओ-अदब की नहीं हूँ मैं,
लेकिन बिख़रने का है बहुत तज़रिबा मुझे.
.
इक रोज़ मैं ही तेरे किसी काम आऊँगा,
गरचे तू मानता ही नहीं काम का मुझे.
.
तेरे कहे पे चल पड़ा हूँ आँखें मूँदकर
ठोकर लगे तो मौला मेरे थामना मुझे.
.
ये कौन मेरे हिज्र को करता है और तवील,
जीने की फिर ये कौन दुआ दे गया…
Added by Nilesh Shevgaonkar on August 2, 2017 at 9:37am — 19 Comments
छंद – विजया घनाक्षरी(मापनीमुक्त वर्णिक)
विधान 32 वर्णों के चार समतुकांत चरण, 16 16 वर्णों यति अनिवार्य
8,8,8,8 पर यति उत्तम अंत में ललल अर्थात लघु लघु लघु या नगण अनिवार्य ।
सूखे कूप हैं इधर ,गंदे स्रोत हैं उधर,प्यासे वक़्त के अधर,मीठा नीर है किधर|
मैली गंग है उधर,देखें नेत्र ये जिधर,रोयें धरा ये अधर,जाए शीघ्र ये सुधर|
कोई भाव है न रस,कैसे शुष्क हैं उरस,वाणी नहीं है सरस,शोले रहे हैं बरस|
बातों बात ये…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 1, 2017 at 10:44pm — 4 Comments
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