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August 2015 Blog Posts (185)


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ग़ज़ल - बहुत की कोशिशें मैने गमों के पार जाने की ( गिरिराज भंडारी )

1222       1222      1222       1222

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बहुत की कोशिशें मैने गमों के पार जाने  की

मुझे फिर घेर लेतीं हैं वही खुशियाँ जमाने की

 

अगर सच है, तो वो सच है ,कभी कह भी दिया कोई

जरूरत क्या पड़ी थी आपको यूँ तिलमिलाने की

 

यक़ीं हो तो यक़ीं रखना नहीं तो बेयक़ीनी रख

तेरी आदत गलत लगती है मुझको, आजमाने की

 

अँधेरा इस क़दर हावी न हो पाता किसी आंगन

रही होती अगर चाहत दिये हर घर जलाने…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 5, 2015 at 2:16pm — 23 Comments

बदरिया कहाँ गई // कान्ता राॅय

सावन की बुनझीसी सखी है तन में लगाए आग .......बदरिया कहाँ गई



गोर बदन कारी रे चुनरिया ,सर से सरकी आज ......बदरिया कहाँ गई



सावन भादों रात अंहारी थर - थर काँपय शरीर ...... बदरिया कहाँ गई



दादूर मोर पपीहा बोले कहाँ गये  रघुनाथ.....बदरिया कहाँ गई



अमुआँ की डारी झूले नर- नारी मैं दहक अंगार ....बदरिया कहाँ गई



उमड़ उमड़े नदी जल पोखर तन में रह गई प्यास...... बदरिया कहाँ गई



सब सखी पहिरय हरीयर चुड़ी मोरा कंगना उदास ......…

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Added by kanta roy on August 5, 2015 at 2:00pm — 10 Comments

ग़ज़ल

122 122 122 122

कभी कोई मु‍फलिस कहां बोलता है ।

जो बोले तो फिर आसमां बोलता है ।।

ज़माना नहीं, पासबां बोलता है ।

हुआ कौन उसका, मकां बोलता है ।।

अभी लोग  उठकर रवाना हुए हैं ।

ये चूल्‍हों से उठता धुआं बोलता है ।।

 

अगर आंच गैरत पे आये तो बोले ।

वगरना कहां बेजुबां बोलता है ।।

 

दिलासा नहीं काम दे दो मुझे तुम ।

यही बात बोले जहां बोलता है ।।

जमीं उसकी दहकान से…

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Added by Ravi Shukla on August 5, 2015 at 1:30pm — 14 Comments

रंगीन छाता (लघुकथा)

"बेटा आज  तेरा जन्म दिन है ..मंदिर में पूजा करनी है , बाहर बूंदाबांदी है ..गाड़ी में मंदिर ले चलेगा ?" उसने कमरे के बाहर  से ही पूछा

"माँ i  जनम दिन भागा नहीं जा रहा है कहीं .. सोने दो , आज सन्डे है ...और आप भी ये खाली पेट  पूजा का नाटक छोड़ दो "

पीछे से बहू के भुनभुनाने की आवाज़ भी उसने साफ़ सुन ली थी

वो चुपचाप बाहर आ गई ,गाल में ढुलक आये आंसूओं को  उसने जल्दी से पोंछा और छाता ढूँढने  लगी

"चलो दादी मै चलता हूँ ,छाता भी है मेरे पास " अपना रंग बिरंगा बच्चों वाला छाता…

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Added by pratibha pande on August 5, 2015 at 12:30pm — 15 Comments

एक ग़ज़ल - सुलभ अग्निहोत्री

सच कहने की हलफ़ उठाई

अपनों से दुश्मनी निभाई

जिसके हाथ तुला दी उसने

पल्ले में पासंग लटकाई

दीपक तले अंधेरा देखा

देखी रिश्तों की गहराई

हम भी बर्फ़-बर्फ़ हैं केवल

जब से पाई है ऊँचाई

शेर कटघरे के अन्दर हो

कुछ ऐसे ही है सच्चाई

अपने ही दुखड़ों में खोये

कैसे पढ़ते पीर पराई

फूट पड़ा आवेग पिघलकर

जब सावन की पाती आई

जिसने कपड़े आप उतारे

उसको कैसी जगत…

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Added by Sulabh Agnihotri on August 5, 2015 at 11:35am — 18 Comments

कैसे कैसे बिकता है आदमी -- डॉo विजय शंकर

आदमी की कीमत समझता है आदमी

किस किस भाव देखिये बिकता है आदमी ॥



जमीर कीमती है जानता है आदमी

तभी उसका बड़ा खरीदार है आदमी ॥



जब चाहे जहां चाहे खरीद ले कोई

हर जगह हर वक़्त खूब बिकता है आदमी ॥



रिश्ते - दोस्ती में सब देखता है आदमी

बिकते समय कुछ नहीं देखता है आदमी ॥



खरीदार होना चाहिए देशी हो विदेशी

जानवर से भी सस्ते में बिकता है आदमी ॥



गुलामी कुप्रथा थी इक जो खत्म हो गयी

अब तो खुद बिकने को आज़ाद है आदमी… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on August 5, 2015 at 10:30am — 16 Comments

इच्छा (लघुकथा)

लघुकथा – इच्छा  

“ आज ऐसा माल मिलना चाहिए जिसे मेरे अलावा कोई और छू न सके,” कहते हुए ठाकुर साहब ने नोटों की गड्डी अपनी रखैल बुलबुल के पास रख दी और वहां से उठा कर हवेली के अपने कमरे में चल दिए.

“ जी सरकार ! इंतजाम हो जाएगा, ” कहते ही बुलबुल को याद आया कि सुबह ठकुराइन ने कहा था, ‘ बुलबुल बहन ! ठाकुर साहब तो आजकल मेरी और देखते ही नहीं. मैं क्या करूं ? ताकि उन को पा सकूं ? ’

यह याद आते ही उस की आँखों में चमक आ गई. उस ने नोटों से भरा बेग उठाया. फिर गुमनाम राह पर जाते-जाते…

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Added by Omprakash Kshatriya on August 5, 2015 at 9:00am — 26 Comments


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बदला (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

उसने कामवाली को जरा-सा जोर से क्या डांट दिया, पति और बेटे दोनों ने ये कहकर अयोग्य घोषित कर दिया कि उसकी नाहक ही परेशान होने उम्र नहीं है। परिवार के दबाव में स्टोर की चाबी बहू को सौपते हुए उसे लगा था जैसे उसके किचन नाम के किले पर किसी ने सेंधमारी कर ली हो।  वह सोच में डूबी थी कि अचानक बहू के चिल्लाने की आवाज सुनकर बोली-

 “अरे बहू सुबह सुबह क्यों डांट रही है बच्चे को, अब एक दिन स्कूल नहीं जाएगा तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा।” दादी की शह पाकर बच्चा दादी के साथ ही लग लिया। पूरा दिन दादी के…

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Added by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 2:30am — 26 Comments


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ग़ज़ल -- कुरआन पढ़कर आरती करता रहा - (मिथिलेश वामनकर)

2122--2122--2122--212

इस मकां को बामो-दर से एक घर करती रही

माँ मुसलसल काम अपना उम्र भर करती रही

 

धूप बारिश सर्दियों को मुख़्तसर करती रही

बीज की कुछ कोशिशें मिलकर शज़र करती रही…

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Added by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 1:00am — 16 Comments

आत्मा एक सत्यम....

गज़ल........122, 122, 122, 122

 

तुम्हारी  कसम  बेसहारा  नहीं हूँ.

महज़ इक गज़ल हित आवारा नहीं हूँ.

 

सँवारे ज़मी आस्माँ चाँद तारें

वही इक जुगनू बेचारा नहीं हूँ.

 

गली घाट घर गाँव सबका सहारा

सजग कौम कुत्ता दुलारा नहीं हूँ.

 

लगी आग महलों दुमहलों में जब भी

बुझाया हमेशा लुकारा नहीं हूँ.

 

सकल जीव मे आत्मा एक सत्यम

सदा सच कहूं इक तुम्हारा नहीं हूँ.

 

के0पी0 सत्यम / मौलिक व…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 4, 2015 at 9:06pm — 5 Comments

सरिता की धारा सम जीवन

नित्य करेला खाकर गुरु जी, मीठे बोल सुनाते हैं,

नीम पात को प्रात चबा बम, भोले का गुण गाते हैं.

उपरी छिलका फल अनार का, तीता जितना होता है

उस छिलके के अंदर दाने, मीठे रस को पाते हैं.

कोकिल गाती मुक्त कंठ से, आम्र मंजरी के ऊपर

काले काले भंवरे सारे, मस्ती में गुंजाते हैं.

कांटो मध्यहि कलियाँ पल कर, खिलती है मुस्काती है

पुष्प सुहाने मादक बनकर, भौंरों को ललचाते हैं.

भीषण गर्मी के आतप से, पानी कैसे भाप बने

भाप बने बादल जैसे ही, शीतल जल को लाते…

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on August 4, 2015 at 9:00pm — 4 Comments

गजल(मनन)

2122 2122

मेघ जब होता सजल है,

नेह हो जाता नवल है।

ख्वाहिशों की दूब सूखी,

चाहती कुछ तो चपल है।

देह जो बेसुध पड़ी है,

ढूँढती फिर से पहल है।

शब्द कबसे कर रहा अब,

भाव भूले की टहल है।

मौन रुख अब माँग लूँ मैं,

मन अभी जाता मचल है।

होंठ सूखे,जीभ जलती,

लद गये हैं मेघ जल है।

भींग जाने दो अभी भी,

मान तेरा जो अचल है।

मानता हूँ मानिनी मैं,

प्यार तेरा तो अतल है।

मान जा,री मान तज कर,

आखिरी मेरी पहल है।

"मौलिक व… Continue

Added by Manan Kumar singh on August 4, 2015 at 8:30pm — 10 Comments

लघु कविताएँ // रवि प्रकाश

विरह

मैं तो गाढ़े अँधियारे की

पत्थर जैसी छाती पर

उँगली से नाम तुम्हारा

लिख कर सो जाता हूँ,

क्या तुम भी यूँ ही जीती हो?

॰॰

दो नैन

कितनी सीधी है नैनों की बोली!

अनपढ़ होता तो भी पढ़ लेता

हर अक्षर हमजोली!

॰॰

उदासी

ये भीनी-भीनी,नर्म उदासी

किसी ताल सी ठहरी है

कँकर मत फेंको!

॰॰

चाह

मैं चाहता हूँ-

हम साथ चलें कोसों

फिर सहसा पूछें इक-दूजे से-

"तुम थक तो नहीं गए?"

॰॰

टूटन

ये टूटन ही सीधा… Continue

Added by Ravi Prakash on August 4, 2015 at 4:56pm — 13 Comments

एक दिन की लिली

एक दिन की लिली …

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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on August 4, 2015 at 4:30pm — No Comments

भरम (लघुकथा)

'ला सत्ते की बहू!  कुछ काम हो तो बता दे, एक कप अदरक वाली चाय भी पिला दे, आज कुछ तबियत भी ढ़ीली सी लग रही है। फिर सुना है, पंडताईन की बहू के बेटा हुआ है---, ज़रा होकर आऊंगी, मुझे याद कर रही होगी। नंबरदारनी के भी जाना है, कह रही थी, दादी ! ज़रा सिर में तेल डाल देना-----।' रह रह कर गूंज रहे थे,  उसके आखिरी शब्द, मेरे कानों में।

यही क्रम था असगरी नायन  का रोज़ का। सारा गांव उसे दादी कहकर ही बुलाता…

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Added by Dr. (Mrs) Niraj Sharma on August 4, 2015 at 3:00pm — 26 Comments


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ग़ज़ल - जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही ( गिरिरज भन्डारी )

221 2121 1221 212 ( आ. दुष्यंत कुमार की ज़मीन पर )

( अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नही रही )

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जब से किसी के कोई भी चाहत नहीं रही

तब से किसी से कोई शिकायत नहीं रही

 

फिर जोश कह रहा है कि टकरा जा संग से

पर होश ये कहे है , वो ताकत नहीं रही

 

मेरी ही कोशिशों में कमी कुछ तो थी ज़रूर

मै क्यूँ कहूँ कि वो मेरी क़िस्मत नहीं रही 

 

बाती के साथ तेल लिये घूमता हूँ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 4, 2015 at 2:53pm — 24 Comments

कुछ क्षणिकाएँ :.....

कुछ क्षणिकाएँ :

१.

कितना अद्भुत है

ये जीवन

कदम दर कदम

अग्रसर होता है

एक अज्ञात

संपूर्णता की तलाश में

और ब्रह्मलीन हो जाता है

एक अपूर्णता के साथ

२.

छुपाती रही

जिसकी मधु स्मृति को

अपने अंतस तल की गहराई में

वो खारी स्याही से 

कपोल पर ठहर

इक बूँद में

विरह व्यथा का

सागर लिख गया

३.

मैंने सौंप दिया

सर्वस्व अपना

जिसे अपना मान

छल गया वही

पावन प्रीत को …

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Added by Sushil Sarna on August 4, 2015 at 1:30pm — 8 Comments

एक ग़ज़ल - सुलभ अग्निहोत्री

सुरभि की छाँव में आकर हुआ दरपन सहज कायल

तुम्हारा रूप बादल सा इबादत की तरह निर्मल

नहाकर ओस से निकली प्रकृति की नायिका तड़के

उषा की बाँह फैलाये विमोहित रवि हुआ चंचल

न दो व्यवधान अलियों को उन्हें करने निवेदन दो

सुवासित प्रीति का उपवन, समर्पण के खिले शतदल

समूचा सींच डाला मन, बदन, अस्तित्व रिमझिम ने

तुम्हारी याद सावन सी बरसती हर घड़ी, हर पल

नदी की धार पर लिक्खा किसी ने गीत प्राणों का

बहा जब मन तरल होकर, लहर भी हो उठी…

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Added by Sulabh Agnihotri on August 4, 2015 at 11:02am — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
होंसलों के सामने आँधियों का वजूद क्या(ग़ज़ल 'राज')

2122   212  2122 1212  

सर फरोशों के लिए बंदिशे क्या हुदूद क्या

होंसलों के सामने आँधियों का वजूद क्या

 

बांटता सबको बराबर न रखता कोई हिसाब    

इक  समन्दर के लिए मूल क्या और सूद क्या 

 

बूँद इक मोती बनी दूसरी ख़ाक में मिली                

सिलसिला है जीस्त का बूद है क्या नबूद क्या 

                        

जिन चिरागों की जबीं पर लिखी हुई हो तीरगी  

अर्श उनके वास्ते लाल, पीला, कबूद क्या 

 

उस अदालत में…

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Added by rajesh kumari on August 4, 2015 at 10:55am — 24 Comments

माँ ........इंतज़ार

गंगा तो पवित्र है

इन्सानों के दुष्कर्म

अनवरत बहाना इसका चरित्र है

मैली पड़ जाती है

फिर भी बहती जाती है

आखिर माँ है

चुप चाप सहती जाती है

मगर दूषित करने वाले

माँ पुकार कर भी

ज़हर पिलाते जाते हैं

दुखों का अम्बार जुटाते जाते हैं

कहाँ किसी को ये प्यार दे पाते हैं

स्वार्थ ही तो कर्म है इनका

बस यही धर्म निभाते जाते हैं

इक दिन ये राख़ बन जाएंगे

माँ से मिलने फिर वापस आएंगे

किस मुहं से मुक्ति मांग पाएंगे

मगर गंगा तो आखिर गंगा माँ…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on August 4, 2015 at 7:56am — 21 Comments

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