1222 1222 1222 1222
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बहुत की कोशिशें मैने गमों के पार जाने की
मुझे फिर घेर लेतीं हैं वही खुशियाँ जमाने की
अगर सच है, तो वो सच है ,कभी कह भी दिया कोई
जरूरत क्या पड़ी थी आपको यूँ तिलमिलाने की
यक़ीं हो तो यक़ीं रखना नहीं तो बेयक़ीनी रख
तेरी आदत गलत लगती है मुझको, आजमाने की
अँधेरा इस क़दर हावी न हो पाता किसी आंगन
रही होती अगर चाहत दिये हर घर जलाने…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 5, 2015 at 2:16pm — 23 Comments
सावन की बुनझीसी सखी है तन में लगाए आग .......बदरिया कहाँ गई
गोर बदन कारी रे चुनरिया ,सर से सरकी आज ......बदरिया कहाँ गई
सावन भादों रात अंहारी थर - थर काँपय शरीर ...... बदरिया कहाँ गई
दादूर मोर पपीहा बोले कहाँ गये रघुनाथ.....बदरिया कहाँ गई
अमुआँ की डारी झूले नर- नारी मैं दहक अंगार ....बदरिया कहाँ गई
उमड़ उमड़े नदी जल पोखर तन में रह गई प्यास...... बदरिया कहाँ गई
सब सखी पहिरय हरीयर चुड़ी मोरा कंगना उदास ......…
Added by kanta roy on August 5, 2015 at 2:00pm — 10 Comments
122 122 122 122
कभी कोई मुफलिस कहां बोलता है ।
जो बोले तो फिर आसमां बोलता है ।।
ज़माना नहीं, पासबां बोलता है ।
हुआ कौन उसका, मकां बोलता है ।।
अभी लोग उठकर रवाना हुए हैं ।
ये चूल्हों से उठता धुआं बोलता है ।।
अगर आंच गैरत पे आये तो बोले ।
वगरना कहां बेजुबां बोलता है ।।
दिलासा नहीं काम दे दो मुझे तुम ।
यही बात बोले जहां बोलता है ।।
जमीं उसकी दहकान से…
ContinueAdded by Ravi Shukla on August 5, 2015 at 1:30pm — 14 Comments
"बेटा आज तेरा जन्म दिन है ..मंदिर में पूजा करनी है , बाहर बूंदाबांदी है ..गाड़ी में मंदिर ले चलेगा ?" उसने कमरे के बाहर से ही पूछा
"माँ i जनम दिन भागा नहीं जा रहा है कहीं .. सोने दो , आज सन्डे है ...और आप भी ये खाली पेट पूजा का नाटक छोड़ दो "
पीछे से बहू के भुनभुनाने की आवाज़ भी उसने साफ़ सुन ली थी
वो चुपचाप बाहर आ गई ,गाल में ढुलक आये आंसूओं को उसने जल्दी से पोंछा और छाता ढूँढने लगी
"चलो दादी मै चलता हूँ ,छाता भी है मेरे पास " अपना रंग बिरंगा बच्चों वाला छाता…
ContinueAdded by pratibha pande on August 5, 2015 at 12:30pm — 15 Comments
सच कहने की हलफ़ उठाई
अपनों से दुश्मनी निभाई
जिसके हाथ तुला दी उसने
पल्ले में पासंग लटकाई
दीपक तले अंधेरा देखा
देखी रिश्तों की गहराई
हम भी बर्फ़-बर्फ़ हैं केवल
जब से पाई है ऊँचाई
शेर कटघरे के अन्दर हो
कुछ ऐसे ही है सच्चाई
अपने ही दुखड़ों में खोये
कैसे पढ़ते पीर पराई
फूट पड़ा आवेग पिघलकर
जब सावन की पाती आई
जिसने कपड़े आप उतारे
उसको कैसी जगत…
Added by Sulabh Agnihotri on August 5, 2015 at 11:35am — 18 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 5, 2015 at 10:30am — 16 Comments
लघुकथा – इच्छा
“ आज ऐसा माल मिलना चाहिए जिसे मेरे अलावा कोई और छू न सके,” कहते हुए ठाकुर साहब ने नोटों की गड्डी अपनी रखैल बुलबुल के पास रख दी और वहां से उठा कर हवेली के अपने कमरे में चल दिए.
“ जी सरकार ! इंतजाम हो जाएगा, ” कहते ही बुलबुल को याद आया कि सुबह ठकुराइन ने कहा था, ‘ बुलबुल बहन ! ठाकुर साहब तो आजकल मेरी और देखते ही नहीं. मैं क्या करूं ? ताकि उन को पा सकूं ? ’
यह याद आते ही उस की आँखों में चमक आ गई. उस ने नोटों से भरा बेग उठाया. फिर गुमनाम राह पर जाते-जाते…
ContinueAdded by Omprakash Kshatriya on August 5, 2015 at 9:00am — 26 Comments
उसने कामवाली को जरा-सा जोर से क्या डांट दिया, पति और बेटे दोनों ने ये कहकर अयोग्य घोषित कर दिया कि उसकी नाहक ही परेशान होने उम्र नहीं है। परिवार के दबाव में स्टोर की चाबी बहू को सौपते हुए उसे लगा था जैसे उसके किचन नाम के किले पर किसी ने सेंधमारी कर ली हो। वह सोच में डूबी थी कि अचानक बहू के चिल्लाने की आवाज सुनकर बोली-
“अरे बहू सुबह सुबह क्यों डांट रही है बच्चे को, अब एक दिन स्कूल नहीं जाएगा तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा।” दादी की शह पाकर बच्चा दादी के साथ ही लग लिया। पूरा दिन दादी के…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 2:30am — 26 Comments
2122--2122--2122--212
इस मकां को बामो-दर से एक घर करती रही |
माँ मुसलसल काम अपना उम्र भर करती रही |
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धूप बारिश सर्दियों को मुख़्तसर करती रही |
बीज की कुछ कोशिशें मिलकर शज़र करती रही… |
Added by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 1:00am — 16 Comments
गज़ल........122, 122, 122, 122
तुम्हारी कसम बेसहारा नहीं हूँ.
महज़ इक गज़ल हित आवारा नहीं हूँ.
सँवारे ज़मी आस्माँ चाँद तारें
वही इक जुगनू बेचारा नहीं हूँ.
गली घाट घर गाँव सबका सहारा
सजग कौम कुत्ता दुलारा नहीं हूँ.
लगी आग महलों दुमहलों में जब भी
बुझाया हमेशा लुकारा नहीं हूँ.
सकल जीव मे आत्मा एक सत्यम
सदा सच कहूं इक तुम्हारा नहीं हूँ.
के0पी0 सत्यम / मौलिक व…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 4, 2015 at 9:06pm — 5 Comments
नित्य करेला खाकर गुरु जी, मीठे बोल सुनाते हैं,
नीम पात को प्रात चबा बम, भोले का गुण गाते हैं.
उपरी छिलका फल अनार का, तीता जितना होता है
उस छिलके के अंदर दाने, मीठे रस को पाते हैं.
कोकिल गाती मुक्त कंठ से, आम्र मंजरी के ऊपर
काले काले भंवरे सारे, मस्ती में गुंजाते हैं.
कांटो मध्यहि कलियाँ पल कर, खिलती है मुस्काती है
पुष्प सुहाने मादक बनकर, भौंरों को ललचाते हैं.
भीषण गर्मी के आतप से, पानी कैसे भाप बने
भाप बने बादल जैसे ही, शीतल जल को लाते…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on August 4, 2015 at 9:00pm — 4 Comments
Added by Manan Kumar singh on August 4, 2015 at 8:30pm — 10 Comments
Added by Ravi Prakash on August 4, 2015 at 4:56pm — 13 Comments
एक दिन की लिली …
ContinueAdded by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on August 4, 2015 at 4:30pm — No Comments
'ला सत्ते की बहू! कुछ काम हो तो बता दे, एक कप अदरक वाली चाय भी पिला दे, आज कुछ तबियत भी ढ़ीली सी लग रही है। फिर सुना है, पंडताईन की बहू के बेटा हुआ है---, ज़रा होकर आऊंगी, मुझे याद कर रही होगी। नंबरदारनी के भी जाना है, कह रही थी, दादी ! ज़रा सिर में तेल डाल देना-----।' रह रह कर गूंज रहे थे, उसके आखिरी शब्द, मेरे कानों में।
यही क्रम था असगरी नायन का रोज़ का। सारा गांव उसे दादी कहकर ही बुलाता…
ContinueAdded by Dr. (Mrs) Niraj Sharma on August 4, 2015 at 3:00pm — 26 Comments
221 2121 1221 212 ( आ. दुष्यंत कुमार की ज़मीन पर )
( अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नही रही )
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जब से किसी के कोई भी चाहत नहीं रही
तब से किसी से कोई शिकायत नहीं रही
फिर जोश कह रहा है कि टकरा जा संग से
पर होश ये कहे है , वो ताकत नहीं रही
मेरी ही कोशिशों में कमी कुछ तो थी ज़रूर
मै क्यूँ कहूँ कि वो मेरी क़िस्मत नहीं रही
बाती के साथ तेल लिये घूमता हूँ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 4, 2015 at 2:53pm — 24 Comments
कुछ क्षणिकाएँ :
१.
कितना अद्भुत है
ये जीवन
कदम दर कदम
अग्रसर होता है
एक अज्ञात
संपूर्णता की तलाश में
और ब्रह्मलीन हो जाता है
एक अपूर्णता के साथ
२.
छुपाती रही
जिसकी मधु स्मृति को
अपने अंतस तल की गहराई में
वो खारी स्याही से
कपोल पर ठहर
इक बूँद में
विरह व्यथा का
सागर लिख गया
३.
मैंने सौंप दिया
सर्वस्व अपना
जिसे अपना मान
छल गया वही
पावन प्रीत को …
Added by Sushil Sarna on August 4, 2015 at 1:30pm — 8 Comments
सुरभि की छाँव में आकर हुआ दरपन सहज कायल
तुम्हारा रूप बादल सा इबादत की तरह निर्मल
नहाकर ओस से निकली प्रकृति की नायिका तड़के
उषा की बाँह फैलाये विमोहित रवि हुआ चंचल
न दो व्यवधान अलियों को उन्हें करने निवेदन दो
सुवासित प्रीति का उपवन, समर्पण के खिले शतदल
समूचा सींच डाला मन, बदन, अस्तित्व रिमझिम ने
तुम्हारी याद सावन सी बरसती हर घड़ी, हर पल
नदी की धार पर लिक्खा किसी ने गीत प्राणों का
बहा जब मन तरल होकर, लहर भी हो उठी…
Added by Sulabh Agnihotri on August 4, 2015 at 11:02am — 13 Comments
2122 212 2122 1212
सर फरोशों के लिए बंदिशे क्या हुदूद क्या
होंसलों के सामने आँधियों का वजूद क्या
बांटता सबको बराबर न रखता कोई हिसाब
इक समन्दर के लिए मूल क्या और सूद क्या
बूँद इक मोती बनी दूसरी ख़ाक में मिली
सिलसिला है जीस्त का बूद है क्या नबूद क्या
जिन चिरागों की जबीं पर लिखी हुई हो तीरगी
अर्श उनके वास्ते लाल, पीला, कबूद क्या
उस अदालत में…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 4, 2015 at 10:55am — 24 Comments
गंगा तो पवित्र है
इन्सानों के दुष्कर्म
अनवरत बहाना इसका चरित्र है
मैली पड़ जाती है
फिर भी बहती जाती है
आखिर माँ है
चुप चाप सहती जाती है
मगर दूषित करने वाले
माँ पुकार कर भी
ज़हर पिलाते जाते हैं
दुखों का अम्बार जुटाते जाते हैं
कहाँ किसी को ये प्यार दे पाते हैं
स्वार्थ ही तो कर्म है इनका
बस यही धर्म निभाते जाते हैं
इक दिन ये राख़ बन जाएंगे
माँ से मिलने फिर वापस आएंगे
किस मुहं से मुक्ति मांग पाएंगे
मगर गंगा तो आखिर गंगा माँ…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on August 4, 2015 at 7:56am — 21 Comments
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