2122 2122 2122 212
भूख़ मजबूरी थी,ग़ैरत ना-नुकुर करती रही
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तेज़ से भी छटपटाहट तेज़ जब…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 14, 2013 at 11:30am — 25 Comments
आता है हिन्दी दिवस जाने को तत्काल
संसंद में करते रहे, नेता टालम टाल
विकसित करना देश को तो मन में यह ठान
अपनी भाषा का सदा उन्नत रखना भाल |
(2)
हिन्दी में ही बोलकर रख भाषा का मान
भाषा की सम्पन्नता, है हिन्दी की शान
हीन भाव लाये बिना कर हिन्दी में बात
तब हिन्दी की विश्व में अमिट बने पहचान |
(3)
रोज मना हिन्दी दिवस करना गौरव गान
देवनागरी लिपि बनी, जो है इसकी शान
संस्कृति अरु साहित्य का उन्नत है भण्डार
सबको…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 14, 2013 at 10:00am — 17 Comments
हिंदी मेरे हिन्द की ,संस्कृति की पहचान
मिसरी घोले कान में ,इसमें बसती जान //
संस्कृत की दिव्या सुता ,जन जन का आचार
लाकर अब व्यवहार में ,दो इसको विस्तार //
मातृभूमि की शान है ,देश का स्वाभिमान
हिंदी बिंदी मात की ,यह मेरा अभिमान //
पर्व एक हिंदी दिवस, मनालो संग प्यार
वारें इस पर जान हम ,दें सम्मान अपार //
हिंदी भाषा देश को करती है धनवान
अंग्रेजी को छोड़ कर ,इसको देना मान //
हिंदी दिन है आ गया ,ख़ुशी…
ContinueAdded by Sarita Bhatia on September 14, 2013 at 10:00am — 23 Comments
२२१२ १२१ १२२१ २२२१
पीने लगे हैं लोग पिलाने लगे हैं लोग
महफ़िल को मयकदों सा सजाने लगे हैं लोग
दिल में नहीं था प्रेम दिखाने लगे हैं लोग
जब भी मिले हैं, हाथ मिलाने लगे हैं लोग
आयी थी रूह बीच में जब भी बुरे थे काम
अब तो सदाये रूह दबाने लगे हैं लोग
कश्ती बचा ली, खुद को डुबो कहते थे मल्हार
खुद को बचा के नाव डुबोने लगे हैं लोग
रखनी जो बात याद किसी को नहीं थी याद
जो भूलना नहीं था भुलाने…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on September 14, 2013 at 9:00am — 19 Comments
!!! डर गई है यह धरा !!!
बह्र -2122 212
मिल गया रब देख ले।
क्या मिला सब देख ले।।
जिंदगी है मौत सी,
कल कहां कब देख ले।
राम जाने क्या हुआ,
आसमां अब देख ले।
रात काली हो गयी,
बर्फ का ढब देख ले।
कल जहां पर जश्न था,
मौत-घर अब देख ले।
फिर अहम आलाप है,
भोर की शब देख ले।
हम किसे आवाज दे,
साथ में रब देख ले।
रात ढलती जा रही,
निश अजायब देख ले।
आज आभा…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 14, 2013 at 5:57am — 12 Comments
तुम से न हो अगर बात तो बुरा लगता है,
तुम से न हो अगर मुलाकात तो बुरा लगता है!
तुमसे मिलने की तारीखें तो तय कर लूँ,
मगर हो जाये फिर बरसात तो बुरा लगता है!
हर पल है चाह तेरी हर पल तेरी ही आरजू है,
तेरे दीदार की दिल में कोई जुस्तजू जगी है,
न समझो तुम मेरे जज्बात तो बुरा लगता है!
सदियों से चाह है तेरे दीदार की,
अब तो हद हो गयी मेरे इंतज़ार की,
ये दिन तो बीत जाते है सदियों से लम्बे,
मगर…
ContinueAdded by डॉ. अनुराग सैनी on September 13, 2013 at 10:16pm — 8 Comments
कुलबुलाते कुछ अधखुले बीज
मेरे बरामदे के कोने में पड़े हैं
शायद माँ ने जब फटकारे
तो गिर गए होंगे
बारिश के होने से कुछ पानी और
नमी भी मिल गयी उन्हें
सफाई करते ध्यान भी नहीं दिया
बड़ी लापरवाह है कामवाली भी
दो दिन हुए हैं और बीजों ने
हाथ पैर फ़ैलाने शुरू कर दिए
हाँ ठीक भी तो है
मुफ्त में मिली सुविधा से
अवांछित तत्व फलते-फूलते ही हैं
पर अब जब वो यूँही रहे तो
बरामदे में अपनी जड़े जमा लेंगे
फिर…
ContinueAdded by Priyanka singh on September 13, 2013 at 10:08pm — 24 Comments
ग़ज़ल
वजन : 2212 2212
बकवास सारा आ गया,
खबरों में रहना आ गया ।1।
जो धड़कनें पढ़ने लगे,
तो शेर कहना आ गया ।2।
जब सिर बँधी पगड़ी मेरे,
तब ही से सहना आ गया ।3।
जब से सियासत सीख ली,
कह के मुकरना आ गया ।4।
दो बेटियों का बाप हूँ,
मुझको भी डरना आ गया ।5।
(मौलिक व अप्रकाशित)
पिछला पोस्ट => …
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 13, 2013 at 9:00pm — 41 Comments
Added by Lata tejeswar on September 13, 2013 at 8:30pm — 24 Comments
एक शाम
उदास सी थी
निस्तेज , निशब्द , निस्पंदित
निहारती सी
दूर तलक शून्य मे।
कर्तव्य विहीन, कर्म विहीन
अचेतन जड़ हो गए जो
पुकारती सी
दूर तलक शून्य मे ।
नेपथ्य से कुछ सरसराहट
वैचारिक या मौन
विजयी पर प्रसन्न नहीं
श्रोता सी
दूर तलक शून्य मे ।
अन्तर्मन के क्रंदन को
छिपा मुख मण्डल पर खेलती जो
अलौकिक आभा थी
दूर तलक शून्य मे ............... ।
अप्रकाशित…
ContinueAdded by annapurna bajpai on September 13, 2013 at 5:39pm — 26 Comments
आग की एक चिंगारी
सियासत के तूफानी थपेड़े झेल ,
फैली मीलो एक चिंगारी,
मिटाने को आतुर ,
निगल लेने को सबकुछ,
अंतर न अपने का ना पराये का ,
ना जातिवाद कोई ना ही कोई धरम ,
मुंह खोल आगे को बढ़ी आती ,
ना देखती दोष किसी का ,
न निर्दोष की चिंता ,
ना कोई लालच न कोई गम ,
चिरनिंद्रा में सुलाने को आतुर ,
एक छोटी सी चिंगारी ,
ये दोष है हम सबका ,
या नियति का लिखा ,
एक भूल है हम सबकी ,
जो इसके शिशु…
ContinueAdded by डॉ. अनुराग सैनी on September 13, 2013 at 4:30pm — 4 Comments
नींद कहीं फिर आ ना जाए , डर लगता है,
ख्वाब वही फिर आ ना जाए, डर लगता है ।
सावन सा वो बरस रहा है मन आँगन में ,
मौसम कहीं बदल ना जाए, डर लगता है…
Added by ARVIND BHATNAGAR on September 13, 2013 at 3:00pm — 21 Comments
मरा कौन ?
कही पे हिन्दू मरता है ।
कही मुसलमान मरता है ।।
चले जब तलवार नफरत की ।
तो बस इंसान मरता है ॥
कही पर घर जलता है ।
कही मकान जलता है ॥
मगर इन लपटो से मेरा ।
प्यारा हिन्दुस्तान जलता है ॥
न कुछ हासिल तुम्हे होगा ।
न कुछ मेरा भला होगा ।
दरख्तो पे जो बैठे है ।
बस गिद्धो का भला होगा ॥
कही मन्दिर पे है पाँबन्दी ।
कही मस्जिद पे पहरा है…
ContinueAdded by बसंत नेमा on September 13, 2013 at 12:00pm — 19 Comments
१२२२...१२२२
नज़र दर पर झुका लूँ तो
मुहब्बत आज़मा लूँ तो
तेरी नज़रों में चाहत का
समन्दर मैं भी पा लूँ तो
बदल डालूँ मुकद्दर भी
अगर खतरा उठा लूँ तो
सियह आरेख हाथों का
तेरे रंग में छुपा लूँ तो
तेरी गुम सी हर इक आहट
जो ख़्वाबों में बसा लूँ तो
तुम्हारे संग जी लूँ मैं
अगर कुछ पल चुरा लूँ तो
न कर मद्धम सी भी हलचल
मैं साँसों को…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on September 13, 2013 at 9:30am — 55 Comments
ग़ज़ल –
२१२२ १२१२ २२
इल्म की रोशनी नहीं होती ,
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती |
एक कोना दिया है बच्चों ने ,
और कुछ बेबसी नहीं होती |
रंग आये कि सेवई आये ,
तनहा कोई ख़ुशी नहीं होती |
दिल के टूटे से शोर होता है ,
ख़ामुशी ख़ामुशी नहीं होती |
सारे चेहरे छुपे मुखौटों में ,
दिल में भी सादगी नहीं होती |
माँ के आँचल से दूर हैं बच्चे ,
बाप से बंदगी नहीं होती…
ContinueAdded by Abhinav Arun on September 13, 2013 at 5:30am — 44 Comments
बाज़ार
संजीदे संगीन ख़यालों-ख़वाबों भरा बाज़ार
उसमें मेरी ज़िन्दगी, सब्ज़ी की टोकरी-सी।
कुछ सादी सच्चाईयाँ भरीं उस टोकरी में,
प्यार के कच्चे-मीठे-कड़वे झूठों का भार,
चाकलेट के लिए वह छोटे बचकाने झगड़े,
शैतानी भी, और बचपन के खेल-खिलवाड़।
भीड़ में भीड़ बनने की थी बेकार की कोशिश,
बनावटी रंगों की बेशुमार बनावटी सब्ज़ियाँ,
मफ़्रूज़ कागज़ के फूल यह असली-से लगते,
थक गया हूँ अब इनसे इस…
ContinueAdded by vijay nikore on September 13, 2013 at 1:30am — 16 Comments
हमने घर की दीवारों में
जीवन की इक आस सजायी
रत्ती-रत्ती सुबह बटोरी
टुकड़ा-टुकड़ा साँझ संजोई
इस चुभती तिमिर कौंध में
दीपों की बारात सजायी
तिनका-तिनका भाव बटोरे
टूटे-फूटे सपन संजोये
साँसों की कठिन डगर पे
आशा ही दिन-रात सजायी
भूख सहेजी, प्यास सहेजी
सोती-जगती रात सहेजी
यूँ चलते, गिरते-पड़ते
कितनी टूटी बात सजायी
तेरे हाथों के स्पर्शों ने
इन होठों…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 12, 2013 at 11:00pm — 30 Comments
बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२
सत्ता की गर हो चाह तो दंगा कराइये
बनना हो बादशाह तो दंगा कराइये
करवा के कत्ल-ए-आम बुझा कर लहू से प्यास
रहना हो बेगुनाह तो दंगा कराइये
कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में
पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइये
चलते हैं सर झुका के जो उनकी जरा भी गर
उठने लगे निगाह तो दंगा कराइये
प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें
रधिया करे निकाह तो दंगा…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 12, 2013 at 10:57pm — 33 Comments
भाव दिल के
क्रमबद्ध सजाये
बनी कविता !!
तुकान्त लय
समान मात्रा गणना
बने मुुक्तक !!
तीन पंक्तियां
पंच सप्तम पंच
हाइकु शैली !!
विस्तृत भाव
भूमिकाबद्ध व्याख्या
बने कहानी !!
कम शब्दों में
दे सार्थक सन्देश
लघु कहानी !!
(मौलिक व अप्रकाशित)
प्रवीन मलिक ...
Added by Parveen Malik on September 12, 2013 at 9:30pm — 13 Comments
मौन !
ये कैसा मौन ?
अन्तर्मन में ,
कुछ टूटता सा ,
सुनाई देती जिसकी गूंज देर तक !
हर घटना पर छोड़ जाता कई यक्ष प्रशन !
आँखों में ये कैसा मौन ?
लबो पे ये कैसा मौन ?
दिल में बरछी की तरह गड़ता ,
तीर की तरह चुभता ये मौन ,
ये गवाह है एक बड़े विनाश का !
और जवाब है खुद ही अबूझ सवालों का ,
दिल की हर भावना से जुड़ा ,
मन के किसी कोने में पला ,
पल पल गहराता जाता,
ये कैसा अबूझ मौन ?
जो पहेली बन…
ContinueAdded by डॉ. अनुराग सैनी on September 12, 2013 at 4:30pm — 6 Comments
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