Added by anamika ghatak on November 11, 2017 at 11:04am — 5 Comments
लघुकथा - गिरगिट –
"गुरूजी, आपकी इस अपार सफलता का भेद क्या है? पिछले बाईस साल से राजनीति में आपका एक छ्त्र राज है"?
गुरूजी ने दाढ़ी खुजलाते हुए, गंभीर मुद्रा बनाने का नाटक करते हुए उत्तर दिया,
"मित्रो, राजनीति बड़ी बाज़ीगरी का धंधा है। अपनी लच्छेदार बातों से लोगों को मंत्र मुग्ध करना होता है| इसमें सफल होना इतना सरल नहीं जितना दिखता है"।
"गुरूजी, हम तो आपके अंध भक्त हैं, कुछ गुरूमंत्र दीजिये जो भविष्य में हमारे काम आ सके"?
"पहली चीज़ तो यह गाँठ बाँध लो कि इसमें…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on November 11, 2017 at 10:53am — 14 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 10, 2017 at 10:59pm — 13 Comments
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on November 10, 2017 at 10:53pm — 2 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on November 10, 2017 at 5:11pm — 2 Comments
मेरे प्रियतम
मेरा इंतज़ार करना
जब बादल झूम कर बरसे
धरती की प्यास बुझाने
मोह जताने
पर
तेरे मन की प्यास
मिलन की प्यास
देख
वो तर ना हो पाए
जब वो गौरैया उन्मुक्त हो जाये
चहचहाये
ख़ुशी फ़ैलाने
तुझे मनाने
पर तेरी आँखों से उदासी का गीत
चुरा गाये
जब सूरज पूरब की बाँहों में
खिले , मुस्काये
पर तेरे सूखे अधर देख
बीती रात
पश्चिम के…
ContinueAdded by Vishal Goyal on November 10, 2017 at 2:49pm — 4 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २
आह निकलती है यह कटते पीपल से
बरसेगा तेज़ाब एक दिन बादल से
माँगे उनसे रोज़गार कैसे कोई
भरा हुआ मुँह सबका सस्ते चावल से
क़ै हो जाएगी इसके नाज़ुक तन पर
कैसे बनता है गर जाना मखमल से
गाँव, गली, घर साफ नहीं रक्खोगे गर
ख़ून चुसाना होगा मच्छर, खटमल से
थे चुनाव पहले के वादे जुम्ले यदि
तब तो सत्ता पाई है तुमने छल से
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 10, 2017 at 2:38pm — 5 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on November 10, 2017 at 12:26pm — 13 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 9, 2017 at 10:13pm — 12 Comments
काफिया :अर ; रदीफ़ : कहे बगैर
बह्र :२२१ २१२१ १२२१ २१२ (१)
ये जिंदगी तो’ हो गयी’ दूभर कहे बग़ैर
आता सदा वही बुरा’ अवसर कहे बग़ैर |
बलमा नहीं गया कभी’ बाहर कहे बग़ैर
आता कभी नहीं यहाँ’, जाकर कहे बग़ैर |
है धर्म कर्म शील सभी व्यक्ति जागरूक
दिन रात परिक्रमा करे’ दिनकर कहे बग़ैर |
दुर्बल के क़र्ज़ मुक्ति सभी होनी चाहिए
क्यों ले ज़मीनदार सभी कर कहे बग़ैर |
सब धर्म पालते मे’रे’ साजन, मगर…
ContinueAdded by Kalipad Prasad Mandal on November 9, 2017 at 9:30pm — 10 Comments
(फाइलातुन -फइलातुन -फइलातुन -फेलुन )
आने वाला कोई फिर दौरे परेशानी है |
यक बयक करने लगा कोई महरबानी है |
देखता है जो उन्हें कहता है वो सिर्फ़ यही
इस ज़माने में नहीं उनका कोई सानी है |
आएगा सामने उसका भी नतीजा जल्दी
वक़्त के हुक्मरा की तू ने जो मनमानी है |
ख़त्म हो जाएगी हर चीज़ ही क्या है दुनिया
सिर्फ़ उल्फ़त ही वो शै है जो नहीं फानी है |
आ गया जब से मुझे उनका तसव्वुर करना
हो गई तब से…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on November 8, 2017 at 10:30pm — 14 Comments
221 2121 1221 212
-
नाराज़गी है कैसी भला ज़िन्दगी के साथ.
रहते हैं ग़म हमेशा ही यारों खुशी के साथ
-
नाज़-ओ-अदा के साथ कभी बे-रुख़ी के साथ.
दिल में उतर गया वो बड़ी सादगी के साथ
-
माना कि लोग जीते हैं हर पल खुशी के साथ.
शामिल है जिंदगी में मगर ग़म सभी के साथ
-
आएगा मुश्किलों में भी जीने का फ़न तुझे.
कूछ दिन गुज़ार ले तू मेरी जिंदगी के साथ
-
ख़ून-ए- जिगर निचोड़ के रखते हैं शेर में.
यूँ ही नहीं है प्यार हमें शायरी के…
Added by SALIM RAZA REWA on November 8, 2017 at 3:30pm — 16 Comments
गुस्ताखियाँ....
शानों पे लिख गया कोई इबारत वो रात की।
...महकती रही हिज़ाब में शरारत वो रात की।
......करते रहे वो जिस्म से गुस्ताखियाँ रात भर -
..........फिर ढह गयी आगोश में इमारत वो रात की।
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on November 7, 2017 at 8:22pm — 10 Comments
Added by Afroz 'sahr' on November 7, 2017 at 1:00pm — 20 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on November 7, 2017 at 12:53pm — 11 Comments
22 22 22 22 22 2
अंगारो से प्रीत निभाया करता हूँ ।
ख्वाब जलाकर रोज़ उजाला करता हूँ।।
एक झलक की ख्वाहिश लेकर मुद्दत से ।
मैं बादल में चांद निहारा करता हूँ ।।
एक लहर आती है सब बह जाता है ।
रेत पे जब जब महल बनाया करता हूँ ।।
शेर मेरे आबाद हुए एहसान तेरा ।
मैं ग़ज़लों में अक्स उतारा करता हूँ ।।
दर्द कहीं जाहिर न हो जाये मुझसे ।
हंस कर ग़म का राज छुपाया करता हूँ ।।
पूछ न मुझसे आज मुहब्बत की बातें ।
याद में…
Added by Naveen Mani Tripathi on November 7, 2017 at 12:30pm — 13 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on November 7, 2017 at 8:30am — 11 Comments
22 22 22 22 22 2
तू पर उगा, मैं आसमाँ तलाश रहा हूँ
हम रह सकें ऐसा जहाँ तलाश रहा हूँ
ज़र्रों में माहताब का हो अक्स नुमाया
पगडंडियों में कहकशाँ तलाश रहा हूँ
खामोशियाँ देतीं है घुटन सच ही कहा है
मैं इसलिये तो हमज़बाँ तलाश रहा हूँ
जलती हुई बस्ती की गुनहगार हवा अब
थम जाये वहीं,.. वो बयाँ तलाश रहा हूँ
मैं खो चुका हूँ शह’र तेरी भीड़ में ऐसे
हालात ये, कि ज़िस्म ओ जाँ तलाश रहा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 7, 2017 at 8:22am — 35 Comments
जब मैं छोटा था
अक्सर गोद पर सवार होकर
देखता था पिता का मुख
पर तब नही जान पाया
उनका अक्स कहीं छिपा है मुझमे
आज मेरे बेटे
हो चुके है बड़े
अब मैं तलाशता हूँ
उनके चेहरे पर अपना अक्स
पर अब वे अनजान हैं
किन्तु मैं निराश नही होता
मेरे पोते को गोद में लिए
मेरा बेटा तलाश रहा है
उसमे अपना अक्स
वह पोता जो नही जानता
अक्स के मायने
(मौलिक /अप्रकाशित )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 6, 2017 at 8:58pm — 5 Comments
Added by Balram Dhakar on November 6, 2017 at 6:32pm — 26 Comments
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