Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 9, 2015 at 4:00pm — 4 Comments
विद्यालय में मध्यान्ह भोजन की दाल में असंख्य इल्ली, तिलूले ,देखकर मैं आपे से बाहर हो गई । तुरंत बच्चों की पंगत उठा कर मैं मध्यान्ह भोजन के ठेकेदार से जम कर उलझ पड़ी । लेकिन वो भी कम ना था, हर बात को "इत्तेफाक "कह के टालने लगा । मुझे दुःख इस बात से ज्यादा हो रहा था कि पता नही कितने दिनों से ये मासूम ऐसा खाना खा रहे है । इत्तेफाक तो मेरे साथ हुआ कि मैं आज प्रभार में थी और ये कृत मेरी जानकारी में आ गया । मैंने तुरंत लिखित कार्रवाई शुरू की । अपने खिलाफ कार्रवाई होते देख उसने गिरगिट की तरह रंग…
ContinueAdded by Rahila on December 9, 2015 at 12:00pm — 20 Comments
भावनाएँ साफ पानी से बनती हैं
तर्क पौष्टिक भोजन से
भूखे प्यासे इंसान के पास
न भावनाएँ होती हैं न तर्क
कहते हैं जल ही जीवन है
क्योंकि जीवन भावनाओं से बनता है
तर्क से किताबें बनती हैं
पत्थर भी पानी पीता है
लेकिन पत्थर रोता बहुत कम है
किन्तु जब पत्थर रोता है तो मीठे पानी के सोते फूट पड़ते हैं
प्लास्टिक पानी नहीं पीता
इसलिए प्लास्टिक रो नहीं पाता
हाँ वो ठहाका मारकर हँसता जरूर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 8, 2015 at 10:07pm — 12 Comments
मर्यादा ....
चक्षु को चक्षु से देखा
करते हमने द्वंद
उलझे करों को
देख इक दूजे में
हम तो रह गये दंग
आँख बचा कर
कब बाला ने
बदला कपोल का रंग
वर्तमान में बेहयाई का
हुआ ये आम प्रसंग
संस्कारों को त्याग जोड़े ने
अधर मिलाये संग
समझ न आये
क्यूँ इस युग में
कपडे हो गये तंग
मृग नयनी का
नशा देख के
फीकी पड़ गयी भंग
बैठ बाईक पर
दौड़ चले फिर
इक दूजे के संग
शर्मो-हया की चिंता किसे अब
सतरंगी है मन…
Added by Sushil Sarna on December 8, 2015 at 7:15pm — 2 Comments
इलेक्शन के ऐलान के बाद राजनीती का बाज़ार गर्म होने लगा,गाँव में हर पार्टी अपने अपने पर तोलने लगी ।
सभी तरफ वोटर को लुभाने व उनका धर्म ज़ात व कीमत लगाने की तैयारी चल रही थी।
उस दिन मास्टर बजार में खड़ा कह रहा था “अब तो पहले जैसी राजनीती नहीं रही” ।
“अब तो साये की तरह साथ रहने वाले पार्टी वर्करों पर भी कोई यकीन नहीं रहा”
पास खड़े आदमी ने कहा “ऐसा क्यूँ”, तुम देखते नहीं रेलियों में भीड़ जितनी होती है, भीड़ को वोट में तब्दील करना एक टेढ़ी खीर बन गया है” । महिंद्र…
ContinueAdded by मोहन बेगोवाल on December 8, 2015 at 6:30pm — 5 Comments
कुछ ही दिन पहले हुई पिता की मृत्यु से वह अभी उबर भी न पाया था कि अचानक शोक संतप्त माँ को दिल का भयंकर दौरा पड़ गयाI डॉक्टरों ने साफ़-साफ़ बता दिया था कि उसकी माँ अब ज़्यादा देर की मेहमान नहींI
कुछ ही समय पहले उसके पिता की गोलियों से छलनी लाश एक सुनसान क्षेत्र में पाई गई थीI पुलिस का कहना था कि यह आतंकवादियों का काम है, जबकि स्थानीय कट्टरपंथी इसे सेना द्वारा की गई फर्जी मुठभेड़ कह कर लगातार विष वमन कर रहे थेI शवयात्रा के दौरान पूरे रास्ते में देश और सेना विरोधी नारे…
Added by योगराज प्रभाकर on December 8, 2015 at 4:30pm — 12 Comments
' सब तैयारी हो गयी बेटा ? ' पिता ने कमरे में प्रवेश करते हुए पूछा I पीछे पीछे माँ भी थी ,छोटी -छोटी पोटलियों से लदी-फदी I बहू ये सब ठीक से रख लो ! कोने में खड़ी बहू के हाथ में पोटलियों को थमाते हुए बोली I
' जी अम्मा I '
' सब अच्छे से सहेज लेना ,कुछ छूट न जाए I नयी जगह है परेशानी होगी I '
' जी बाबूजी ! ' इतना ही बोल पाया वह I हालाँकि कहना तो ये चाहता था I ' सब कुछ तो छूट ही रहा है ,आप माँ संगी साथी .......I पर आवाज़ जैसे हलक में ही कही गुम होती लग रही थी I
कुछ पल…
Added by meena pandey on December 8, 2015 at 3:30pm — 10 Comments
कैलेंडर का पन्ना पलटते ही उसकी नजर तारीख़ पर थम गई। विवाह का दिन उसके आँखो के आगे चलचित्र सा घूम रहा था।.सुशिक्षित खुबसुरत नेहा और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक नीरज की जोडी को देख सब सिर्फ़ वाह-वाह करते रह गये थे.वक्त तेजी से गुज़र रहा था।.
जल्द ही नेहा की झोली मे प्यारे से दो जुडवा बच्चे बेटा नीरव और बेटी निशीता के रुप मे आ गये।.तभी --
वक्त ने अचानक करवट बदली बच्चों के पालन-पोषण मे व्यस्त नेहा खुद पर व रिश्ते पर इतना ध्यान ना दे पाई । उसके के हाथ से नीरज मुट्ठी से रेत की तरह फ़िसलता…
Added by नयना(आरती)कानिटकर on December 8, 2015 at 1:00pm — No Comments
1222 1222 1222 1222
भला सच यार कब वैसे चुनावी आस को होना
चुराकर आम के सपने सदा गुम खास को होना /1
हकीकत लोकराजों की जो नौकर है तो नौकर है
भले कागज की बातों में है मालिक दास को होना /2
लड़ाई आज सत्ता की बदलती रंग गिरगिट ज्यों
बहाना फिर फसादों का वही इतिहास को होना /3
कहाँ तक हम करें बातें बना सौहार्द्र जीने की
खपा इतिहास में माथा खतम विश्वास को होना /4
सुना कल शीत की बरखा बहाकर ले गई सबकुछ
मगर …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2015 at 10:51am — 2 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 8, 2015 at 9:52am — 6 Comments
Added by shree suneel on December 8, 2015 at 1:40am — 6 Comments
2122—1122—1122—22
मैं तमन्ना नहीं करता हूँ कभी पोखर की
मेरी गंगा भी हमेशा से रही सागर की
रूठने के लिए आतुर है दिवारें घर की
सिलवटें देखिये कितनी है ख़फा बिस्तर की
एक पौधा भी लगाया न कहीं पर जिसने
बात करता है जमाने से वही नेचर की
अम्न के वासिते मंदिर तो गया श्रद्धा से
बात होंठों पे मगर सिर्फ़ वही बाबर की
आसमां का भी कहीं अंत भला होता है
ज़िंदगी कितनी है मत पूछ मुझे शायर की
ये सहर क्या है, सबा क्या है,…
Added by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2015 at 1:30am — 30 Comments
Added by Samar kabeer on December 7, 2015 at 10:48pm — 8 Comments
अधूरे हर्फ़ :..........
हंसी आती है
अपने ख्यालों पर
मेरे तसव्वुर में
तुम जब भी आती हो
इक अधूरी ग़ज़ल की तरह आती हो
नज़र से नज़र मिलती ही
एक अजीब सी सिहरन होती है
तुम किताब के रूठे हर्फों की तरह
किसी कोने में सिमटी रहती हो
मैं अपने अधूरे हर्फों को
इक मुकम्मल शक्ल देने की कोशिश में
तमाम शब चरागों में झिलमिलाते
तुम्हारे अक्स के साथ
गुज़ार देता हूँ
सहर होने के साथ
हम अधूरे लफ़्ज़ों के तरह
मुकम्मल होने के लिए…
Added by Sushil Sarna on December 7, 2015 at 8:04pm — 2 Comments
2122 2122 212
लाएगी इक दिन क़यामत,देखना..
जानलेवा है सियासत, देखना..
काम मुश्किल है बहुत संसार में,
दुसरे इंसाँ की बरकत देखना..
देख लेना खूँ-पसीना भी, अगर
आलिशाँ कोई इमारत देखना..
झाँक कर मेरी निगाहों में कभी,
आपसे कितनी है चाहत, देखना..
देखना हो गर खुदा का अक्स,तो
छोटे बच्चे की शरारत देखना..
'जय' न सिखला दे मुहब्बत,फिर कहो
दो घड़ी करके तो सुहबत देखना..
______________________________…
Added by जयनित कुमार मेहता on December 7, 2015 at 2:30pm — 12 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 7, 2015 at 1:18pm — 6 Comments
4/
2122 2122 2122 212
खुद के होने का जरा भी वो पता देता नहीं
अब किसी को भी गुनाहों की सजा देता नहीं /1
देवता तो थे बहुत पर ढल गए बुत में सभी
क्यों कहूँ तुझसे की उनको क्यों सदा देता नहीं /2
मर रही इंसानियत है और रिश्ते तार तार
क्यों कयामत का भरोसा अब खुदा देता नहीं /3
हर तरफ विष देखता हूँ सुर असुर सब हैं लिए
क्या समंदर मथ भी लें तो अब सुधा देता नहीं /4
वक्त का साया रहे जब मत निठल्ले बैठना
वक्त…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 7, 2015 at 11:41am — 8 Comments
ख़बर सबकी है ख़ुद से बेख़बर हैं
ख़ुदा जाने के हम कैसे बशर हैं।
असर कलयुग का कुछ ऐसा हुआ है
फकीरों की दुआएं बेअसर हैं।
परिंदे ढूंढते हैं आशियाना
के शहरों में बचे कुछ ही शजर हैं।
हैं आलीशान ज़ाहिर में सभी कुछ
मगर टूटे हुए अंदर से घर हैं।
मिटी इंसानियत आदम बचा है
हज़ारों हो गये ऐसे नगर हैं।
जो दें किरदार की खुशबू सभी को
बहुत कम रह गये ऐसे,मगर हैं।
अंधेरों ने किये दर बंद सारे
उजाले फिर रहे अब दर…
Added by rajinder toki on December 7, 2015 at 11:30am — 3 Comments
कैच जिसके उछाला गया है , उसे लेने दो भाई
*****************************************
बाल , नो बाल थी
इसलिये पूरे दम से मारा था शाट
मेरे बल्ले का शाट
थर्ड मैन सीमा रेखा के पार जाने के लिये था
अगर बाल लपक न ली जाती तो
अफसोस इस बात का नहीं है बाल लपक ली गई
दुख इस बात का है, कि
मेरे बहुत करीब खड़े , स्लिप और गली के फिल्डर दौड़ पड़े
ये जानते हुये भी , ये कैच उनका नही है
आपस मे टकराये , गिरे पड़े , घायल…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 7, 2015 at 7:30am — 8 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 6, 2015 at 11:32pm — No Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |