परख - लघुकथा -
नीना जैसे ही चाय की ट्रे लेकर, उसे देखने आये लड़के वालों के परिवार की एक मात्र महिला को चाय देने बढ़ी, उस महिला को देख कर नीना के होश उड़ गये। उसे लगा वह अभी चक्कर खा कर गिर जायेगी। अब उसे निश्चित लग रहा था कि यह रिश्ता भी नहीं होने वाला। माँ बापू को आज फिर तगड़ा झटका लगेगा।
हालांकि नीना एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर थी। बस खूबसूरती में औसत थी। रंग भी थोड़ा दबा हुआ था। अतः रिश्ते होते होते रह जाते थे।
नीना के सामने कालेज की वह घटना चल चित्र की तरह घूम गयी। जब वह…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 25, 2018 at 3:20pm — 12 Comments
शोक सभा चालू थी, हर आदमी आता और मरे हुए लोगों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अपनी बात शुरू करता और फिर प्रशासन को कोसते हुए अपनी बात ख़त्म करता. बीच बीच में लोग उस एक व्यक्ति की भी तारीफ़ जरूर करते जिसने कई लोगों को बचाया था लेकिन अपनी जान से भी हाथ धो बैठा था.
उधर कही आसमान में रूहें एक जगह बैठी हुई जमीन पर चलने वाले इस कार्यक्रम को देख रही थीं. उनमें अधिकांश तो उस एक रूह से बहुत खुश थीं जिसने उनके कुछ अपनों को बचा दिया था लेकिन एक रूह बहुत बेचैन थी. उसे यह बात जरा भी हजम नहीं हो…
Added by विनय कुमार on October 25, 2018 at 11:34am — 12 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
सुनते हैं खूब न्याय की सच्चाइयाँ जलीं
कैसा अजब हुआ है कि अच्छाइयाँ जलीं।१।
वर्षों पुरानी बात है जिस्मों का जलना तो
इस बार तेरे शहर में परछाइयाँ जलीं।२।
कितने हसीन ख्वाब हुये खाक उसमें ही
ज्वाला में जब दहेज की शहनाइयाँ जलीं।३।
सब कुछ यहाँ जला है, तेरी बात से मगर
हाकिम कभी वतन में न मँहगाइयाँ जलीं।४।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 25, 2018 at 2:30am — 18 Comments
अंबर और धरणी पर आज,
शारदीय चाँदनी रात खिली,
पूनो का चाँद लेकर आई,
तारों की बारात खिली,
कार्तिक पुरवाई बहे,
मीठी-मीठी ठंड़ खिली ,
चमेली,चंपा, जूही से महके,
सपनों की सौगात खिली,
शुभ्र चमके निहारिका ये ,
दृश्यमान है गात खिली,
गोकुल रास रचाएँ कान्हा,
वंशी की मधुरम तान खिली,
गोपियाँ-राधा झूमें-नाचें,
रक्तिम अधरों पर मुस्कान…
ContinueAdded by Arpana Sharma on October 25, 2018 at 12:00am — 8 Comments
मुझे विरासत में मिलीं
कुछ हथौड़ियाँ
कुछ छेनियाँ
मिला थोड़ा-सा धैर्य
कुछ साहस
थोड़ा-सा हुनर
मैं तराशने लगा
निर्जीव पत्थरों को
बना दिया
सुंदर-सुंदर मूर्तियाँ
जो कई अर्थों में
श्रेष्ठ हैं
ईश्वर द्वारा बनायी गयीं
सजीव मूर्तियों से
जिन्हें नहीं पता रिश्तों की मर्यादा
नही कर पातीं ये भेद
दूधमुँही बच्चियों, युवतियों और वृद्ध महिलाओं में
काश
एक अदद कलम
मुझे मिली होती …
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 24, 2018 at 11:30pm — 21 Comments
जर्जर तेरा महल हुआ है
बासी आबोदाना
रूह का पाखी बोल रहा चल
बदलें आज ठिकाना
कोने कोने जाल मकड़िया
ढहने को तैयार दुकड़िया
ईंटें होती नंगी सारी
गारे की भी तंगी भारी
गाटर हुआ पुराना
पसरी आँगन बीच उदासी
जमी हुई हैं सभी निकासी
धूप हवा आती डर डर कर
धीमे धीमे ठहर ठहर…
Added by rajesh kumari on October 24, 2018 at 9:48pm — 12 Comments
नोट:-
तरही मुशायरा अंक-100 में 87 ग़ज़लें पोस्ट हुईं,मेरी इस ग़ज़ल में जो क़वाफ़ी इस्तेमाल हुए हैं वो बिल्कुल नये हैं ।
पहले सिल पर घिसा गया है मुझे
फिर जबीं पर मला गया है मुझे
जाल हूँ इक सियासी लीडर का
नफ़रतों से बुना गया है मुझे
कोई बारूद की तरह देखो
सरहदों पर बिछा गया है मुझे
कहदो तक़दीर से बखेरे नहीं
करके वो एक जा गया है…
ContinueAdded by Samar kabeer on October 24, 2018 at 5:54pm — 47 Comments
चारो तरफ मची भगदड़ अब धीरे धीरे कम हो चली थी, बस घायल लोगों की चीखें ही चारो तरफ गूंज रही थीं. इस भयानक हादसे में सैकड़ों लोग मरे थे और उससे ज्यादा ही घायल थे. राहत में पहुंचे लोग मृत शरीरों को एक तरफ इकट्ठा कर रहे थे और घायलों को हस्पताल भेजने की तैयारी में भी जुटे थे.
पटरी के एक तरफ पड़े एक युवा के मृत शरीर को लोगों ने उठाकर एक तरफ कर दिया. कुछ ही देर बाद कुछ और लोग एक लड़की के मृत शरीर को भी वहीँ डाल गए. कुछ घंटे बीतते बीतते तमाम लाशें एक दूसरे से गड्डमड्ड पड़ीं थीं और लड़के का हाथ लड़की के…
Added by विनय कुमार on October 24, 2018 at 12:33pm — 14 Comments
२१२२ /२१२२ /२१२२/ २१२
दर्द का आँखों में सबकी इक समंदर कैद है
चार दीवारी में हँसता आज हर घर कैद है।१।
हो न जाये फिर वो हाकिम खूब रखना ध्यान तुम
जिसके सीने में नहीं दिल एक पत्थर कैद है।२।
जब से यारो ये सियासत हित परस्ती की हुयी
हो गया आजाद नेता और अफसर कैद है।३।
राज्य कैसा राम का यह ला रहे ये देखिये
बंदिशों से मुक्त रहजन और रहबर कैद…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 24, 2018 at 7:30am — 18 Comments
2122 2122 2122 212
हर दुआ पर आपके आमीन कह देने के बाद
चींटियाँ उड़ने लगीं, शाहीन कह देने के बाद
आपने तो ख़ून का भी दाम दुगना कर दिया
यूँ लहू का ज़ायका नमकीन कह देने के बाद
फिर अदालत ने भी ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली
मसअले को वाक़ई संगीन कह देने के बाद
ये करिश्मा भी कहाँ कम था सियासतदान का
बिछ गईं दस्तार सब कालीन कह देने के…
Added by Balram Dhakar on October 24, 2018 at 12:00am — 20 Comments
'अनौपचारिक आकस्मिक शिखर-वार्ता' :
प्रतिभागी : लोह कलपुर्जे, मशीनें और औज़ार।
अनौपचारिक परिचर्चा जारी गोलमेज पर :
"एक समय था, जब लोग हमारा लोहा मानते थे!"
"हां, बिल्कुल सही! लोहे पर कुछ मुहावरे, कहावतें और लोकोक्तियां भी कहा करते थे बातचीत में!"
"कील, हंसिया, खुरपी, छैनी, हथौड़े से लेकर बड़ी-बड़ी मशीनों और उनके कलपुर्जों तक हमारी ही धूम थी! अपना लोहा मनवाते थे; दुश्मनों को लोहे के चने चबाने पड़ते थे!"
"चर्मकार, कारीगर, किसान, मज़दूर, इंजीनियर,…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on October 23, 2018 at 9:30pm — 4 Comments
मानव छंद में प्रयास :
मेरे मन को जान गयी ।
फिर भी वो अनजान भयी।।
शीत रैन में पवन चले।
प्रेम अगन में बदन जले।।
..................................
देह श्वास की दासी है।
अंतर्घट तक प्यासी है।।
मौत एक सच्चाई है।
जीवन तो अनुयायी है ।।
................................
रैना तुम सँग बीत गई।
मैं समझी मैं जीत गई।।
अब अधरों की बारी है।
तृप्ति तृषा से हारी है।।
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on October 23, 2018 at 8:30pm — 6 Comments
मुझ को कहा था राह में रुकना नहीं कहीं
सदियों को नाप कर भी मैं पहुँचा नहीं कहीं.
.
ज़ुल्फ़ें पलक दरख़्त सभी इक तिलिस्म हैं
इस रेग़ज़ार-ए-ज़ीस्त में साया नहीं कहीं.
.
तुम क्या गए तमाम नगर अजनबी हुआ
मुद्दत हुई है घर से मैं निकला नहीं कहीं.
.
अँधेर कैसा मच गया सूरज के राज में
जुगनू, चराग़ कोई सितारा नहीं कहीं.
.
खेतों को आस थी कि मिटा देगा तिश्नगी
गरजा फ़क़त जो अब्र वो बरसा नहीं कहीं.
.
ये और बात है कि अदू को चुना गया…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 23, 2018 at 12:00pm — 18 Comments
जुल्म की ये इंतेहा भी कब तलक।
ज़िंदगी के इम्तेहा भी कब तलक॥
आज़ या कल बिखर ही जाऊंगा।
वक़्त होगा मेहरबाँ भी कब तलक॥
ऐब ही जब ऐब तुझमें हैं भरे मैं ।
तुझमें ढूँडू ख़ूबियाँ भी कब तलक॥…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 23, 2018 at 11:30am — 1 Comment
मुआवज़ा - लघुकथा -
देश भक्त पार्टी के एक नामी नेता रेल हादसे पर विरोध जताने अपने समर्थकों की भारी भीड़ लेकर डी एम साहब के दफ़्तर पहुंच गये और जम कर नारेबाज़ी शुरू कर दी। थोड़ी देर में साहब ने नेताजी को दफ़्तर में बुला लिया।
"क्या हुआ भैया जी, इतना शोरगुल किसलिये। हम लोग तो खुद ही रात दिन इसी काम में लगे हुए हैं।"
"जनाब, हम जन प्रतिनिधि हैं।लोगों को सब जानकारी देनी पड़ती है कि प्रशासन क्या कर रहा है। इतना समय हो गया, आप लोगों की ओर से कोई पुख्ता खबर नहीं आई मीडिया…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 23, 2018 at 10:59am — 8 Comments
2122 2122 2122 212
था कभी कितना नरम वह! हर कदर आखर हुआ
जब हवाओं ने छुआ तब पात वह जर्जर हुआ।1
सूख जाती है सियाही आजकल जल्दी यहाँ
ख्वाहिशों के फ़लसफों पे आदमी निर्झर हुआ।2
मिट्टियों की कौन करता है यहाँ पड़ताल भी
हर शज़र गमला सजा आकाश पर निर्भर हुआ।3
जो उड़ाता था वहाँ बेपर घटाओं को कभी
देखते ही देखते वह आजकल बेपर हुआ।4
वक्त की मदहोशियाँ क्या-क्या करा देतीं यहाँ
गर्द के बस ढ़ेर जैसा एक दिन अकबर हुआ।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on October 23, 2018 at 10:00am — 5 Comments
2122 1122 1122 22
शायरी फख्र से महफ़िल में जुबानी आई ।
आप आये तो ग़ज़ल में भी रवानी आई ।।
लौट आयीं हैं तुझे छू के हमारी नजरें ।
जब दरीचे पे तेरे धूप सुहानी आई ।।
पूँछ लेता है वो हर दर्द पुराना मुझसे ।
अब तलक मुझको कहाँ बात छुपानी आई ।।
तीर नजरों से चला कर के यहां छुप जाना ।
नींद मेरी भी तुझे खूब चुरानी आई ।।
मुद्दतों बाद जो गुजरा था गली से इकदिन ।
याद मुझको तेरी हर एक निशानी आई…
Added by Naveen Mani Tripathi on October 22, 2018 at 8:00pm — 6 Comments
नए आयाम ....
मुझे
नहीं सुननी
कोई आवाज़
मैंने अपने अन्तस् से
हर आवाज़ के साथ जुड़े हुए
अपनेपन की अनुभूति को
तम की काली कोठरी में
दफ़्न कर दिया है
अपनेपन का बोध
कब का मिटा दिया है
अपनेपन की सारी निधियाँ
लुटा चुका हूँ
अब तो मैं
किसी स्मृति का अवशेष हूँ
आवाज़ों के मोह बंधन में
मुझे मत बाँधो
हम दोनों के मन
एक दूसरे की अनुभूतियों के
अव्यक्त स्वरों से
गुंजित हैं
आवाज़ों को चिल्लाने दो…
Added by Sushil Sarna on October 22, 2018 at 7:42pm — 6 Comments
हर घर में एक राम है रहता।
हर घर में एक रावण भी॥
जैसी जिसकी सोच है रहती।
उसको दिखता वो वैसा ही॥
टूट शिला से छोटा टुकड़ा।
लुढ़क रहा मंदिर की ओर॥
कोई देखता उसको पत्थर।
कोई देखता भगवन को॥
आस्था और विश्वास जहां हो।
तर्क नहीं देते कुछ काम॥
मानो या न मानो लेकिन।
बनते सबके बिगड़े काम॥
धर्म-अधर्म सब अंदर अपने।
पीर पड़े लगे राम को जपने॥
वर्षो से यही रीत चल रही।
इच्छाओं की गति…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 22, 2018 at 5:30pm — 1 Comment
(1). मेरा जिस्म
एक बड़ी रेल दुर्घटना में वह भी मारा गया था। पटरियों से उठा कर उसकी लाश को एक चादर में समेट दिया गया। पास ही रखे हाथ-पैरों के जोड़े को भी उसी चादर में डाल दिया गया। दो मिनट बाद लाश बोली, "ये मेरे हाथ-पैर नहीं हैं। पैर किसी और के - हाथ किसी और के हैं।
"तो क्या हुआ, तेरे साथ जल जाएंगे। लाश को क्या फर्क पड़ता है?" एक संवेदनहीन आवाज़ आई।
"वो तो ठीक है… लेकिन ये ज़रूर देख लेना कि मेरे हाथ-पैर किसी ऐसे के पास नहीं चले जाएँ, जिसे मेरी जाति से घिन आये और वे…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on October 22, 2018 at 9:00am — 6 Comments
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