Added by विवेक मिश्र on August 3, 2013 at 3:09pm — 26 Comments
आज फिर किसी ने पारस को चाकू मार दिया था, उसकी किस्मत अच्छी थी कि घाव बेहद मामूली था. डाक्टर बाबू देखते ही पारस को पहचान गये, क्योंकि कोई आठ दस महीने पहले की ही तो बात है जब पारस के घर मे डकैती हुई थी और बदमाशों ने पारस के शरीर पर चाकू से अनगिनत वार किये थे, तब इलाज के लिए उसे इसी डाक्टर के पास लाया गया था, गंभीर रूप से ज़ख़्मी होने के बावजूद भी इस बहादुर नौजवान के मुँह से उफ़ तक नहीं निकली थी, लेकिन इस बार अत्यधिक…
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 15, 2013 at 5:30pm — 63 Comments
रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं (ग़ज़ल "राज")
२ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २
बहर ----रमल मुसम्मन सालिम
रदीफ़ --हम देखते हैं
काफिया-- इयाँ
आज क्या-क्या जिंदगी के दरमियाँ हम देखते हैं
जश्ने हशमत या मुसल्सल पस्तियाँ हम देखते हैं
खो गए हैं ख़्वाब के वो सब जजीरे तीरगी में
गर्दिशों में डगमगाती कश्तियाँ हम देखते हैं
ख़ुश्क हैं पत्ते यहाँ अब यास में…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 9, 2013 at 5:30pm — 40 Comments
मन सिहरा ,ठहरा तनिक ,देखा अप्रतिम रूप ,
भोर सुहानी ,सहचरी ,पसर गई लो, धूप !
रश्मि-रश्मि मे ऊर्जा और सुनहरा घाम,
बिखर गया है स्वर्ण-सुख लो समेट बिन दाम !
सुन किलकारी भोर की विहंसी निशि की कोख ,
तिमिर गया ,मुखरित हुआ जीवन में आलोक !
उगा भाल पर बिंदु सा लो सूरज अरुणाभ ,
अब निंदिया की गोद में रहा कौन सा लाभ !
_______________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ
(मौलिक और अप्रकाशित )
Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 12, 2013 at 11:00pm — 11 Comments
माँ वो है-
जो जन कर जुड़ जाती है
चेतना के अंधकूपों में भी
अपने जने का करती है पीछा,
एक सूत्र बन कर संतति से हो जाती है तदाकार,
पालना ही जिसका
सार्वत्रिक,सार्वभौमिक और शाश्वत संस्कार;
शायद इसीलिए हमारे
उन दिग्विजयी पड़दादाओं ने
तेरे कगारों पर दण्डवत कर के
उर्मिल जल की
अँजुरी भर के
कोई संकल्प किया था
और बुदबुदाये थे कितने ही मंत्र अनायास
तुझे माँ कह कर।
वो शायद आदिम थे
इसीलिए भ्रमित थे,असभ्य थे
और हम सभ्य…
Added by Ravi Prakash on July 13, 2013 at 5:30pm — 10 Comments
आनंद जीवन है , शब्द मात्र नहीं
संसार के बियाबान सुनसान अधेरी राहों में,
रोशनी की तरह इसकी तलाश है
हम तुम यह जग जबसे है आनंद आस -पास है
ये उजड़ी गलियों में भी था ,थकी हुई सडको में भी है , तुम्हारे पगडण्डी में भी है i
बस इसे पाने का विश्वाश खो गया है ,हमारा अपनापन इससे कितनी दूर हो गया है i
कही हम इसे बदनाम बस्तियों में ढूढ़ते है
कही हम अपने से बड़ी हस्तियों में ढूढ़ते है
अल्पकालीन किन्तु सर्वव्याप्त है
जितना मिला क्या…
Added by दिलीप कुमार तिवारी on July 14, 2013 at 7:30pm — 3 Comments
वो मानते हैं कि हो सकती उनसे कोई खता नहीं
खुद तक तो खुदा के सिवा कोई और पहुंचता नहीं|
वो जुस्तजू करते हैं हमारे क़दमों के निशाँ की भी
उनके हाथों में छुपे खंजर को तो कोई खोजता नहीं|
वो जिन्होंने तय की हैं बुलंदियां लाशों की सीढ़ी पे
कदमों में लगे खून से कब फिसल जाएँ पता नहीं|
वो हो जाते हैं नाराज़ हमारी ज़रा सी लडखडाहट से
जैसे उनके जहां में मदमस्त तो कोई गिरता नहीं|
वो हैं जैसे भी दूर उनसे सोच में भी नहीं…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 14, 2013 at 10:00pm — 12 Comments
जरूरत है प्रयास की
कोशिश की
कंक्रीट का जंगल
और ठसाठस सड़के हैं
नीला अंबर धूल धूसरित है
उहापहो की स्थिति है
इतने विशाल शहर में
हम और तुम निहायत अकेले हैं
जीवन का उद्देश्य
केवल जीवन यापन है
नित्य क्रम की नियति को
समझ लिया खुशी का समागम
खोखली हंसी
छिछला प्यार
दिखावे के लिए मिलना जुलना
केवल सतही संतुष्टि है
झाँक कर देखा अंदर
तो अजीब तरह का खोखलापन है
गाहे…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on July 14, 2013 at 10:30pm — 6 Comments
ग़ज़ल लिखने का एक प्रयास और किया है मैने, प्रकृति की सुंदरता का हमेशा से ही कायल रहा हूँ इसलिए मेरी रचना प्रकृति के आस पास ही रहती है.
वज्न -1222 1222 1222
हजज मुसद्दस सालिम
सुहाने ख्वाब से मुझको उठा गुज़री
वो लहराती हुई बादे सबा गुज़री
दिखी थी पैरहन वो धूप की लेकर
कभी शबनम की वो ओढ़े कबा गुज़री
फ़िज़ा सरशार भीगी…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on July 15, 2013 at 1:00pm — 7 Comments
साँसें जब करने लगीं, साँसों से संवाद
जुबाँ समझ पाई तभी, गर्म हवा का स्वाद
हँसी तुम्हारी, क्रीम सी, मलता हूँ दिन रात
अब क्या कर लेंगे भला, धूप, ठंढ, बरसात
आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ
पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ
सिहरें, तपें, पसीजकर, मिल जाएँ जब गात
त्वचा त्वचा से तब कहे, अपने दिल की बात
छिटकी गोरे गाल से, जब गर्मी की धूप
सारा अम्बर जल उठा, सूरज ढूँढे कूप
प्रिंटर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2013 at 2:34pm — 26 Comments
मेरे जीवित होने का अर्थ -
-ये नहीं कि मैं जीवन का समर्थन करता हूँ !
-ये भी नहीं कि यात्रा कहा जाय मृत्यु तक के पलायन को !
ध्रुवीकरण को मानक आचार नही माना जा सकता !
मानवीय कृत्य नहीं है परे हो जाना !
मैं तटस्थ होने को परिभाषित करूँगा किसी दिन !
संभव है-
कि मानवों में बचे रह सके कुछ मानवीय गुण !
मेरा अभीष्ट देवत्व नहीं है !
.
.
.
……………………................………… अरुन श्री…
ContinueAdded by Arun Sri on July 16, 2013 at 1:38pm — 17 Comments
प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन
कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण
अटल काल पर
पदचिन्हों की थाप छोड़ता
बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...
अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर
देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा
मृगमारीची सम
अनजाना - जाना पहचाना...
खामोशी से, मन ही मन
अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को
फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता...
वो,
अलमस्त मदन
अस्पृष्ट वदन
गुनगुन गाये ऐसी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 1:00pm — 43 Comments
उड़न -खटोले पर चढ़े, आये 'प्रभु' निर्दोष,
अपनी निष्क्रिय फ़ौज में जगा गए कुछ जोश !
राहत की चाहत जिन्हें उन्हें न पूछे कोय ,
इधर-उधर घूमे फिरे और गए फिर सोय !
भटक रहे विपदा पड़े, ढूंढ रहे हैं ठांव ,
ये अपने सरकार जी कब बांटेंगे छाँव ?
विपदा खूब भुना रहे सत्ता का सुख भोग,
भूखे,नंगे ,काँपते इन्हें न दिखते लोग !
श्रेय कौन ले जाएगा मची हुई है होड़,
जोड़-तोड़ के खेल…
ContinueAdded by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 2, 2013 at 11:15pm — 18 Comments
सार/ललित छंद १६ + १२ मात्रा पर यति का विधान, पदांत गुरु गुरु अर्थात s s से,, छन्न पकैया पर प्रथम प्रयास / क्रिकेट विषय
छन्न पकैया छन्न पकैया, टॉस करेगा सिक्का
कौन चलेगा पहली चाली, हो जायेगा पक्का ।। १
छन्न पकैया छन्न पकैया, कंदुक लाली लाली
इक निशानची ठोकर मारे, गिल्ली भरे उछाली।। २
छन्न पकैया छन्न पकैया, बादल छटते जाये
आँखों में है धूर…
ContinueAdded by वेदिका on July 2, 2013 at 5:30pm — 39 Comments
एक क्षण ,
Added by Dr Lalit Kumar Singh on July 2, 2013 at 5:30am — 18 Comments
वजन : 2122 1212 22
वक़्त किसका गुलाम होता है
कब कहाँ किसके नाम होता है
कल तलक जिससे था गिला तुमको
आज किस्सा तमाम होता है
खास है जो मुआमला अपना
घर से निकला तो आम होता है
आज जग में सिया नहीं मिलती
औ’…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 2, 2013 at 11:00am — 48 Comments
मेरे पिया गए परदेश रे
ना मनवा लागे रे
सावन आया
ददुरबा बोले
ददुरबा बोले ददुरबा बोले
बादल गरजे तेज रे
ना मनवा लागे रे
चिठ्ठी आयी ना
पाती आयी
ना आया कोई सन्देश रे
ना मनवा लागे रे
सोलह श्रृंगार
ना मन को भाये
मन को भाये न मन को भाये
भाये ना ये देश रे
ना मनवा…
Added by Devendra Pandey on July 2, 2013 at 11:00am — 13 Comments
मौसम की मनमानी है
सब आँखों में पानी है।
छाया बादल ये कैसा
दर्द दिया रूहानी है।
पावन है जग में सबसे
गंगा का ही पानी है।
जगती है आंखे तेरी
शब को यूं ही जानी है।
तुझको पाने की ख्वाहिश
हमने मन में ठानी है।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Ketan Parmar on July 2, 2013 at 4:30pm — 15 Comments
तू मुझमें बहती रही, लिये धरा-नभ-रंग
मैं उन्मादी मूढ़वत, रहा ढूँढता संग
सहज हुआ अद्वैत पल, लहर पाट आबद्ध
एकाकीपन साँझ का, नभ-तन-घन पर मुग्ध
होंठ पुलक जब छू रहे, रतनारे …
Added by Saurabh Pandey on June 22, 2013 at 2:00am — 51 Comments
आपने चाहा ही नहीं दर्द का दरमां होना
कितना आसान था दुश्वार का आसां होना
.
आपका हुस्न तो खुद होश उड़ा देता
आपको ज़ेब नहीं देता है हैरां होना
.
नाम ए मर्ग है फूलों के लिए काली घटा
दोशे गुलनार पे ज़ुल्फों का परेशां होना
.
वक़्त वो दोस्त है जो पल में बदल जाता है
भूल से भी न कभी वक़्त पे नाजां होना
.
दिल पे अज्ञात के जो गुजरा है वो ज़ाहिर है
इस तरह आप का लहरा के पेरीजां होना
.
ज़ेब = शोभा , नाजाँ =…
Added by Ajay Agyat on June 13, 2013 at 9:00pm — 9 Comments
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