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शारदे समग्र काव्य. . .

कलाधर छन्द

शारदे समग्र काव्य में विचार भव्यता कि

सत्यता  उघार के  कुलीन भाव  मन्त्र दें।

शब्द शब्द  सावधान  अर्थ की  विवेचना

करें  विशुद्ध भाव से सुताल छन्द तंत्र दें।।

व्यग्रता  सुधार के विनम्रता  सुबुद्धि ज्ञान

मान के  समस्त  मानदण्ड  के  सुयंत्र  दें।

आप ही कमाल  वाह वाह की  विधायिनी

सुभाषिनी प्रवाह  गद्य पद्य में  स्वतन्त्र दें।।

मौलिक व अप्रकाशित

रचनाकार  . .केवल प्रसाद सत्यम

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 28, 2016 at 10:37am — 6 Comments

तरही ग़ज़ल

फ़इलातु फ़ाइलातुन फ़इलातु फ़ाइलातुन



है यही मिशन हमारा कि हराम तक न पहुँचे

कोई मैकदे न जाए कोई जाम तक न पहुँचे



थे ख़ुदा परस्त जितने,वो ख़ुदा से दूर भागे

जो थे राम के पुजारी,कभी राम तक न पहुँचे



ज़रा सीखिये सलीक़ा,नहीं खेल क़ाफ़िए का

वो ग़ज़ल भी क्या ग़ज़ल है जो कलाम तक न पहुँचे



लिखो तज़किरा वफ़ा का तो उन्हें भी याद रखना

वो सितम ज़दा मुसाफ़िर जो मक़ाम तक न पहुँचे



लिया नाम तक न उसका,ए "समर" यही सबब था

मिरी आशिक़ी के क़िस्से रह-ए-आम तक न… Continue

Added by Samar kabeer on August 28, 2016 at 12:19am — 26 Comments

आस और प्यास (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

बात सिर्फ सूटकेस और नये कपड़े ख़रीदने की ही नहीं थी। हर बार मायके अकेले ही भेजना और भेजते समय बहस करना और लाड़ली बिटिया को देख-देख कर आंसू बहाना पत्नी को आज फिर अच्छा नहीं लग रहा था, सो मुँह फेर कर थोड़ी दूर बैठ गई।



"अब टसुये मत बहाओ, ये बताओ कि अबकी बार कितने दिन ज़ुल्म करोगी मुझ पर? मैं नहीं आऊँगा लेने, समझ लेना, जैसे जा रही हो, वैसे ही ज़ल्दी लौटना! भाईयों के अहसान मत लादना मुझ पर, समझीं!"- एक सांस में उसने अपने पुराने वाले संवाद बोल डाले, फिर नन्ही सी बिटिया को उसके कंधे से छीन कर… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 27, 2016 at 11:47pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हमारे देश के मौसम हमें वापस बुलाते हैं ( फिल्बदीह हिंदी ग़ज़ल/गीतिका 'राज ')

१२२२  १२२२   १२२२  १२२२

जहाँ श्री राम की मूरत वहीं सीता बिठाते हैं

जपें जो नाम राधा का वहीं घनश्याम आते हैं

 

करें पूजन हवन जिनका करें हम वंदना जिनकी

वही दिल में हमारे ज्ञान का दीपक जलाते हैं

 

लिए विश्वास के लंगर चलें जो पोत के नाविक

समंदर के थपेड़ों से नही वो डगमगाते हैं

 

पराये देश में जाकर भले दौलत कमाएँ हम

हमारे देश के मौसम हमें वापस बुलाते हैं

 

भरे हम  बैंक कितने भी मगर क्या बात गुल्लक…

Continue

Added by rajesh kumari on August 27, 2016 at 8:18pm — 9 Comments

ग़ज़ल....ख्वाब सारे अनमने हैं

​2122        2122        2122
बेदिली के अनवरत ये सिलसिले हैं
इसलिये तो ख्वाब सारे अनमने हैं

बाद मुद्दत के सफ़र आया वतन तो
थे बशर बिखरे हुये घर अधजले हैं

बादलों औ बारिशों ने साजिशें कीं 
भूख की संभावनायें सामने हैं

अस्ल ए इंसानियत मजबूत रक्खो
हर कदम पे ज़िन्दगी में जलजले हैं

इस शहर में चीखने से कुछ न होगा
गूंगी जनता शाह भी बहरे हुये हैं

(​मौलिक एवं अप्रकाशित)

बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 27, 2016 at 12:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल - निकले तमाम हाथ तिरंगे लिए हुए

(बलोचिस्तान के ताज़ा हालात पर )



2212 1 21 12 212 12

कुछ मुद्दतो के बाद सही फैसले हुए ।

निकले तमाम हाथ तिरंगे लिए हुए ।।



मत पूछिए गुनाह किसी के हिजाब का ।

देखा कसूरवार के शिकवे गिले हुए ।।



हालात पराये है किसी के दयार में ।

है वक्त बेहिसाब बड़े हौसले हुए ।।



तकसीम कर रहा था हमारा मकान जो।

शायद उसी के घर में कई जलजले हुए ।।



पत्थर न फेंकिए है शहीदों का कारवां ।

कैसे हिमाकतों से लगे सिलसिले हुए ।।



कातिल तेरा… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 27, 2016 at 1:33am — 9 Comments

बोझ : नज़्म

थाम लो इन आंसुओं को

बह गए तो ज़ाया हो जाएंगे

इन्हें खंजर बना कर पेवस्त कर लो

अपने दिल के उस हिस्से में 

जहाँ संवेदनाएं जन्म लेती हैं

उसके काँधे पर रखी लाश से कहीं ज्यादा वज़न है

तुम्हारी उन संवेदनाओं की लाशों का 

जिन्हें अपने चार आंसुओं के कांधों पर 

ढोते आए हो तुम 

अब और हत्या मत करो इनकी

संवेदनाओं का कब्रस्तान बनते जा रहे तुम

हर ह्त्या, आत्महत्या, बलात्कार पर 

एक शवयात्रा निकलती है तुम्हारी आँखों…

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Added by saalim sheikh on August 26, 2016 at 1:00am — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - हम भी कुछ पत्थर लेते हैं ( गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22  22  22  22 -- बहरे मीर

छोटी मोटी बातों में वो राय शुमारी कर लेते हैं

और फैसले बड़े हुये तो ख़ुद मुख़्तारी सर लेते हैं

 

वहाँ ज़मीरों की सच्चाई हम किसको समझाने जाते

दिल पे पत्थर रख के यारों रोज़ ज़रा सा मर लेते हैं

 

चाहे चीखें, रोयें, गायें फ़र्क नहीं उनको पड़ता, पर

जैसे बच्चा कोई डराये , वालिदैन सा डर लेते हैं

 

कल का नीला आसमान अब रंग बदल कर सुर्ख़ हुआ है

पंख नोच कर सभी पुराने, चल बारूदी पर लेते…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 25, 2016 at 5:28pm — 18 Comments

सब खाते हैं एक बोता है (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२

 

सब खाते हैं एक बोता है

ऐसा फल अच्छा होता है

 

पूँजीपतियों के पापों को

कोई तो छुपकर धोता है

 

एक दुनिया अलग दिखी उसको

जिसने भी मारा गोता है

 

हर खेत सुनहरे सपनों का

झूठे वादों ने जोता है

 

महसूस करे जो जितना, वो,

उतना ही ज़्यादा रोता है

 

मेरे दिल का बच्चा जाकर

यादों की छत पर सोता है

 

भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’

सच्चा तो केवल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 25, 2016 at 11:37am — 8 Comments

फिर आओ गोपाल [ दोहा गीत जन्माष्टमी पर ]

 

हे पार्थ के सारथी, हे जसुमति के लाल

हरने जन की पीर अब , फिर आओ  गोपाल

 

ध्वस्त किया था कंस का ,इक दिन तुमने मान

निडर हो गया कंस अब ,और हुआ बलवान

घूम रहा है ओढ़ कर ,सज्जनता की खाल

हरने जन की पीर अब ,  फिर आओ  गोपाल

 

पाँचाली के चीर का ,किया खूब विस्तार   

नयनों में भर नीर फिर ,तुमको रही पुकार

अंध सभा में ठोकता , दुःशासन फिर  ताल

हरने जन की पीर अब  ,फिर आओ गोपाल

 

अर्जुन का रथ थाम कर…

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Added by pratibha pande on August 25, 2016 at 8:00am — 14 Comments

नेपाल यात्रा - यादों के झरोखे से (संस्मरण)

यह 1980-81 की बात है । मैं दसवी क्लास में थी । स्कूल का आखरी टूर था । पता चला कि नेपाल जाना था । स्कूल के टूर साल में दो बार होते थे गर्मी और विंटर की छुट्टियों में । दिसम्बर में जाना तय हुआ था । प्रिंसिपल सर ने घोषणा की कि दिल्ली , आगरा , पटना , गया से समस्तीपुर होते हुए नेपाल जाना होगा । हम क्लास में आपस में बाते करने लगे थे । अपने अपने मनसूबों के साथ हम में एक उत्साह था । यह स्कूल का आखरी टूर था । हम सब जल्द ही बिछड़ने वाले थे । मेरे मन में था मैं भी जाऊं । पर कैसे ?? एक नोटिस मिलता था ।…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 25, 2016 at 7:00am — 9 Comments

उम्मीदों की कश्ती

टिमटिमाते तारे की रोशनी में

मैंने भी एक सपना देखा है ।  

टुटे हुए तारे को गिरते देखकर

मैंने भी एक सपना देखा है ।  

सोचता हूं मन ही मन कभी

काश ! कोई ऐसा रंग होता

जिसे तन-बदन में लगाकर

सपनों के रंग में रंग जाता ।

बाहरी रंग के संसर्ग पाकर

मन भी वैसा रंगीन हो जाता ।

सपनों से जुड़ी है उम्मीदें, पर   

उम्मीदों की उस परिधि को

क्या नाम दूं ? सोचता हूं तो 

मन किसी अनजान भंवर में

दीर्घकाल तक उलझ जाता…

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Added by Govind pandit 'swapnadarshi' on August 24, 2016 at 10:13pm — 4 Comments

ग़ज़ल

१ २ २ / १ २ २ / १ २ २ /१ २

याँ कुछ लोग जीते भलों के लिए

जिओ जिंदगी दूसरों के लिए |

गुणों की नहीं माँग दुख वास्ते 

सकल गुण जरुरी सुखों के लिए |

मैं गर मुस्कुराऊं, तू मुँह मोड़ ले

शिखर क्यूँ चढूं पर्वतों के लिए ? 

मैं किस किस की बातें सुनाऊं यहाँ

जले शमअ कोई शमो के लिए  |

मकाँ और दुकाने जो भी हैं यहाँ

जवाँ केलिए ना बड़ों के लिए |

मौलिक…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on August 24, 2016 at 8:30pm — 5 Comments

लूली---लघुकथा

 पास ही  की झुग्गी के  बच्चे और यहाँ तक की कुत्ते भी अचानक से उस और दौड़ पडे .

"अरे मुन्ना! वो देख जा जल्दी बहुत सारा खाना आया दिखता है." लूली ने जोर देकर अपने भाई से कहा और …

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Added by नयना(आरती)कानिटकर on August 23, 2016 at 10:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल - मेरे दर्दे गम की कहानी न पूछो

122 122 122 122



मेरे दर्दो गम की कहानी न पूछो ।

मुहब्बत की कोई निशानी न पूछो ।।



बहुत आरजूएं दफन मकबरे में ।

कयामत से गुजरी जवानी न पूछो ।।



मुझे याद है वो तरन्नुम तुम्हारा ।

ग़ज़ल महफ़िलों की पुरानी न पूछो ।।



हुई रफ्ता रफ्ता जवां सब अदाएं ।

सितम ढा गयी कब सयानी न पूछो ।।



बयां हो गई इश्क की हर हकीकत ।

समन्दर की लहरों का पानी न पूछो ।।



सलामी नजर से नज़र कर गयी थी ।

वो चिलमन से नज़रें झुकानी न पूछो…

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Added by Naveen Mani Tripathi on August 23, 2016 at 10:00pm — 7 Comments

सच से कम कुछ कहा नहीं जाता- ग़ज़ल

2122 1212 22



गुमशुदा यूँ रहा नहीं जाता

घुट के हमसे मरा नहीं जाता



रौशनी की बहुत ज़रूरत है

इसलिए ही बुझा नहीं जाता



आँख मन से जुड़ी है सीधे ही

सोचने से बचा नहीं जाता



लेखनी ताक़ पर मैं रख देता

दिल बिना तो जिया नहीं जाता



हाँ; जी पढ़ता नहीं कोई पुस्तक

कर्ज़ लेकर लिखा नहीं जाता



है तो दुनिया बड़ा सरोवर पर

नीर के बिन खिला नहीं जाता



दुश्मनी पालिये भले साहिब

सच से कम कुछ कहा नहीं जाता



राह… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 23, 2016 at 9:00pm — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पकड़कर हाथ राधा का चले जो नूर का बेटा (फिल्बदीह ग़ज़ल 'राज '

पड़े आफ़ात तो छुपता किसी मशहूर का बेटा 

कलेजा शेर का रखता मगर मजदूर का बेटा 



कहीं ऊपर जमीं के उड़ रहा मगरूर का बेटा 

जमीं को चूमता चलता किसी मजबूर का बेटा



कई तलवार बाहर म्यान से आती दिखाई दें  

पकड़कर हाथ राधा का चले  जो नूर का बेटा



सिखाने पर परायों के भरा है जह्र नफरत का 

चला हस्ती मिटाने को कोई अखनूर का बेटा



कदम पीछे हटा लेता जहाँ उसकी जरूरत हो 

हर इक रहबर फ़कत कहने को है जम्हूर का बेटा 



सरापा थाम…

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Added by rajesh kumari on August 23, 2016 at 6:32pm — 23 Comments

रामभरोसे (लघुकथा)राहिला

"अरे अब चुप भी हो जा।लड़के के नम्बर तेरे नाराज़ होने से बढ़ नहीं जायेंगे।जैसे तू डाक्टर बन गया ,वो भी बन जायेगा।सीटें तो मिलनी ही हैं वो कहाँ जाएँगी।"

"आप उसे बढ़ावा ना दें पिताजी!"

"अरे भई!मैं उसे कोई बढ़ावा नहीं दे रहा।बस,तू अब ये किच-किच बंद कर।मेरी तबियत वैसे भी सुबह से कुछ ठीक नहीं हैं।कह कर वो धम्मसे सौफे पर गिर गए और पसीने - पसीने हो गए।

"क्या हुआ आपको? "घबराकर राजेश ने उन्हें सम्हाला।लेकिन जल्दी ही एक हृदय रोग विशेषज्ञ होने के नाते उसे समझते देर ना लगी ,मामला हृदयघात का… Continue

Added by Rahila on August 23, 2016 at 1:30pm — 4 Comments

कुकुभ -छन्द -२

कुकुभ छंद -२

जीवन में दुःख के लिए तो, गुण जरुरी नहीं होता

हमेशा दुख है घुसपैटिया, अनाहूत पाहुन होता |

योग्यता, प्रतिभा जरूरी है, गर दिल में सुख की इच्छा

चढ़ता वही पर्वत शिखर पर, जिसमे है सशक्त स्वेच्छा |

 

प्रकृति कब कुपित हो लोगों से, कोई नहीं कभी जाने

करते गलती मानव जग में, कभी भूल से अनजाने |

जल प्रलय में डूबे हजारों, मकान थे नदी किनारे

ज़खमी न जाने जितने हुए, कितने अल्ला को प्यारे |

 

मौलिक एवं…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on August 23, 2016 at 10:19am — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - गुड़ मिला पानी पिला महमान को ( गिरिराज भंडारी )

गुड़ मिला पानी पिला महमान को

2122    2122    212

********************************

तब नज़र इतनी कहाँ बे ख़्वाब थी

और ऐसी भी नहीं बे आब थी 

 

नेकियाँ जाने कहाँ पर छिप गईं

इस क़दर उनकी बदी में ताब थी

 

गैर मुमकिन है अँधेरा वो करे

बिंत जो कल तक यहाँ महताब थी

 

बे यक़ीनी से ज़ुदा कुछ बात कह

ठीक है, चाहत ज़रा बेताब थी

 

डिबरियों की रोशनी, पग डंडियाँ

थीं मगर , बस्ती बड़ी शादाब थी

 शादाब-…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 23, 2016 at 8:30am — 24 Comments

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