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गजल (पुरस्कारों को इंगित) (मनन)

2122 2122 2122 2



मर रहे क्यूँ नाम के अखबार की खातिर

कब बने तमगे कहो फनकार की खातिर।1



लिख रहे जो बात कुछ भी काम आये तो

गर बहें आँसू किसी दरकार की खातिर।2



चाँद-सूरज जल रहे फिर मोम गलती है,

रूठते हैं कब भला उपहार की खातिर।3



बाढ़ आती है जहाँ कुछ- कुछ पनपता है

है कहाँ सब लाजिमी घर-बार की खातिर।4



खुद खुशी हित थी लिखी बहु जन मिताई ही

लिख रहे कुछ लोग निज उपकार की खातिर।5



शोखियों का शौक रखते बदगुमां कुछ…

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Added by Manan Kumar singh on August 23, 2016 at 7:00am — 18 Comments

दीवारें दरकतीं हैं ...(लघुकथा)

मैं जब स्कूल से आयी तो देखा बिशम्भर नाथ जी यानि कि मेरे चाचा जी मेरे सगे चाचा जी ड्राइंग रूम में बैठे माँ के साथ बतिया रहे थे। वही पुरानी खानदान की बातें, पुराने बुआ दादी के किस्से । मैंने देखा उन्होंने कनखियों से एक नज़र मुझ पर भी डाली है।

‘‘बेटा इधर आओ देखो चाचा जी आये हैं’’ मैं माँ की बात को अनसुना करके अपने कमरे में चली गयी। आज मुझे ‘चाचाजी’ शब्द से ही घृणा हो रही थी। जिनकी गोदी में मैं बचपन से खेलती आयी हूं जिनके लिये मैं हमेशा उनकी छोटी सी गुड़िया रही वही इस गुड़िया के शरीर से खेलना…

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Added by Abha saxena Doonwi on August 22, 2016 at 10:00pm — 5 Comments

खूबसूरत जहां

आकाश ,बादल, चाँद, सितारे

लगते है कितने प्यारे प्यारे

बच्चों की कहानियों में आते

युवा के मन को यह है भाते

सुबह और शाम

दिन और रात

चार पहर की चार बाते

चार बातों की चार सौगातें

पेड़ पौधों की अपनी महफ़िल

परिंदों के अपने कलरव

रेंगते कीड़ों की अपनी वाणी

धरा की बढती खूबसूरती

आकाश को महकाती

क्षितिज देखता चहु और से

नदी सागर का बहना

चट्टानों से बहते झरनें

चमकते पत्थर

सूखे पठार

चुभते काँटे

मिट्ठी मीट्टी की… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 22, 2016 at 9:23pm — 8 Comments

ग़ज़ल - वो दिल मांगते दिल बसाने से पहले

122 122 122 122



तेरी बज्म में कुछ सुनाने से पहले ।

मैं रोया बहुत गुनगुनाने से पहले ।।



न बरबाद कर दें ये नजरें इनायत ।

वो दिल मांगते दिल बसाने से पहले ।।



है इन मैकदों में चलन रफ्ता रफ्ता ।

करो होश गुम कुछ पिलाने से पहले ।।



तेरे हर सितम से सवालात इतना ।

मैं लूटा गया क्यूँ जमाने से पहले ।।



बदल जाने वाले बदल ही गया तू ।

मुहब्बत की कसमें निभाने से पहले ।।



ख़रीदार निकला है वो आंसुओं का ।

जो आकर गया…

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Added by Naveen Mani Tripathi on August 22, 2016 at 9:00pm — 10 Comments

तीन क्षणिकाएँ

क्षणिका .. १

सूखी पीली झाड़ी सरीखा बाँझ रिश्ता

अँधियाले भरी सांझ में मानो कोई घायल पक्षी

वेदनाओं की नीली गुत्थियाँ खोले

 

क्षणिका .. २

कुम्हलाए साँवले रिश्ते के उदास बगीचे में

सुनता हूँ, "स्नेह अभी भी है"

पर अनस्तित्व को अस्तित्व देती

उस स्नेह में अब मीठी चाशनी नहीं है

क्षणिका .. ३

गहरे अकेले प्रश्नों से बिम्बित

पुराना वेदनामय अस्तित्व ...

बहती है अभी भी रुधिर…

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Added by vijay nikore on August 22, 2016 at 5:00pm — 6 Comments

संतुलन - डॉo विजय शंकर

जोड़-तोड़ खूब कर लेते हो।
जहां तोड़ लेना चाहिए ,
वहीं जोड़ लेते हो ,
समस्या को निपटा नहीं पाते ,
लिपटा लेते हो , गले लगा लेते हो।
उसी का राग अलापते हो ,
गीत गाते हो , छोड़ते नहीं ,
अलबत मौक़ा मिलते ही भुना लेते हो।
जिनको जोड़ लेना चाहिए ,
उन्हें भूले रहते हो।
संतुलन बनाये रखते हो।
कहते हो , राजनीति है ,
कर लेते हो।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on August 22, 2016 at 10:24am — 20 Comments

पुनर्नवा ( लघुकथा)

“चलो भैया घर नहीं चलना है क्या?”

साथी के स्वर सुन,सोच में डूबा मदन, चौंक कर बोला, “हाँ हाँ चलो भाई निकलतें हैं”

सब अपनी-अपनी साईकिल लेकर बढ़ चले, तो साथ ही काम करने वाला राघव, अपनी साईकिल मदन के आगे लगाकर बोला,

“चलिए दद्दा हम भी चलते हैं”

“जिनसे नाता था वो तो कब का छोड़ गए... तू कौन से जन्म रिश्ता निभा रहा है, रे?” साईकिल पर बैठते हुए उसने कहा.

साईकिल बढ़ाते हुए राघव बोला, “दद्दा, उम्र में छोटा हूँ, आपसे कहने का हक तो नहीं है. मगर...”

“पता है तू क्या कहेगा... मगर…

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Added by Seema Singh on August 22, 2016 at 9:00am — 26 Comments

कुछ मुक्तक आँखों पर

अँखियों में अँखियाँ डूब गई,

अँखियों में बातें खूब हुई.

जो कह न सके थे अब तक वो,

दिल की ही बातें खूब हुई.

*

हमने न कभी कुछ चाहा था,

दुख हो, कब हमने चाहा था,

सुख में हम रंजिश होते थे,

दुख में भी साथ निबाहा था.

*

ऑंखें दर्पण सी होती है,

अन्दर क्या है कह देती है.

जब आँख मिली हम समझ गए,

बातें अमृत सी होती है.

*

आँखों में सपने होते हैं,

सपने अपने ही होते हैं,

आँखों में डूब जरा…

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on August 22, 2016 at 7:00am — 16 Comments

ग़ज़ल ( क़लम तक न पहुंचे )

ग़ज़ल ( क़लम तक न पहुंचे )

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१२२ --१२२ --१२२ --१२२

वो पहुंचे मगर चश्मे नम तक न पहुंचे ।

हंसी में छुपे मेरे गम तक न पहुंचे ।

इनायत है उनकी मगर खौफ भी है

कहीं  सिलसिला यह सितम तक न पहुंचे ।

कई बार उनसे हुई बात लेकिन

मेरे जज़्बए दिल सनम तक न पहुंचे ।

यही रहबरों चाहती है रियाया

सियासत कभी भी धरम  तक न पहुंचे ।

तसव्वुर नहीं बंदिशें हैं मिलन…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on August 21, 2016 at 5:33pm — 10 Comments

प्रेम त्रिकोण

ताटंक छ्न्द

-------------

1.उमर बढ़ी पर प्रीत लगाई,अब दूजी से जाने क्यों

नहीं पराई औरत है वह,बीवी इसको माने क्यों

पूरा दिन ही गिटर-पिटर बस, फोन लिए करते जाते

मुझे भुलाकर बात उसी से,ध्यान दिए करते जाते

2.

मैंने बोला नहीं दूसरी,लगा मीडिया प्यारा है

इसपे ही लिखता रहता हूँ,यह अच्छा औ न्यारा है

बोल पड़ी झटसे मुझसे वह,मुझको भी दिखलाओ तो

कैसे करते काम इसी पर,थोड़ा सा समझाओ तो

3.

उसे जरा सा यह मैंने तोे,बस यूँ ही बतलाया था

कैसे सोशल हम हो… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 21, 2016 at 5:00pm — 6 Comments

बिटिया की ग़ज़ल ,,मनोज अहसास,,,

ज़रा सा मुस्कुरा दो तो बड़ी हो जाओगी बिटिया

तुम्हीं जुगनू,तुम्हीं खुशबू, तुम्हीं हो चाँदनी बिटिया



किताबें कितनी सुन्दर हैं कहीं चंदा,कहीं तारे

लो अपने बस्ते में भर लो ये सारी रौशनी बिटिया



सुबह उठकर चली जाती हो जैसे रोज़ पढ़ने तुम

किसी दिन बच्चों को तुम भी पढाओगी मेरी बिटिया



चलो आओ चलें पढ़ने नए कुछ खेल भी खेलें

सरल हैं ये सभी चीज़े नहीं मुश्किल कोई बिटिया



नए रस्ते ,बड़ी मंज़िल ,घना उल्लास और साहस

बसा लो इनको जीवन में रहो संवरी सजी… Continue

Added by मनोज अहसास on August 21, 2016 at 3:53pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ (ग़ज़ल 'राज')

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

फिसलकर नींद से टूटे हुए सपने कहाँ रक्खूँ

ज़फ़ा की धूप में सूखे हुए गमले कहाँ रक्खूँ

 

इबादत में वजू करती मुक़द्दस नीर  से जिसके  

पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ  

 

परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को

बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ

 

भरा है तल्खियों से दिल कोई कोना नही ख़ाली

तेरी यादों के वो बिखरे हुए लम्हे कहाँ रक्खूँ

 

तुझे चेह्रा दिखाने पर तेरे पत्थर ने जो…

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Added by rajesh kumari on August 21, 2016 at 11:30am — 13 Comments

ये तो ख़्वाब हैं ...

ये तो ख़्वाब हैं ...

शब् के हों

या सहर के हों

सुकूं के हों

या कह्र के हों

ये तो ख़्वाब हैं

ये कभी मरते नहीं

ज़ज़्बातों के दिल हैं ये

ये किसी कफ़स में

कैद नहीं होते

ये नवा हैं (नवा=स्वर)

ये हवा हैं

ये ज़ुल्मों की आतिश से

तबाह नहीं होते

ये हर्फ़ हैं

ये नूर हैं

किसी सनाँ के वार से (सनाँ=भाला)

इन्हें अज़ल नहीं आती

पलकों की ज़िंदाँ में (ज़िंदाँ =कारागार)

ये सांस लेते हैं

ज़िस्म फ़ना होते हैं मगर…

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Added by Sushil Sarna on August 20, 2016 at 9:02pm — 8 Comments

टीस(लघुकथा)राहिला

"अब आप रंज ना करें महात्मा जी!ऐसे भविष्य का भान आपको ही क्या ,किसी को ना था ।हमने तो सुनहरे भारत का सपना संजोया था।अब यूँ रंजीदा होने से क्या हासिल।"

"रंज, बहुत छोटा शब्द है पटेल साहब!हम सब ने अपने वतन की एकता को लाखों के खून से सींचा था ।और आज उस वृक्ष के अस्तित्व के नाम पर सिर्फ यहाँ समृति चिन्ह नजर आ रहा है।"

"आपको क्या लगता है , क्या हमने अपना प्यारा वतन गलत हाथों में सौंप दिया?"भगत जी व्याकुल हो बोले।

"नहीं भगत जी ऐसा नहीं हो सकता ।आप ऐसा ना कहें ।ये न भूलें आप जिनकी बात कर… Continue

Added by Rahila on August 20, 2016 at 12:02pm — 5 Comments

गजल(मनन)

2212 2212 2212

रिश्ता कभी गहरा कभी घायल लगा

अाँसू कहाँ अबतक भला कहकर बहा?1



डगमग हुई नैया कभी मझधार में

नाविक सजग पतवार ले खेता रहा।2



ढूँढे बहुत मिलती नहीं है चीज जब

हँसता हुआ भी आदमी रोता बड़ा।3



बसती रही हैं चाह में कलियाँ मगर

किस्मत बदा वह झेलता काँटा चला।4



रहता बगल में आदमी क्षण भर कभी

पल में मुखालिफ हो गया क्यूँ मनचला?5



जीती भले ही जंग है अबतक बहुत

लगता रहा क्यूँ हार पर है कहकहा।6



डरता नहीं है… Continue

Added by Manan Kumar singh on August 20, 2016 at 6:30am — 3 Comments

ग़ज़ल -- रुख़-ए-पुरज़र्द को गुलफ़ाम कर दे। ( दिनेश कुमार 'दानिश' )

1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2

___________________



रुख़-ए-पुरज़र्द को गुलफ़ाम कर दे

तबीयत में मेरी आराम कर दे



थी अपनी इब्तिदा-ए-इश्क़ मद्धम

तू इसका सुर्ख़रू अंजाम कर दे



किसे मालूम जन्नत की हक़ीक़त

तू आना मयकदे में आम कर दे



पिला नज़रों से अपनी कुछ तो मुझको

नहीं कुछ और , ज़िक्र-ए-जाम कर दे



मोहब्बत की सज़ा ! तुझ गुलबदन को

तू आयद मुझ पे सब इल्ज़ाम कर दे



रगों में इसकी धोका झूट लालच

सियासत पल में क़त्ल-ए-आम कर… Continue

Added by दिनेश कुमार on August 20, 2016 at 4:52am — 5 Comments

ग़ज़ल

सुना है दिल लगाने में बहुत मशहूर है दिल्ली ।

मुझे कह कर गई है वो अभी तो दूर है दिल्ली ।।



जहाँ हर शाम ढलती हो मैकदों को सजाने में ।

कहा अक्सर ज़माने ने नशे में चूर है दिल्ली ।।



चली आती है ख़्वाबों में हजारों दास्ताँ लेकर ।

तुम्हारे जुर्म से होने लगी बेनूर है दिल्ली ।।



सड़क के हादसों के नाम पर लूटी गयी है वो ।

दफ़न कुछ आबरू करके बड़ी मगरूर है दिल्ली।।



सितमगर की कहानी पूछती शरहद की वो लाशें ।

न जाने किस मुरव्वत में लगी मजबूर है दिल्ली… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 19, 2016 at 10:51pm — 1 Comment

कविता-बन के शुचि स्नेह-सरोज.... रामबली गुप्ता

मत्त सवैया छंद

बन के शुचि स्नेह-सरोज सदा,
सबके उर-सर में विकसित हो।

मद-लोभ व द्वेष न हो मन में,
सर्वोपरि मानव का हित हो।।

कुछ कर्म करो इस भाँति सखे!
निज राष्ट्र-धर्म सम्मानित हो।

नर होने पर हो गर्व सदा,
नरता न कभी अपमानित हो।।

रचना-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by रामबली गुप्ता on August 19, 2016 at 10:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल

हरी रंगत गुलाबी सुर्खरूं चेहरा मचल जाए ।

मेरी महफ़िल में आ जाओ मिरा रुतबा बदल जाए ।।



नजाकत से भरी नजरों से छलके जाम है तेरे ।

अंधेरी रात किस्मत में जरा सूरज निकल जाए ।।



बड़ी मासूमियत से कत्ल करने का हुनर तुझमे ।

मेरे कातिल चला शमसीर तेरा दिल बहल जाए ।।



हमारी हर कलम तो सिर्फ तेरी जीत लिखती है ।

तेरी जुल्फों के साये में चलो लिक्खी गजल जाए ।।



खुदा महफूज रक्खे उन रकीबों के नजारों से ।

कहीं ये वक्त से पहले न तेरा हुस्न ढल जाए… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 18, 2016 at 10:02pm — 12 Comments

याद

 एक तू ही थी

जो बचपन में

अपने जोड़े पैसों से

मुझे खिलाती थी

मेरी मनपसंद चीज

और झूठ बोलकर मुझे

बचाती थी पिता के प्यार से

फिर एक दिन तू उड़ गयी

कही दूर किसी अजानी जगह

और फिर बनाया उसे

अपनी कर्म भूमि

आजीवन पूजती रही बट-वृक्ष

और सींचती रही अपने लगाये पौधे

बिताया अपना सारा जीवन

पत्रों से भेजती रही

मेरे लिए राखी

मैं बाँध लेता था उन्हें

आँखें नम हो जाती थे स्वतः

पर आज…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 18, 2016 at 3:32pm — 8 Comments

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