212 22 12 22122
शूलियों पर चढ़ चुकी सम्वेदनायें ।
बाप के कन्धों पे बेटे छटपटाएं ।।
लाश अपनों की उठाये फिर रहा है ।
दे रही सरकार कैसी यातनाएं ।।
है यही किस्मत में बस विषपान कर लें ।
दर्द की गहराइयां कैसे छुपाएँ ।।
सिर्फ खामोशी का हक अदने को हासिल ।
डूबती हैं रोज मानव चेतनाएं ।।
हम गरीबों का खुदा कोई कहाँ है ।
मुफलिसी पर हुक्मरां भी मुस्कुराएं।।
वो करेंगे जुर्म का अब फैसला क्या ।
जो नचाते सैफई में…
Added by Naveen Mani Tripathi on September 1, 2016 at 9:30pm — 6 Comments
सूनापन
एक ख़ला है, ख़ामोशी है,
जिधर देखो उदासी है,
समय सिफ़र हो गया,
आंसू निडर हो गए,
घेरे हैं लोग,पर कोई साथ नहीं,
सर पर किसी का हाथ नहीं,
शाम खाली गिलास सा,
टेबल पर औंधे मुंह पड़ा है,
मन में चिंता दीमक की तरह,
मन को खाये जा रही है,
दिल की गली ऐसी सूनी है,
मानो दंगे के बाद कर्फ़्यू लगा हो,
शरीर सूखे पेड़ की तरह खड़ा तो है पर,
पीसा के मीनार सा, झुक सा गया है,
कब तक और कहाँ तक
इस सूनेपन, इस अकेलेपन का
बोझ…
Added by आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला' on September 1, 2016 at 6:30pm — 8 Comments
Added by रामबली गुप्ता on September 1, 2016 at 5:30pm — 7 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on September 1, 2016 at 5:01pm — 6 Comments
Added by Ravi Shukla on September 1, 2016 at 12:21pm — 9 Comments
मई जून का महीना आग बरसाता हुआ सूरज ऊपर से सामर्थ्य से ज्यादा भरी हुई खचाखच बस, पसीने से बेहाल लोग रास्ता भी ऐसा कहीं छाया या हवा का नाम निशान नहीं बस भी मानों रेंगती हुई चल रही हो| एक को गोदी में एक को बगल में बिठाए बच्चों को लेकर रेवती सवारियों के बीच में भिंची हुई बैठी थी| मुन्नी ने पानी माँगा तो रेवती ने बैग से गिलास निकाल कर पैरों के पास रक्खे हुए केंपर से बर्फ मिला ठंडा ठंडा पानी दोनों बच्चों को पिला दिया |पानी देखकर न जाने कितने अपने होंठों को जीभ से गीला करने…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 1, 2016 at 12:17pm — 14 Comments
221 1222 221 1222
तू यार बसा मन में दिलदार बसा मन में
हद छोड़ हुआ अनहद विस्तार सजा मन में
आकाश सितारों में जग ढूँढ रहा तुझको
तू मेघप्रिया बनकर है कौंध रहा मन में
झंकार रही पायल स्वर वेणु प्रवाहित है
आभास हृदय करता है रास रचा मन में
तू कृष्ण हुआ प्रियतम वृषभानु कुमारी मैं
तन काँप उठा मेरा अभिसार हुआ मन मे
आवेश भरा विद्युत है धार प्रखर उसकी
आलोक स्वतः बिखरा जब तार छुआ मन…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 30, 2016 at 8:00pm — 10 Comments
राजू ! हाँ यही तो नाम था उस बच्चे का जिससे मैं मिली थी कुछ वर्षो पहले । अक्सर उसे अख़बार बाँटते हुए देखा था । बारह -तेरह वर्ष का बच्चा । गाड़ियों के पीछे भागता , सिग्नल होने पर गाड़ियों के कांच से अखवार ख़रीदने की गुहार करता । उसके साथ एक बच्ची शायद उसीकी बहन थी । कई बार सोचती थी रुक कर उससे बात करूँ । मासूम सा चहरा ,अपनी बहन का हाथ थामकर ही सड़क पार करता था ।
एक दिन उसी रास्ते से गुज़र रही थी पर वो लड़का नहीं दिखा । उसकी बहन के हाथों में अखबार थे । गाड़ी से उतर कर मैंने उसको अपने पास बुलाया ।…
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 30, 2016 at 3:30pm — 8 Comments
2212 121 1221 212
खोने लगा यकीन है अनजान आदमी ।
जब से बना है मौत का सामान आदमी ।।
बाज़ार सज रहे हैं नए जिस्म को लिए ।
बनकर बिका है मुल्क में दूकान आदमी ।।
ठहरो मियां हराम न खैरात हो कहीं ।
माना कहाँ है वक्त पे एहसान आदमी ।।
दरिया में डालता है वो नेकी का हौसला ।
देखा खुदा के नाम परेशान आदमी ।।
मजहब तो शर्मशार तेरी हरकतों पे है ।
कुछ मजहबी इमाम भी शैतान आदमी ।।
मतलब परस्तियों का जरा देखिये सितम ।
बेचा…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on August 30, 2016 at 2:30am — 5 Comments
Added by kanta roy on August 29, 2016 at 10:48pm — 7 Comments
नई बहू राधिका को कुछ समय ही ससुराल में बीता था कि राधिका ने देखा कि उसके ससुर देवीप्रसादजी बडे़ शांत स्वभाव वाले, मिलनसार और कर्मठता की जीती-जागती तस्वीर हैं। ससुर जी के इस व्यक्तित्व ने राधिका के ऊपर गहरा प्रभाव डाला। देवीप्रसादजी की उम्र लगभग अस्सी से भी अधिक हो चुकी थी। लेकिन उनका शरीर चुस्ती -स्फूर्ति का बेजोड़ नमूना था। वे हमेशा घर का सारा काम करते, उठा-पटक करते, घर की चीजों को संभालते। दिन-दिन भर बगिया के झाड़- झंखड़ हटाते, पौधों को पानी देते कुल मिलाकर देवीप्रसाद राधिका को हमेशा काम…
ContinueAdded by Mohammed Arif on August 29, 2016 at 6:30pm — 7 Comments
कभी-कभी खुद से बात करना
भी बड़ा अजीब सा होता है
कभी-कभी खुद को
सुनने का मन नहीं करता
जब सच खुद से बोला नहीं जा सकता
और
झूठ में जीना
मुश्किल लगता है.
ये मेरी अप्रकाशित रचना है.
अभिषेक शुक्ल
Added by ABHISHEK SHUKLA on August 29, 2016 at 5:10pm — 1 Comment
नव गीत
.
छा रहे बादल गगन में
जा रहे या आ रहे हैं?
टिपटिपाती चपल वर्षा
हो रही धरती सुगन्धित
आज आजाने को घर में
क्या पता है कौन बाधित?
देर से पंछी गगन में
पंख-ध्वज फहरा रहे हैं
श्याम अलकें गिर रही है
बैठ कांधे खिल रही है
पवन बैरन बाबरी सी
झूम गाती चल रही है
आँख में कजरा चमकता
मेघ नभ गहरा रहे हैं
सारिका की टेर सुन तरु
गुनगुनाने लग पड़े हैं
धूप की फिर से चिरौरी
भास्कर करने लगे…
Added by Abha saxena Doonwi on August 29, 2016 at 5:01pm — 5 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 29, 2016 at 11:30am — 8 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 29, 2016 at 10:18am — 8 Comments
Added by रामबली गुप्ता on August 28, 2016 at 11:00pm — 7 Comments
Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 28, 2016 at 10:36pm — 4 Comments
" हैलो.." ट्रीन-ट्रीन की घंटी बजते ही स्नेहा फोन उठाते हुए बोली
" …
Added by नयना(आरती)कानिटकर on August 28, 2016 at 3:04pm — 12 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 28, 2016 at 11:16am — 13 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 28, 2016 at 10:54am — 2 Comments
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