चौराहे नाके पर बालक
बेच रहा है आज तिरंगा
झंडे लेकर उससे इक दो
कुछ पैसे उसको दे डालो
फिर गाडी में उन्हें लगा कर
आज़ादी की रस्म निभा लो
खाली हाथों घर जो लौटा
बाप करेगा पी कर पंगा
शनि लेकर कल घूम रहा था
सरसों तेल व जलती बाती
भूखे बच्चे चौराहे पर
कब बीतेगी साढ़े साती
रोजी उसकी ही खा जाता
खादी जाली का हर दंगा
बीते न बस रस्मी…
ContinueAdded by pratibha pande on August 15, 2016 at 11:18am — 4 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 14, 2016 at 9:10pm — No Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 14, 2016 at 6:16pm — 8 Comments
भ्रम ....
कितनी देर तक
तुम अपने जाने से पहले
मुझे ढाढस बंधाते रहे
मेरी अनुनय विनय को
अपनी मजबूरियों के बोझ से
बार बार दबाते रहे
तुम्हारे दो टूक शब्दों का
मुझपर क्या असर होगा
तुमने एक बार भी न सोचा
बस कह दिया
मुझे जाना होगा
कब आना हो
कह नहीं सकता
मैं अबोध अंजान
क्या करती
सिर हिला दिया
नज़रें झुका ली
अपनी व्यथा
पलकों में छुपा ली
तुम्हारे कठोर शब्दों का…
Added by Sushil Sarna on August 14, 2016 at 4:30pm — 2 Comments
कुण्डलिया
हुलसी माँ की गोद में सुन्दर सुत अभिराम
जन्म समय जिसने किया उच्चारण श्री राम
उच्चारण श्री राम रामबोला कहलाया
सुख से था वैराग्य कष्ट जीवन भर पाया
कहते हैं ‘गोपाल’ बना तृण से वह तुलसी
जितना रहा अभाव भक्ति उतनी ही हुलसी
मनहर घनाक्षरी
किया रचना विचार भाषा में प्रथम बार
बह चली रस-धार भाव और भक्ति की
देख कविता का रंग विदुष समाज दंग
हुई…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 14, 2016 at 3:26pm — 4 Comments
2122 2122 2122 2122
शोध पेपर इक कहानी ऐसी बनते जा रहे हैं
जिसमे नित नव कल्पना के पंख लगते जा रहे है
सारी दुनिया के रसायन आज हैराँ सोचकर ये
हम जहाँ जुड़ ही नहीं सकते थे जुड़ते जा रहे हैं
आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जाने
शोध', चूहे -खरहों के पर प्राण हरते जा रहे हैं
मोतियों से दांत दिखला पेस्ट जो करते प्रचारित
नीम की दातून से निज दांत घिसते जा रहे हैं
रोज अखबारों को पढ़कर दे रहे हैं…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on August 14, 2016 at 11:09am — 5 Comments
Added by Er Nohar Singh Dhruv 'Narendra' on August 14, 2016 at 10:33am — 2 Comments
क्या असभ्य को सच में तुम घायल पाये
22 22 22 22 22 2 -- बहरे मीर
तुमने भी अपने हिस्से के पल पाये
मिली भाव की आँच, कभी क्या गल पाये
शब्दों का हर बाण चलाया तुमने पर
क्या असभ्य को सच में तुम घायल पाये
तेल डाल कर दिया कर जला छोड़ दिया
वो जानें, वो जल पाये ना जल पाये
समय इशारा किया हमेशा खतरों का
समझ इशारा कितने यहाँ सँभल पाये ?
खूब कोशिशें हुईं कि हम बदलें लेकिन
वर्तमान के…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 14, 2016 at 7:54am — 9 Comments
22 22 22 22 22 2 -- बहरे मीर
सब कुछ जाना पहचाना सा लगता है
मेरा ‘मै’ ही अनजाना सा लगता है
जिसकी अपने अन्दर से पहचान हुई
वो फिर सबको दीवाना सा लगता है
मन का खाली पन फैला यूँ वुसअत में
जग सारा अब वीराना सा लगता है
घर के हर कमरे की चाहत अलग हुई
बूढ़ा छप्पर गम ख़ाना सा लगता है
दिल का हर कोना दिखलाये हैं लेकिन
हर दिल में इक तहखाना सा लगता है
अपनेपन के अंदर भी अब…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 14, 2016 at 7:30am — 12 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 13, 2016 at 12:28pm — 8 Comments
"बता जल्दी, कहाँ छुपा रखा है कमांडर को तुम लोगों ने", नशे में धुत्त और गुस्से के कांपते हुए दरोगा ने कस के एक लाठी मारी| मरियल सा आधी हड्डी का रग्घू लाठी पड़ते ही बाप बाप चिल्लाते हुए जमीन पर लेट गया| पीठ पर जहाँ लाठी पड़ी थी, वहां जैसे आग लग गयी थी उसके, लेकिन अब इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि वो उठ पाए|
"साला, नाटक करता है, बहुत मोटी चमड़ी है इन सभो की, ऐसे नहीं बताएगा" कहते हुए दरोगा ने एक बार फिर लाठी उठायी| रग्घू जमीन पर पड़े पड़े फटी आँखों से देख रहा था, उसने अपने हाथ ऊपर उठा दिए| तब तक…
Added by विनय कुमार on August 12, 2016 at 9:43pm — 4 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on August 12, 2016 at 4:41pm — 3 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 12, 2016 at 3:30pm — 4 Comments
Added by Rahila on August 12, 2016 at 3:10pm — 3 Comments
“हर साल भाई को राखी डाक से भेज देतीं हूँ,. इस बार सोच रहीं हूँ उसकी कलाई पर बांधने चली जाऊँ.” विमला ने सकुचाते हुए अपने मन की बात पति कही.
पति की चुप्पी को अनुमोदन जान आगे बोल उठी:
“आप चिंता मत करो मैंने कुछ रूपये बचा कर रखें हैं, फल मिठाई और भाई के लिए एक कमीज आराम से आ जायेगी आप बस आने जाने का टिकट करा देना मेरा. सुबह जाकर रात तक वापस आ जाऊँगी.”
पति को अब भी चुप देख पूछ बैठी:
“क्या कहते हो, चली जाऊँ?”
पति ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ खत उसकी ओर बढ़ा दिया, जो उसकी…
Added by Seema Singh on August 12, 2016 at 1:00pm — 7 Comments
Added by Abhishek Kumar Amber on August 11, 2016 at 6:50pm — 7 Comments
मुक्तक
जिसेे भी देखिये नख शिख तलक मानव नही लगता।
लिए बम वासना शमसीर हक मानव नही लगता।।
मुसीबत ने यहाँ मुफ़लिस किसानो को रुलाया है. .
बड़ी ताकत कहूं जो यार तक मानव नही लगता।।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 11, 2016 at 5:06pm — 3 Comments
वह किसान था
लड़ता रहा उम्र भर
कभी सूखे की मार से
तो कभी बाढ़ की तबाही से
कभी बेमौसम बारिश से
तो कभी ओला वृष्टि से .....
वह किसान था
सहता रहा उम्र भर
हर तक़लीफ
हर गम
ताकि भरा रहे पेट दूसरों का .....
वह किसान था
करता रहा गुज़ारा
बचे खुचे पर
वह सीख गया था, एडजस्ट करना
प्रक्रति के साथ......
वह किसान था
खुश रहता था
हर परिस्थिति…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on August 11, 2016 at 11:00am — 5 Comments
Added by रामबली गुप्ता on August 11, 2016 at 9:30am — 13 Comments
Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 10, 2016 at 10:51pm — 21 Comments
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