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All Blog Posts (18,988)

‘बेच रहा है आज तिरंगा’

 

चौराहे नाके पर बालक

बेच रहा है आज तिरंगा

 

झंडे लेकर उससे इक दो

कुछ पैसे उसको दे डालो

फिर गाडी में उन्हें लगा कर

आज़ादी की रस्म निभा लो

 

खाली हाथों घर जो लौटा

बाप करेगा पी कर पंगा

 

शनि लेकर कल घूम रहा था

सरसों तेल व जलती बाती

भूखे बच्चे चौराहे पर

कब बीतेगी साढ़े साती

 

रोजी उसकी ही खा जाता 

खादी  जाली का हर दंगा

 

बीते न बस रस्मी…

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Added by pratibha pande on August 15, 2016 at 11:18am — 4 Comments

किस-किस का लेवल? (लघुकथा)

अशासकीय विद्यालय की प्राचार्य महोदया ने आज फिर चार-पांच छात्रों को डांटते हुए दंडित किया। स्टाफ़-रूम में शिक्षकगण इसी विषय पर विमर्श कर रहे थे। एक शिक्षक ने उग्र हो कर कहा- "जिस स्कूल की प्राचार्य ही क्रोध में छात्रों को 'जानवर' या 'बिगड़ैल औलाद' कहे उस स्कूल की नौकरी ही छोड़ देना चाहिए या ऐसी प्राचार्य को उसके घर पर बिठा देना चाहिए!"



"बिलकुल सही कहा आपने! इतनी बात ही नहीं है, सर! अंग्रेज़ी बोलना सिखाना और उसके लिए प्रोत्साहित करना अलग बात है और उसके पीछे मातृभाषा, अपनी ही राष्ट्र भाषा… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 14, 2016 at 9:10pm — No Comments

कुण्डलिया

आजादी वह भाव है,जिससे सबको प्यार
इसको पाने के लिए,हुई बहुत तकरार
हुई बहुत तकरार,कई ने जान गँवाई
हुए शहीद अनेक,तभी आज़ादी पाई
सतविन्दर कविराय,रहे सुख से आबादी
है अद्भुत यह भाव,नाम जिसका आजादी

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 14, 2016 at 6:16pm — 8 Comments

भ्रम.....

भ्रम ....

कितनी देर तक

तुम अपने जाने से पहले

मुझे ढाढस बंधाते रहे

मेरी अनुनय विनय को

अपनी मजबूरियों के बोझ से

बार बार दबाते रहे

तुम्हारे दो टूक शब्दों का

मुझपर क्या असर होगा

तुमने एक बार भी न सोचा

बस कह दिया

मुझे जाना होगा

कब आना हो

कह नहीं सकता

मैं अबोध अंजान

क्या करती

सिर हिला दिया

नज़रें  झुका ली

अपनी व्यथा

पलकों में छुपा ली

तुम्हारे कठोर शब्दों का…

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Added by Sushil Sarna on August 14, 2016 at 4:30pm — 2 Comments

मानसकार का स्मरण

         

कुण्डलिया

 

 हुलसी माँ की गोद में सुन्दर सुत अभिराम

जन्म समय जिसने किया उच्चारण श्री राम

उच्चारण श्री राम      रामबोला कहलाया

सुख से था वैराग्य  कष्ट जीवन भर पाया

कहते हैं ‘गोपाल’ बना  तृण से वह तुलसी

जितना रहा अभाव भक्ति उतनी ही हुलसी

 

मनहर घनाक्षरी

 

किया रचना विचार भाषा में प्रथम बार

बह चली रस-धार भाव और भक्ति की

देख कविता का रंग  विदुष समाज दंग

हुई…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 14, 2016 at 3:26pm — 4 Comments

आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जाने

2122    2122    2122    2122

शोध पेपर इक कहानी ऐसी बनते जा रहे हैं

जिसमे नित नव कल्पना के पंख लगते जा रहे है

सारी दुनिया के रसायन आज  हैराँ सोचकर ये

हम जहाँ जुड़ ही  नहीं सकते थे जुड़ते जा रहे हैं

आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जाने

शोध', चूहे -खरहों के पर प्राण हरते जा रहे हैं

मोतियों से दांत दिखला पेस्ट जो करते प्रचारित

नीम की दातून से निज दांत घिसते जा रहे हैं

रोज अखबारों को पढ़कर दे रहे हैं…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on August 14, 2016 at 11:09am — 5 Comments

अनहोनी

बस अड्डे में बैठे हुए उसे दो घंटे हो चुके थे। आंधी - तूफ़ान और तेज बारिश ने सारे बसों के पहिंए रुकवा दिए थे। वह बार बार पूछताछ में जाती और अगली गाड़ी कब निकलेगी उसका पता करती। आज उसे अपरिहार्य करणो से देर हो गई थी और अँधेरा हो चुका था। अब उसकी माथे पर सिकन की लकीरे साफ़ देखी जा सकती थी।

कुछ मनचले भी उसे देख- देख कर उसके बातें बनाने लगे थे और बार-बार उसके इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे थे। उसे अब डर लगने लगा था। तभी उसकी बगल में एक अधेड़ उम्र का आदमी आकर बैठ गया जो उसे दूर एक चाय के होटल से बैठकर देख… Continue

Added by Er Nohar Singh Dhruv 'Narendra' on August 14, 2016 at 10:33am — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - क्या असभ्य को सच में तुम घायल पाये ( गिरिराज भंडारी )

क्या असभ्य को सच में तुम घायल पाये

22  22  22  22  22  2  --  बहरे मीर

तुमने भी अपने हिस्से के पल पाये

मिली भाव की आँच, कभी क्या गल पाये

 

शब्दों का हर बाण चलाया तुमने पर

क्या असभ्य को सच में तुम घायल पाये

 

तेल डाल कर दिया कर जला छोड़ दिया

वो जानें, वो जल पाये ना जल पाये  

 

समय इशारा किया हमेशा खतरों का

समझ इशारा कितने यहाँ सँभल पाये ?

 

खूब कोशिशें हुईं कि हम बदलें लेकिन

वर्तमान के…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 14, 2016 at 7:54am — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - मेरा ‘मै’ ही अनजाना सा लगता है - ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22   2    -- बहरे मीर

सब कुछ जाना पहचाना सा लगता है

मेरा ‘मै’ ही अनजाना सा लगता है

 

जिसकी अपने अन्दर से पहचान हुई

वो फिर सबको दीवाना सा लगता है

 

मन का खाली पन फैला यूँ वुसअत में

जग सारा अब वीराना सा लगता है

 

घर के हर कमरे की चाहत अलग हुई

बूढ़ा छप्पर  गम ख़ाना सा लगता है

 

दिल का हर कोना दिखलाये हैं  लेकिन

हर दिल में इक तहखाना सा लगता है

 

अपनेपन के अंदर भी अब…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 14, 2016 at 7:30am — 12 Comments

गीतिका (एक प्रयास)

आधार चौपाई छंद

मन में पहले गुरु बैठाना
मातु शारदे को फिर ध्याना।

सच को लिखना सीख लिया है
सबको दर्पण है दिखलाना।

भाव सृजन जब हो जाये तो
उनको दुनिया तक पहुँचाना

धन की ही चाहत है सबको
ज्ञान मूल है ये समझाना।

भारत माता की महिमा को
जन जन को है हमें सुनाना

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 13, 2016 at 12:28pm — 8 Comments

बेबसी--

"बता जल्दी, कहाँ छुपा रखा है कमांडर को तुम लोगों ने", नशे में धुत्त और गुस्से के कांपते हुए दरोगा ने कस के एक लाठी मारी| मरियल सा आधी हड्डी का रग्घू लाठी पड़ते ही बाप बाप चिल्लाते हुए जमीन पर लेट गया| पीठ पर जहाँ लाठी पड़ी थी, वहां जैसे आग लग गयी थी उसके, लेकिन अब इतनी हिम्मत भी नहीं बची थी कि वो उठ पाए|

"साला, नाटक करता है, बहुत मोटी चमड़ी है इन सभो की, ऐसे नहीं बताएगा" कहते हुए दरोगा ने एक बार फिर लाठी उठायी| रग्घू जमीन पर पड़े पड़े फटी आँखों से देख रहा था, उसने अपने हाथ ऊपर उठा दिए| तब तक…

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Added by विनय कुमार on August 12, 2016 at 9:43pm — 4 Comments

दो ही किरदार थे कहानी में (ग़ज़ल)

2122 1212 22

आग शायद लगी है पानी में।
शोर है खूब, राजधानी में।

जाने हर बार क्यों निकलता है,
फ़र्क़,उसके मिरे मआनी में।

बोलिये! किसको होती दिलचस्पी,
दो ही किरदार थे कहानी में।

आदमी का नसीब है,बहना..
वक्त के मौजों की रवानी में।

उम्र सारी बटोरने में गई,
ख़्वाब टूटे थे कुछ,जवानी में।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on August 12, 2016 at 4:41pm — 3 Comments

बुढ़िया

बुढ़िया

एक पेड़ के साये में एक बुढ़िया रहती थी । कोई नहीं जानता था उसको । बस वहाँ से गुज़रते लोगों को देखती ,चहल पहल देखती और गर कोई उसे कुछ दे देता तो खा लेती थी । उनकी झुर्रियाँ बहुत कुछ कहती थी । पर यह थी कौन कहाँ से आई कोई नही जानता था ।

लोगों का पहले तो ध्यान नहीं था पर रोज़ उसी जगह पर उसे देख वो एक आकर्षण का केंद्र बन गयी थी । "पर यह थी कौन ? "अ ने ब से पूछा जो यह किस्सा सुना रहा था ।

"एक दिन अख़बार की सुर्ख़ियों में इसके मौत की खबर देख एक आदमी आया था ।उसने उस बुढ़िया के लिये थाने… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 12, 2016 at 3:30pm — 4 Comments

हाय(लघुकथा)राहिला

"देखो भूरी बिलैया भूरे कान,देखो भूरी बिलैया भूरे कान"रसोई सूनी होते ही नयी बहू द्वारा नए सिरे से सजाये नॉनस्टिक बर्तन ,सास के कहने पर रख छोड़ी प्रसाद बनाने की छोटी सी एल्युमीनियम की कड़ाही को फिर से चिड़ाने लगे।उसका जी किया वो जोर ,जोर से रो ले।

"हे भगवान इससे तो अच्छा होता,मुझे भी अपने सगे सम्बन्धियों के साथ रसोई निकाला मिल जाता।"कहते हुए दो आंसू आँखों से लुढक पड़े ।लेकिन किसी सयाने ने खूब कहा कि इतिहास खुद को दोहराता है। उसे वो वक्त याद आने लगा जब उनके आने से इसी रसोई के पुराने पीतल के… Continue

Added by Rahila on August 12, 2016 at 3:10pm — 3 Comments

इस बार भी (लघुकथा)

“हर साल भाई को राखी डाक से भेज देतीं हूँ,. इस बार सोच रहीं हूँ उसकी कलाई पर बांधने चली जाऊँ.” विमला ने सकुचाते हुए अपने मन की बात पति कही.

पति की चुप्पी को अनुमोदन जान आगे बोल उठी:

“आप चिंता मत करो मैंने कुछ रूपये बचा कर रखें हैं, फल मिठाई और भाई के लिए एक कमीज आराम से आ जायेगी आप बस आने जाने का टिकट करा देना मेरा. सुबह जाकर रात तक वापस आ जाऊँगी.”

पति को अब भी चुप देख पूछ बैठी:

“क्या कहते हो, चली जाऊँ?”

पति ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ खत उसकी ओर बढ़ा दिया, जो उसकी…

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Added by Seema Singh on August 12, 2016 at 1:00pm — 7 Comments

ख़्वाब आँखों में जितने (ग़ज़ल)-अभिषेक कुमार अम्बर

ख़्वाब आँखों में जितने पाले थे,
टूट कर के बिखर ने वाले थे।
जिनको हमने था पाक दिल समझा,
उन्हीं लोगों के कर्म काले थे।
पेड़ होंगे जवां तो देंगे फल,
सोचकर के यही तो पाले थे।
सबने भर पेट खा लिया खाना,
माँ की थाली में कुछ निवाले थे।
आज सब चिट्ठियां जला दीं वो,
जिनमे यादें तेरी सँभाले थे।
हाल दिल का सुना नही पाये,
मुँह पे मजबूरियों के ताले थे।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Abhishek Kumar Amber on August 11, 2016 at 6:50pm — 7 Comments

मानव नही लगता. .

मुक्तक

जिसेे भी देखिये नख शिख तलक मानव नही लगता।
लिए बम वासना शमसीर हक मानव नही लगता।।
मुसीबत ने यहाँ मुफ़लिस किसानो को रुलाया है. .
बड़ी ताकत कहूं जो यार तक मानव नही लगता।।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 11, 2016 at 5:06pm — 3 Comments

कर्ज़ का बोझ

वह किसान था

लड़ता रहा उम्र भर

कभी सूखे की मार से  

तो कभी बाढ़ की तबाही से

कभी बेमौसम बारिश से

तो कभी ओला वृष्टि से .....

 

वह किसान था  

सहता रहा उम्र भर

हर तक़लीफ

हर गम

ताकि भरा रहे पेट दूसरों का  .....

 

वह किसान था  

करता रहा गुज़ारा

बचे खुचे पर

वह सीख गया था, एडजस्ट करना

प्रक्रति के साथ......

 

वह किसान था  

खुश रहता था  

हर परिस्थिति…

Continue

Added by नादिर ख़ान on August 11, 2016 at 11:00am — 5 Comments

प्रार्थना(ग़ज़ल) -रामबली गुप्ता

वह्र= 221 1221 1221 122



हे! ईश! हे' जगदीश! दया मान व बल दो।

हो शीश पे' आशीष हमें ज्ञान-विमल दो।



कर दूर सभी द्वेष मलिन-भाव हृदय से।

प्रभु! काट तमस-बंध हृदय-ज्योति धवल दो।।



सुर-साज नया ताल नया राग नया रव।

प्रभु! छंद-नया गान-मृदुल कंठ-नवल दो।।



प्रभु! ध्यान रहो नित्य व अधरों पे' हमारे।

निज भक्ति-भरे भाव के' नव गीत-ग़ज़ल दो।।



हिय-बाग में' नित पुष्प खिलें रंग-बिरंगे।

प्रभु! उर के' सरोवर में' नया नेह-कमल… Continue

Added by रामबली गुप्ता on August 11, 2016 at 9:30am — 13 Comments

पश्चाताप - लघुकथा

" पश्चाताप "

"तुम ! तुम्हे.... तुम्हे यहाँ का पता किसने दिया ?" आज महीनो बाद अपनी दहलीज पर कासिम को देखते ही एक बार फिर से अपना किया हुआ गुनाह उसकी आँखों के सामने आ गया।

चोरी किये पैसे को अकेले ही संभालने के चक्कर में वो दोस्त पर जानलेवा हमला कर घटनास्थल से भाग निकला था लेकिन तब से उसे अपने किये पर दुःख के साथ साथ उसकी वापिसी का एक अनजाना डर भी सताता रहता था।

"दोस्त जिसे ढूंढना चाहो उसे ढूंढ ही लिया जाता है।" कासिम के चेहरे पर एक गहरी मुस्कान आ गयी।

"कासिम देखो..., देखो मेरी… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 10, 2016 at 10:51pm — 21 Comments

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