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जानवर--

"बाबू साहब, इ तो हमार काम है, आप तो जानत हो", जोखू हैरान हाथ जोड़े खड़ा था| हमेशा की तरह उसने उस मरे हुए जानवर की खाल उतारी थी और उसे घर पर सुखा रहा था, कि गाँव के चौकीदार ने आकर उसको बताया "थाने से तुम्हरे नाम का कुछ आया है, जाके बाबू साहब से मिल लो, नहीं तो !", आगे के शब्द वो नहीं सुन पाया| उल्टे पैर भागा और बाबू साहब के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया|

"उ सब तो ठीक है लेकिन थाने में तो किसी ने खबर कर दी है कि तुमने कोई गलत जानवर काट डाला है", बाबू साहब ने पान चबाते हुए कहा|

"चाहे जिसका कसम…

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Added by विनय कुमार on August 10, 2016 at 10:05pm — 20 Comments

मैदान

मैदान



क्रिकेट के मैदान में

जीवन का खेल खेला जा रहा



वक़्त बॉलर बना है

और हम खड़े है बैट पकड़कर



सोच रहे वक़्त को दे मारा

और पड़ गया क्या बात है



चौका छक्का !



रिश्तेदारों से घिरे हुए

दोस्तों के बीच

कुछ अपनों के साथ

कुछ बेगानों के साथ



इनिंग्स पर इनिंग्स खेल रहे है

देख रहे है मूक दर्शक श्रोता बन



गिरा कोई तो ताली बजती

हारता है कोई हँसता है कोई



स्लिप गली ऑफ साइड

व ओन… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 10, 2016 at 2:32pm — 4 Comments

खुदाया उसकी तकलीफें मेरी जागीर हो जाएँ

1222-1222-1222-1222

-------------------------------

ख़ुदाया उसकी तकलीफ़ें मेरी ज़ागीर हो जाएँ,

ज़माने भर की ख़ुशियाँ उसकी अब ताबीर हो जाएँ |

यूँ दर्दों में तडपना और आन्हें मेरे सीने में,

कहीं तब्दील हो आन्हें न अब शमशीर हो जाएँ |

खुदा की हर अदालत में उसे गर चाह मिल जाए,

वो देखे ख्वाब दुनिया के, सभी तस्वीर हो जाएँ |

न मंज़िल है न वादा है न उसकें बिन मैं ज़िन्दा हूँ,

कहीं ये आदतें उसकी न अब तकदीर हो जाएँ…

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Added by Harash Mahajan on August 10, 2016 at 2:30pm — 15 Comments

आख़िरी आदमी (लघु-कथा) - डॉo विजय शंकर

भाषण अपने चरम पर था। विशाल जन - समूह पूरे मनोयोग से सुन रहा था।
उन्होंने कहा:

"भाइयों! पार्टी में एक बहुत ही महत्वपूर्ण और उच्च पद रिक्त है, मैंने निर्णय लिया है कि यह पद हमारे साथियों में सबसे पीछे खड़े आख़िरी आदमी को दिया जाएगा " .
उनका वाक्य पूरा भी नहीं हुआ कि सब लोग पीछे की ओर भागने लगे। पूरा मैदान खाली हो गया, मंच खाली हो गया, वे मंच पर अकेले रह गए।
खबर आयी है , लोग एक और भागे जा रहे हैं , बस भागे जा रहे हैं।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on August 10, 2016 at 10:00am — 26 Comments

देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम (ग़ज़ल)

बह्र : 22 22 22 22 22 22

 

तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम

देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम

 

दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है

शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम

 

सिक्का यदि इंकार करे अपनी कीमत से

झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम

 

नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की

फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम

 

पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को

फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 9, 2016 at 10:10pm — 8 Comments

गीत -''ये तो मोहब्बत नहीं !

तेरी ज़िद है तू ही सही ;

मेरी अहमियत कुछ नहीं ,

बहुत बातें तुमने कही ;

मेरी रह गयी अनकही ,

ये तो मोहब्बत नहीं !

ये तो मोहब्बत नहीं !!

.......................................

हुए हो जो मुझ पे फ़िदा ;

भायी है मेरी अदा ,

रही हुस्न पर ही नज़र ;

दिल की सुनी ना सदा ,

तुम्हारी नज़र घूरती ;

मेरे ज़िस्म पर आ टिकी !

ये तो मोहब्बत नहीं !

ये तो मोहब्बत नहीं !!

..................................

रूहानी हो ये सिलसिला ;

ना इसमें हवस को मिला…

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Added by shikha kaushik on August 9, 2016 at 9:27pm — 3 Comments

दोधक छ्न्द(प्रथम प्रयास)/सतविन्द्र कुमार

दोधक छंद(गीत)

प्रथम प्रयास

211 211 211 22

----

देख लिया सब हाल सँभालो

देश हुआ बदहाल सँभालो



बाढ़ कहीँ,जल भी कब आया

मान लिया सब ईश्वर माया

ईश्वर को तुम साथ मिलालो

देश हुआ बदहाल सँभालो।1।



कीमत जीवन की पहचानो

पेट भरें अपना सब जानो

भूख किसी पर थोप न डालो

देश हुआ बदहाल सँभालो ।2।



सोच लिए चलते घटिया जो

बात सभी करते घटिया जो

राष्ट्र विरोधि जुबान दबालो

देश हुआ बदहाल सँभालो।3।



मौलिक एवं… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 9, 2016 at 6:08pm — 2 Comments

बहुत डरता है ......

बहुत डरता है ......

बहुत डरता है

मनुष्य अपने जीवन के

क्षितिज को देखकर

अपनी आकांक्षाओं के

असीमित आकाश में

जीवन के

सूक्ष्म रूप को देख कर

कल्प को अल्प

बनता देखकर

सच ! बहुत डरता है

मुखौटों को जीने से

थक जाता है 

संवदनाओं के

आडंबर के बोझ ढोने से

हार जाता है 

दुनिया के साथ जीते जीते

डर जाता है

हृदय की गहन कंदराओं में

अपने ही अस्तित्व की

मौन उपस्थिति…

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Added by Sushil Sarna on August 9, 2016 at 5:00pm — 8 Comments

सर्पिला इंसान (लघुकथा)

तेज़ बारिश के कारण पानी उस सांप के बिल में चला गया, वह और उसकी माँ बाहर निकल आये| बाहर उसे अपनी माँ नहीं दिखी| अब तक बिल में ही पले सांप का बाहर की दुनिया देखने का यह पहला मौका था|

 

वह रेंगता हुआ जा रहा था कि उसे एक आवाज़ सुनाई दी, "सांप के बच्चे संपोले....", वह घबरा गया, आज से पहले इतनी कर्कश आवाज़ उसने कभी सुनी नहीं थी| उसने देखा कि एक मोटा-तगड़ा आदमी, एक छोटे बच्चे को मारते हुए चिल्ला रहा था, "साले... चोर, चार रोटियाँ चुरा कर ले जा रहा है?"

 

यह बात सांप की बुद्धि…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 9, 2016 at 3:49pm — 16 Comments

दो चार कहीं लगते पौधे , रोज कटते हैं पेड़ हज़ार |

दो चार कहीं लगते  पौधे , 
रोज कटते हैं  पेड़ हज़ार |
वन झाड़ी का होत सफाया , बाग कानन  का  मिटता नाम |
कहीं  पेंड नज़र  नहीं आते  ,    कहाँ   जा करे  राही विश्राम…
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Added by Shyam Narain Verma on August 9, 2016 at 2:26pm — 10 Comments

बराबरी का पैमाना /लघुकथा

"स्त्री स्वातंत्र्य दरअसल पितृसत्ता के विरूद्ध संघर्ष और विरोध है। भावनात्मक ,सामाजिक ,शारीरिक और आर्थिक स्तरों पर पितृसत्ता की जकड़न,उनके पाखंडों का उद्घाटन ही हमारा लक्ष्य है" कहते-कहते वह उत्तेजित हो उठी। सहसा उसे भान हुआ, वो अपने ऑफिस केन्टीन में नहीं, रेस्तरां में है।विलास को उसकी ये बातें अच्छी लगती थी लेकिन आजू-बाजू देख वह संकोच से भर उठी। इस विषय पर वह स्वयं को क्यूँ रोक नहीं पाती है?

तभी बेयरा ऑर्डर लेने आ गया।

"तुम बीयर या जिन तो ले सकती हो, मेरा साथ देने के लिये "

"… Continue

Added by kanta roy on August 9, 2016 at 11:36am — 10 Comments

हमेशा से ये दिल दरिया रहा है (ग़ज़ल)

1222 1222 122
कभी सूखा, कभी बहता रहा है।
हमेशा से ये दिल दरिया रहा है।

जो मेरा अक्स दिखलाता रहा है।
वो आईना ख़ुदी धुंधला रहा है।

ग़ज़ब ये रिश्ता-ए-दिल भी है कैसा,
हमेशा, जुड़ के भी टूटा रहा है।

वो दिल के पास आ पहुँचा है लेकिन,
नज़र से दूर होता जा रहा है।

चुराए हैं मेरी पलकों से उसने,
जो बादल आसमां बरसा रहा है।

ज़माने को भला कैसे बताऊँ
कि तुमसे मेरा क्या नाता रहा है।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on August 8, 2016 at 10:30pm — 1 Comment

अक्षदण्ड या दोस्त (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

होटल में बेहतरीन पार्टी सम्पन्न होने के बाद आयोजक नवांकुर रचनाकार ने पार्टी देने का राज़ खोलते हुए अपने मित्रों से कहा- "आज सालगिरह है मेरे लघुकथा विधा से परिचित होने की और मेरी पहली लघुकथा इन्टरनेट पर प्रकाशित होने की!"



"पार्टी तो बढ़िया रही मित्र! लेकिन मुझे तुम्हारी लघुकथायें तो हमेशा अधूरी कथायें ही लगीं! कुछ और लिखा करो यार!" एक साथी ने कटाक्ष करते हुए कहा।



"अधूरी नहीं मित्र, धुरी कथायें! लघुकथा का कथ्य धुरी का काम करता है; ज्वलंत सार्थक चिन्तन-मनन के लिए, समझे… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 8, 2016 at 7:32pm — 8 Comments

निज स्वामित्व - हवेली (लघुकथा)

विषय आधारित -निज स्वामित्व

हवेली

मुरारी लालजी जी हवेली पुरे कस्बे में मशहूर थी । कोई भी कस्बे में कोई भी कहीं आता तो इस हवेली को देखने से न चुकता । इस भव्य हवेली के मालिक मुरारी लालजी के लिए तरह तरह की बाते होती थी । कोई कहता पुराना डकैत है , कोई कहता बाप दादाओ का दिया है । पर वे अपने ही मिजाज के व्यक्ति थे । घर में उनके 6 बेटे और पत्नी सहित और भी लोग रहते थे । धीरे धीरे सब एक एक कर इस घर को छोड़ कर चल दिए । " यह इस तरह से हँसने की आवाज़े कहाँ से आती है ? किसीने वहाँ रहने वाले व्यक्ति… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 8, 2016 at 2:59pm — 7 Comments

फ़ोकट का तमाशा {लघु कथा}

आज फिर कामिनी बाहर गली में आकर चिल्ला रही थी 'कोई भी नही बचेगा, सब को सजा मिलेगी. कानून किसी को नही छोड़ेगा.' सभी अपने अपने घरों से झांक रहे थे. उसका भाई इंदर उसे समझा बुझा कर भीतर ले जाने का प्रयास कर रहा था.

अपनी बहन की इस दशा से वह बहुत दुखी था. बड़ी मुश्किल से समझा बुझा कर वह उसे भीतर ले गया. कुछ देर तक अपने अपने घरों से बाहर झांकने के बाद सब भीतर चले गए.

कभी कामिनी भी एक सामान्य लड़की थी. एक कंपनी में नौकरी करती थी. कुछ ही समय में विवाह होने वाला था. अपने आने वाले भविष्य…

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Added by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on August 8, 2016 at 10:30am — 4 Comments

मन्त्र जन्मेजयी पे ये भी अधर डोले हैं-gazal

2122 1222 1212 22



शख्स हर वक्त जो नफ़रत का ज़हर घोले हैं।

खुद को शाइर भला वो जाने कैसे बोले हैं।।



क़ौम की एकता के नाम पर जो भड़काते।

ऐसे बहुरूपिये गिरगिट से बदले चोले हैं।।



मज़हबी आचरण जो सबका जाँचते अक्सर।

पूछिये क्या कभी वो लोग खुद को तोले हैं?



तालियाँ घर के ही लोगों ने जो बजा दी तो।

अपनी औकात से वो ज़्यादा ज़ुबाँ खोले हैं।।



झंडाबरदार-ए-ईमान जो बने खुद से।

वो तो साहित्य की गर्दन पड़े सपोले हैं।।



भक्त पंकज…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 7, 2016 at 7:30pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सूखे गमले (लघु कथा 'राज ')

डेढ़ साल हो चुका था नकुल को गये आज भी उस घर की दीवारों चौखटों से सिसकियों  की आवाज सुनाई देती है बगीचे के हरे सफ़ेद लाल फूल उस तिरंगे झंडे की याद दिलाते हैं जिसमें लिपटा हुआ उस घर का चिराग कुछ वक़्त के लिए रुका था | नई नई दुल्हन की कुछ चूड़ियाँ आज भी उस तुलसी के पौधे ने पहन रक्खी हैं | घर में से बीमार माँ की खाँसी की आवाजें कराह में बदलती हुई सुनाई देती हैं|

किसी वक़्त प्रतिदिन पांच किलोमीटर दौड़ने वाले रामलाल की लाठी की ठक-ठक सुबह-सुबह सुनाई दी तो  बदरी प्रसाद ने गेट खोल दिया दोनों…

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Added by rajesh kumari on August 7, 2016 at 7:00pm — 36 Comments

प्रेम (गीत-रोला छंद)/सतविन्द्र कुमार

प्रेम रतन अनमोल,इसे तुम रखो सँभााले

खुशियों का भंडार,यही है सुन मतवाले



बड़े-बड़े सब दुःख,प्रेम से ही कम होते

कष्ट बनें जो भार, इसी से हल्के होते

सहज लगे संघर्ष,प्रेम की ऐसी माया

जीवन का यह सार,ध्यान तू रख रे भाया

हमने सारे कष्ट,प्रेम के किए हवाले

खुशियों का भंडार ,यही है सुन मतवाले



मात-पिता के काम,समर्पित हैं बच्चों को

प्रेम डोर दे बाँध,सभी मन के सच्चों को

पावन सा इक भाव,प्रेम बन जग में आया

इसपर ही संसार,टिका यह उसका… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 7, 2016 at 5:00pm — 4 Comments

कल्पवृक्ष

सागर मंथन जब हुआ , निकले चौदह रत्न/

कल्पवृक्ष उद्भव हुआ , दानव देव प्रयत्न /
============================
कल्पवृक्ष महिमा अमित , सदा जवानी देत /
मनोकामना पूर्ण कर , करे बुढ़ापा खेत /
============================
सतभामा कहने लगी, सुनिए मेरे नाथ /
पारिजात को लाइए , बैठूं प्रियतम साथ /
==========================
राजकिशोर मिश्र 'राज' प्रतापगढ़ी 

Added by राजकिशोर मिश्र 'राज' प्रतापगढ़ी on August 7, 2016 at 4:09pm — No Comments

प्रदूषण

151  प्रदूषण



जिंदगी जन्म से डूबी थी अश्रुसागर में,

अब तो लहरों के भंवर और भी गहरा रहे हैं!!



सांस की आस ले बाहर की ओर झाॅंका तो,

प्रदूषण की भभक से ही चेतना थर्रा गई।

डूबती उतरा रही नव कल्पनायें भी

घड़कते घड़घडाते घोष से घबरा गई।

विषैले गगनभेदी विकिरणों के दीर्घ ध्वज लहरा रहे हैं!!



स्वार्थी अर्थलोलुप वणिकवृत्ति व्याप्त घर घर में

मनुष्यता हर मनुज से दूर, कोसों दूर पाई।

परस्पर निकटतम संबंध भी दूषित विखंडित,

आत्मीयता, भ्रातृत्व और…

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Added by Dr T R Sukul on August 7, 2016 at 3:18pm — No Comments

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