"बाबू साहब, इ तो हमार काम है, आप तो जानत हो", जोखू हैरान हाथ जोड़े खड़ा था| हमेशा की तरह उसने उस मरे हुए जानवर की खाल उतारी थी और उसे घर पर सुखा रहा था, कि गाँव के चौकीदार ने आकर उसको बताया "थाने से तुम्हरे नाम का कुछ आया है, जाके बाबू साहब से मिल लो, नहीं तो !", आगे के शब्द वो नहीं सुन पाया| उल्टे पैर भागा और बाबू साहब के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया|
"उ सब तो ठीक है लेकिन थाने में तो किसी ने खबर कर दी है कि तुमने कोई गलत जानवर काट डाला है", बाबू साहब ने पान चबाते हुए कहा|
"चाहे जिसका कसम…
Added by विनय कुमार on August 10, 2016 at 10:05pm — 20 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 10, 2016 at 2:32pm — 4 Comments
1222-1222-1222-1222
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ख़ुदाया उसकी तकलीफ़ें मेरी ज़ागीर हो जाएँ,
ज़माने भर की ख़ुशियाँ उसकी अब ताबीर हो जाएँ |
यूँ दर्दों में तडपना और आन्हें मेरे सीने में,
कहीं तब्दील हो आन्हें न अब शमशीर हो जाएँ |
खुदा की हर अदालत में उसे गर चाह मिल जाए,
वो देखे ख्वाब दुनिया के, सभी तस्वीर हो जाएँ |
न मंज़िल है न वादा है न उसकें बिन मैं ज़िन्दा हूँ,
कहीं ये आदतें उसकी न अब तकदीर हो जाएँ…
Added by Harash Mahajan on August 10, 2016 at 2:30pm — 15 Comments
भाषण अपने चरम पर था। विशाल जन - समूह पूरे मनोयोग से सुन रहा था।
उन्होंने कहा:
"भाइयों! पार्टी में एक बहुत ही महत्वपूर्ण और उच्च पद रिक्त है, मैंने निर्णय लिया है कि यह पद हमारे साथियों में सबसे पीछे खड़े आख़िरी आदमी को दिया जाएगा " .
उनका वाक्य पूरा भी नहीं हुआ कि सब लोग पीछे की ओर भागने लगे। पूरा मैदान खाली हो गया, मंच खाली हो गया, वे मंच पर अकेले रह गए।
खबर आयी है , लोग एक और भागे जा रहे हैं , बस भागे जा रहे हैं।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on August 10, 2016 at 10:00am — 26 Comments
बह्र : 22 22 22 22 22 22
तेज़ दिमागों को रोबोट बनाते हैं हम
देखो क्या क्या करके नोट बनाते हैं हम
दिल केले सा ख़ुद ही घायल हो जाता है
शब्दों से सीने पर चोट बनाते हैं हम
सिक्का यदि इंकार करे अपनी कीमत से
झूठे किस्से गढ़कर खोट बनाते हैं हम
नदी बहा देते हैं पहले तो पापों की
फिर पीले कागज की बोट बनाते हैं हम
पाँच वर्ष तक हमीं कोसते हैं सत्ता को
फिर चुनाव में ख़ुद को वोट बनाते हैं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 9, 2016 at 10:10pm — 8 Comments
तेरी ज़िद है तू ही सही ;
मेरी अहमियत कुछ नहीं ,
बहुत बातें तुमने कही ;
मेरी रह गयी अनकही ,
ये तो मोहब्बत नहीं !
ये तो मोहब्बत नहीं !!
.......................................
हुए हो जो मुझ पे फ़िदा ;
भायी है मेरी अदा ,
रही हुस्न पर ही नज़र ;
दिल की सुनी ना सदा ,
तुम्हारी नज़र घूरती ;
मेरे ज़िस्म पर आ टिकी !
ये तो मोहब्बत नहीं !
ये तो मोहब्बत नहीं !!
..................................
रूहानी हो ये सिलसिला ;
ना इसमें हवस को मिला…
Added by shikha kaushik on August 9, 2016 at 9:27pm — 3 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 9, 2016 at 6:08pm — 2 Comments
बहुत डरता है ......
बहुत डरता है
मनुष्य अपने जीवन के
क्षितिज को देखकर
अपनी आकांक्षाओं के
असीमित आकाश में
जीवन के
सूक्ष्म रूप को देख कर
कल्प को अल्प
बनता देखकर
सच ! बहुत डरता है
मुखौटों को जीने से
थक जाता है
संवदनाओं के
आडंबर के बोझ ढोने से
हार जाता है
दुनिया के साथ जीते जीते
डर जाता है
हृदय की गहन कंदराओं में
अपने ही अस्तित्व की
मौन उपस्थिति…
Added by Sushil Sarna on August 9, 2016 at 5:00pm — 8 Comments
तेज़ बारिश के कारण पानी उस सांप के बिल में चला गया, वह और उसकी माँ बाहर निकल आये| बाहर उसे अपनी माँ नहीं दिखी| अब तक बिल में ही पले सांप का बाहर की दुनिया देखने का यह पहला मौका था|
वह रेंगता हुआ जा रहा था कि उसे एक आवाज़ सुनाई दी, "सांप के बच्चे संपोले....", वह घबरा गया, आज से पहले इतनी कर्कश आवाज़ उसने कभी सुनी नहीं थी| उसने देखा कि एक मोटा-तगड़ा आदमी, एक छोटे बच्चे को मारते हुए चिल्ला रहा था, "साले... चोर, चार रोटियाँ चुरा कर ले जा रहा है?"
यह बात सांप की बुद्धि…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 9, 2016 at 3:49pm — 16 Comments
दो चार कहीं लगते पौधे , |
रोज कटते हैं पेड़ हज़ार | |
वन झाड़ी का होत सफाया , बाग कानन का मिटता नाम | |
कहीं पेंड नज़र नहीं आते , कहाँ जा करे राही विश्राम… |
Added by Shyam Narain Verma on August 9, 2016 at 2:26pm — 10 Comments
Added by kanta roy on August 9, 2016 at 11:36am — 10 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on August 8, 2016 at 10:30pm — 1 Comment
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 8, 2016 at 7:32pm — 8 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 8, 2016 at 2:59pm — 7 Comments
आज फिर कामिनी बाहर गली में आकर चिल्ला रही थी 'कोई भी नही बचेगा, सब को सजा मिलेगी. कानून किसी को नही छोड़ेगा.' सभी अपने अपने घरों से झांक रहे थे. उसका भाई इंदर उसे समझा बुझा कर भीतर ले जाने का प्रयास कर रहा था.
अपनी बहन की इस दशा से वह बहुत दुखी था. बड़ी मुश्किल से समझा बुझा कर वह उसे भीतर ले गया. कुछ देर तक अपने अपने घरों से बाहर झांकने के बाद सब भीतर चले गए.
कभी कामिनी भी एक सामान्य लड़की थी. एक कंपनी में नौकरी करती थी. कुछ ही समय में विवाह होने वाला था. अपने आने वाले भविष्य…
ContinueAdded by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on August 8, 2016 at 10:30am — 4 Comments
2122 1222 1212 22
शख्स हर वक्त जो नफ़रत का ज़हर घोले हैं।
खुद को शाइर भला वो जाने कैसे बोले हैं।।
क़ौम की एकता के नाम पर जो भड़काते।
ऐसे बहुरूपिये गिरगिट से बदले चोले हैं।।
मज़हबी आचरण जो सबका जाँचते अक्सर।
पूछिये क्या कभी वो लोग खुद को तोले हैं?
तालियाँ घर के ही लोगों ने जो बजा दी तो।
अपनी औकात से वो ज़्यादा ज़ुबाँ खोले हैं।।
झंडाबरदार-ए-ईमान जो बने खुद से।
वो तो साहित्य की गर्दन पड़े सपोले हैं।।
भक्त पंकज…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 7, 2016 at 7:30pm — 4 Comments
डेढ़ साल हो चुका था नकुल को गये आज भी उस घर की दीवारों चौखटों से सिसकियों की आवाज सुनाई देती है बगीचे के हरे सफ़ेद लाल फूल उस तिरंगे झंडे की याद दिलाते हैं जिसमें लिपटा हुआ उस घर का चिराग कुछ वक़्त के लिए रुका था | नई नई दुल्हन की कुछ चूड़ियाँ आज भी उस तुलसी के पौधे ने पहन रक्खी हैं | घर में से बीमार माँ की खाँसी की आवाजें कराह में बदलती हुई सुनाई देती हैं|
किसी वक़्त प्रतिदिन पांच किलोमीटर दौड़ने वाले रामलाल की लाठी की ठक-ठक सुबह-सुबह सुनाई दी तो बदरी प्रसाद ने गेट खोल दिया दोनों…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 7, 2016 at 7:00pm — 36 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 7, 2016 at 5:00pm — 4 Comments
सागर मंथन जब हुआ , निकले चौदह रत्न/
कल्पवृक्ष उद्भव हुआ , दानव देव प्रयत्न /
============================
कल्पवृक्ष महिमा अमित , सदा जवानी देत /
मनोकामना पूर्ण कर , करे बुढ़ापा खेत /
============================
सतभामा कहने लगी, सुनिए मेरे नाथ /
पारिजात को लाइए , बैठूं प्रियतम साथ /
==========================
राजकिशोर मिश्र 'राज' प्रतापगढ़ी
Added by राजकिशोर मिश्र 'राज' प्रतापगढ़ी on August 7, 2016 at 4:09pm — No Comments
151 प्रदूषण
जिंदगी जन्म से डूबी थी अश्रुसागर में,
अब तो लहरों के भंवर और भी गहरा रहे हैं!!
सांस की आस ले बाहर की ओर झाॅंका तो,
प्रदूषण की भभक से ही चेतना थर्रा गई।
डूबती उतरा रही नव कल्पनायें भी
घड़कते घड़घडाते घोष से घबरा गई।
विषैले गगनभेदी विकिरणों के दीर्घ ध्वज लहरा रहे हैं!!
स्वार्थी अर्थलोलुप वणिकवृत्ति व्याप्त घर घर में
मनुष्यता हर मनुज से दूर, कोसों दूर पाई।
परस्पर निकटतम संबंध भी दूषित विखंडित,
आत्मीयता, भ्रातृत्व और…
Added by Dr T R Sukul on August 7, 2016 at 3:18pm — No Comments
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