देश भक्ति गीत...01
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वीरो की धरती में हूँ जन्मा
कायरता न करनी है
नब्ज में है खून वीरों का
रक्षा इसकी करनी है
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न्योछावर हो जाना है हँस
तिरंगा हांथों में लिए
वीरो की क़ुरबानी की अब
लाज हमें ही रखनी है
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वीरो की धरती में हूँ जन्मा
कायरता न करनी है…
Added by amod shrivastav (bindouri) on August 13, 2015 at 9:30am — 2 Comments
2122 2122 212
आप सीमायें अगर लांघें नहीं
बाड़ हम भी आपकी फांदें नहीं
वो समर के वास्ते तैयार हैं
हाथ मेरे आप यूँ बांधें नहीं
हक़ हलाली की कोई रोटी दिखा
भीख से जी कर तो यूँ नाचें नहीं
शेर बन के सामने आजा कभी
गीदड़ों सी पीठ पर घातें नहीं
चैन खातिर दिन तरसता रह गया
नींद वाली थीं कभी रातें नहीं
दिल पढ़ें , नज़रें पढ़ें , आँसू पढ़ें
अस्लिहा के बाब यूँ बांचें नहीं
अस्लिहा – हथियारों , बाब – अध्याय
आप…
Added by गिरिराज भंडारी on August 13, 2015 at 8:30am — 18 Comments
Added by सूबे सिंह सुजान on August 12, 2015 at 11:34pm — 8 Comments
221 2121 1221 212 |
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अपनी ख़ुशी उछाल के बिजली के तार पर |
रौशन किया है देखिये घर जोरदार पर |
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आसान लग रहा है अगर तै सफ़र मियां… |
Added by मिथिलेश वामनकर on August 12, 2015 at 11:00pm — 26 Comments
गजल
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बहर - 212 1212 1212 1212
काफिया - अर, रदीफ - मियाँ
किस्म-किस्म के जहर हैं हमपे बेअसर मियाँ
उम्र बीती आदमी का झेलते जहर मियाँ
दर्द बाँटने अगर तू आया है अवाम का
आसमान से जरा जमीन पर उतर मियाँ
सब तुम्हारे गुम्बदों की शान से सिहर गए
झोपड़ी मेरी तबाह कर गए कहर मियाँ
चाह मंजिलों की थी न जीत की ललक रही
वक्त ही गुजारना था, तय किए सफर मियाँ
अंधड़ों से लड़ता एक दीप मिल ही जाएगा
देख अपने…
Added by Sulabh Agnihotri on August 12, 2015 at 6:39pm — 17 Comments
ग्रीटिंग कार्ड (लघु कथा).......
आज सुशील अपने बेटे के बर्थडे पर बहुत खुश था। कवि होने के नाते उसने अपने पितृभाव को तो कागज़ पर उतार दिया था लेकिन फिर भी सोचा कि इसके साथ अगर एक ग्रीटिंग कार्ड भी दे दिया जाए तो बेटा खुश हो जाएगा। ग्रीटिंग कार्ड की बड़ी सी शॉप में जाकर वो कार्ड देखने लगा। कुछ देर के बाद दुकानदार ने पास आकर कहा '' सर, क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ। '' सुशील ने युवा जोड़ों की भीड़ में सकपकाते हुए कहा '' अरे हाँ , देखिये दरअसल मुझे बाप द्वारा बेटे को बर्थडे पर दिए…
ContinueAdded by Sushil Sarna on August 12, 2015 at 3:50pm — 22 Comments
"'अरे छोरा छोरी आ जाओ देखो कित्ती सारी चीज़ें मिली हैं आज..."कम्मो भिखारन अपनी जर्जर झुग्गी में कदम रखते हुए चिल्लाई
तीनों बच्चों ने उसे घेर लिया.
"सारा दिन बगल में टीवी देखना है बस्स ..माँ भीख मांगती फिरे ...., वो आज झंडे वाला दिन है ना , देखो क्या क्या मिला है ....लड्डू ,पूड़ी नमकीन ....."कम्मो झोले में से खाने के सामान की छोटी छोटी पौलीथीन की थैलियाँ निकालने लगी .
कचरे से मिले एंड्राइड फोन के कवर पर हाथ फिराता, बारह साल का पप्पू बोला "अम्मा, तू धीरे धीरे ,एक एक करके…
ContinueAdded by pratibha pande on August 12, 2015 at 11:30am — 16 Comments
2222 2222 2222 222
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माना केवल रात ढली है हमको उनका दीद हुए दर्शन
पर लगता है सदियाँ गुजरी अपने घर में ईद हुए /1
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हमने तो कोशिश की वो भी हमसे जुड़ते यार मगर
रिश्तों के पुल बरसों पहले उनसे ही तरदीद हुए /2 रद्द करना / तोडना
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भीड़ जुटाई…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2015 at 10:54am — 19 Comments
सीले हुए ,पुराने अधखुले तुडेमुडे गत्ते के डिब्बों में बन्द मोमबत्तियाों को दुकानदार ने झींकते हुए बार निकाला और मन ही मन जाने क्या-क्या खुदबखुद बडबडाने लगा । उसे ऐसे परेशान होता देख खुले डब्बे के मुँह से झाँककर एक मोमबत्ती बोली,'बेचारा!' फटाक से दूसरी बोली,'क्यों तुम्हें अपने ऊपर तरस नहीं आता ! कभी सोचा भी है कि कितने साल हो गए हमें इस मौसम में बाहर आते और मौसम खत्म होने पर बिना बिके अन्दर जाते।' नहीं याद वे दिन जब हमारी ज़रूरत बहुत थी, शान बहुत थी। हर दिन हमारा प्रयोग हुआ करता था और हम कभी…
ContinueAdded by Mamta on August 12, 2015 at 9:30am — 15 Comments
2122 2122 2122
आप रो देंगे बहुत संभावना है
अब हृदय में आपका आना मना है
अब क्षितिज पर फिर उजाला दिख सकेगा
यों, अँधेरा इस पहर काफी घना है
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 12, 2015 at 7:53am — 25 Comments
पुरख़तर इश्क की राहें हैं तो चलते क्यूँ हैं
चोट खाकर ही मुहब्बत में सँभलते क्यूँ हैं
प्यारा के दीप इन आँखों में यूँ जलते क्यूँ हैं
चाँदनी रात में अरमान मचलते क्यूँ हैं
रात में ख़्वाब इन आँखों पे हुकूमत करते
सुब्ह होते ही ये हालत बदलते क्यूँ हैं
बेवफाई से हुए इश्क में जो दिल पत्थर
प्यार की आंच से ये फिर से पिघलते क्यूँ हैं
दूर से खूब लुभाते हैं ये तपते सहरा
तिश्नगी में ये मनाज़िर हमे छलते क्यूँ…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 11, 2015 at 7:49pm — 17 Comments
2122 2122 2122 212
जब तलक हो तुम सलामत जिंदगी मेरी रहे
जिस खुशी में तुम रहो खुश वो खुशी मेरी रहे
फेर ले रुख चॉंद अपना मै अभी मसरूफ हूँ
वस्ल की सारी लताफ़त दिलकशी मेरी रहे
खूबसूरत रात है ये खूबसूरत चॉंदनी
चॉंद बेशक हो तुम्हारा रोशनी मेरी रहे
आशिकी भी है कयामत आबशारे इख्तिलाफ़
राहते जां है वही जो नाखुशी मेरी रहे
मैं गलत हूँ या सही ये बात सारी दरगुज़र
चाहती है वो मुझे ये…
ContinueAdded by Ravi Shukla on August 11, 2015 at 6:00pm — 8 Comments
Added by S.S Dipu on August 11, 2015 at 5:58pm — 3 Comments
Added by VIRENDER VEER MEHTA on August 11, 2015 at 5:34pm — 6 Comments
लघुकथा - टूटे फ़ूटे लोग –
"महाराज, यह मेरा त्यागपत्र है, कृपया स्वीकार कर लीजिये"!
" चित्रगुप्त जी, यह कैसी अनहोनी कर रहे हो!आपके बिना यह कार्य कौन देखेगा!हमारे पास दूसरा कोई अनुभवी व्यक्ति भी नहीं है"!
"महाराज, अब यह काम करना मेरी सामर्थ्य का नहीं है"!
"चित्रगुप्त जी,विस्तार से समझाइये ,आखिर मामला क्या है"!
"महाराज,पृथ्वी लोक से, विशेषकर भारतीय उप महाद्वीप से जो मृत लोग आ रहे हैं, उनके शरीर विकृत अवस्था में आ रहे हैं!कुछ शरीर बिना चेहरे के भी आते हैं…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on August 11, 2015 at 5:00pm — 4 Comments
बहर - 212 212 212 212
लहरें पतवार के संग किलकती रहीं
मन के पाँवों में पायल सी बजती रहीं
पालकी बैठ सपने गए साथ में
रास्ते भर उमंगें लरजती रहीं
शोखियों की सहेली बनीं चूडि़याँ
लाजवन्ती निगाहें बरजती रहीं
सपनों में रातरानी ने घर कर लिया
कल्पनायें दुल्हन बन के सजती रहीं
देह भर में खिलीं क्यारियाँ-क्यारियाँ
चाहतें ओढ़ घूंघट मचलती रहीं
तितलियों सी निगाहें उड़ीं दूर तक…
Added by Sulabh Agnihotri on August 11, 2015 at 3:00pm — 10 Comments
भेड़िए जैसे झपटते बच्चे
गिद्ध जैसे ताकते हुए
कुत्तों की मानिंद
खाना छीनते हुए बच्चे
एक कूड़े के ढेर पर
मैंने देखे थे वो
भेड़िये ,गिद्ध और
कुत्ते जैसे बच्चे
इंसान का शेर या हाथी
जैसा होना सुहाता है
किन्तु भूख जब उसे भेड़िया,
गिद्ध या कुत्ता बना देती है
और जब शिकार बचपन हो
तो आँखें शर्म से झुक जाती हैं
तब इस असमान बंटवारे पर
लज्जा आती है ,घृणा होती है
किसी ने तो खाना
बस फैंक…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on August 11, 2015 at 12:07pm — 11 Comments
Added by Manan Kumar singh on August 11, 2015 at 9:30am — 4 Comments
Added by Samar kabeer on August 10, 2015 at 11:15pm — 15 Comments
1222—1222—1222—1222 |
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घरौंदें, आस में अक्सर यही जुमलें सुनाते हैं |
‘परिन्दें, शाम होती है तो घर को लौट आते हैं’ |
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वों तपते जेठ सा तन्हां हमेशा छोड़ जाते… |
Added by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 9:00pm — 28 Comments
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