बन सौभाग्य सँवारे मुझको
सावन घिरे पुकारे मुझको
हाथ पकड़ झट कर ले बंदी
क्या सखि साजन?न सखि मेहंदी
उसने हाय! शृंगार निखारा
प्रेम रचा मन भाव उभारा
प्रेम राह पर गढ़ी बुलंदी
क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी
अंग लगे तो मन खिल जाए
खुशबू साँसों को महकाए
प्यारी उसकी घेराबंदी
क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी
उसमें महक दुआओं की है
उसमें चहक फिजाओं की है
हिमशीतल निर्झर कालिंदी
क्या…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on August 17, 2015 at 8:15am — 14 Comments
Added by S.S Dipu on August 17, 2015 at 1:30am — 8 Comments
परिणति पीड़ा
रिश्ते के हर कदम पर, हर चौराहे पर
हर पल
भटकते कदम पर भी
मेरे उस पल की सच्चाई थी तुम
जिस-जिस पल वहीं कहीं पास थी तुम
जीवन-यथार्थ की कठिन सच्चाइयों के बीच भी
खुश था बहुत, बहुत खुश था मैं
पर अजीब थी ज़िन्दगी वह तुम्हारे संग
स्नेह की ममतामयी छाओं के पीछे भी मुझमें
था कोई अमंगल भ्रम
भीतरी परतों की सतहों में हो जैसे
अन-चुकाये कर्ज़ का कंधों पर भार
तुमसे कह न सका पर इतनी…
ContinueAdded by vijay nikore on August 16, 2015 at 5:30pm — 30 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२
श्रोडिंगर ने सच बात कही
हम जिन्दा भी हैं मुर्दा भी
इक दिन मिट जाएगी धरती
क्या अमर यहाँ? क्या कालजयी?
उस मछली ने दुनिया रच दी
जो ख़ुद जल से बाहर निकली
कुछ शब्द पवित्र हुए ज्यों ही
अपवित्र हो गए शब्द कई
जिस दिन रोबोट हुए चेतन
बन जाएँगें हम ईश्वर भी
मस्तिष्क मिला बहुतों को पर
उनमें कुछ को ही रीढ़ मिली
मैं रब होता, दुनिया…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2015 at 2:57pm — 19 Comments
लघुकथा – पारिभाषिक पेटेंट
“ जनता का , जनता द्वारा, जनता पर शासन- अब्राहिम लिंकन.”
“ शाबाश बेटा.” शिक्षक के आँखों में चमक आ गई, “ अब कौन बताएगा ?”
“ सर ! मैं बताऊँ ?”
“ अरे ! तू बताएगा. कभी स्कूल समय से आया नहीं. प्रश्नोत्तर लिखे नहीं. रोज कामधंधे पर जाता है. तू क्या जानता है इस बारे में. चल तू भी बता दे ?”
“ सर ! हमारे द्वारा, हम पर शासन.”
यह सुन कर शिक्षक को एकलव्य और गुरु द्रोण याद आ गए , “ ओह ! यह तो प्रजातंत्र पर मेरी पारिभाषिक खोज हो सकती…
ContinueAdded by Omprakash Kshatriya on August 16, 2015 at 11:00am — 11 Comments
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२१२२ २१२२ २१२२ २१२१ दीप राहों में जलाओ जशने आज़ादी है आज, ध्वज वतन का लह्लहाओ जशने आज़ादी है आज,
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Added by rajesh kumari on August 16, 2015 at 10:30am — 16 Comments
" बाबू जी ! कबाड़ी वाले को क्यों बुलाया था ? "
" बस , यूँ ही . बेटा ."
" यूँ ही क्यों बाबू जी ! आप तो उससे कह रहे थे कि इस घर का सबसे बड़े कबाड़ आप हैं और वह आपको ही ले जाये ."
" इसमें झूठ क्या है ? इस घर में मेरी हस्ती कबाड़ से ज्यादा है क्या ? "
" बाबू जी , प्लीज़ आप ऐसा न कहिये . क्या मैं या इंदु आपका ख्याल नहीं रखते ? "
" दिन भर कबाड़ की तरह घर के इस या उस कोने में पड़ा रहता हूँ और वक्त - बेवक्त तोड़ने के लिए दो रोटियाँ मिल जाती हैं , तुम दोनों ने मेरे…
ContinueAdded by सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा on August 16, 2015 at 9:30am — 5 Comments
Added by दिनेश कुमार on August 15, 2015 at 5:30pm — 7 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 15, 2015 at 11:24am — 10 Comments
2222 2222 2222 222
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रोने का तुम नाम न लेना रीत बनाओ हँसने की
रोने धोने में क्या रक्खा होड़ लगाओ हँसने की /1
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माना पाँव धँसे हैं कब से पार उतरना मुश्किल है
पीड़ाओं के इस दलदल में गंग बहाओ हँसने की /2
******
परपीड़ा में सुख मत खोजो ये पथ घेरे वाला है
दूर तलक जो ले जाती है राह बताओ हँसने की /3
******
पोंछो आँसू बाढ़ में इसकी खुशियों के घर बहते हैं
निर्जन में भी यारो बस्ती…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 15, 2015 at 10:30am — 12 Comments
1.
तू मेरा हमसफ़र है
दुनिया को तो क्या
तुझे ही पता नहीं.
2.
अबकी सुबह
होगा तेरा दीदार
सोचता तो रोज ही हूँ
3.
माँगा था उसे
इबादत की तरह
सुना है इबादत
कभी बेकार नहीं जाती
4. बड़ी शिद्द्त के बाद
तेरा सामना हुआ
तू तो उम्मीद से आगे
खूबसूरत निकला
5. चलो छोड़ो बहुत हो गया
कोई भला इतनी देर के लिए
भी रूठता है क्या…
ContinueAdded by सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा on August 14, 2015 at 6:00pm — 3 Comments
आज़ादी के कई सालों बाद
उसकी तलाश ज़रूरी लगती है .
प्रजातन्त्र की भौतिकवादी
प्रवित्रियो में लिप्त आज़ादी अधूरी लगती है.
आज़ादी की तलाश उन बcचो के सपनों में है
जिनका बचपन कलम-किताब छोड़ होटलों में बिकता है
आज़ादी की तलाश किसानों के खेतों में है
जिनके आखों में पानी और गले मे मौत है
आज़ादी की तलाश वेरोज़गार युवीमन में है
जहाँ आखरी डिग्री की आस है
जिससे भूखा पेट भरा जा सके
आज़ादी की तलाश फूटपाथ पर सोए लोगों…
ContinueAdded by दिलीप कुमार तिवारी on August 14, 2015 at 1:30am — 4 Comments
2122 2122 2122 212
लड़खड़ाहट चाहता हूँ मैं संभल जाने के बाद
धूप दिल में चुभ रही है दिन निकल जाने के बाद
सबसे पहला शेर था मैं एक ग़ज़ल की सोच का
और खारिज हो गया था लय बदल जाने के बाद
ठोस उस आधार पर लिपटी थी इक चिकनी परत
खुद से शिकवा कर रहे है हम फिसल जाने के बाद
खुश्क आँखों की ज़ुबा को यूँ समझ लो तुम सनम
ख़ाली बरतन जल रहा है सब उबल जाने के बाद
सर छुपाये फिर रहा था रौशनी में दर-ब-दर
चाँद सा खिलने लगा गम शाम ढल जाने के…
Added by मनोज अहसास on August 13, 2015 at 9:30pm — 15 Comments
गजल
बहर - 212 1212 1212 1212
काफिया - अर, रदीफ - मियाँ
पत्थरों के जंगलों से भर गए शहर मियाँ
दादी-नानी सँग गए वो सांस लेते घर मियाँ
कल को एक बार आसमान से वो झांक लें !
किस तरह मिला सकोगे पुरखों से नजर मियाँ ?
मत उखड़ ! यही लिहाज कर लिया, बहुत किया
जो नजर बचा के दूर से गए गुजर मियाँ
आग का उफान कौन सा ये इन्कलाब है
लाए किसके वास्ते दहकती दोपहर मियाँ
हमको क्या पता हमारा तो कभी दखल न था
तुम…
Added by Sulabh Agnihotri on August 13, 2015 at 8:33pm — 2 Comments
फैंसी ड्रैस का आयोजन था।वृद्धाश्रम के सभी वृद्ध तरह - तरह की वेशभूषा में सजे थे। कोई किसान,कोई सब्जी बेचने वाला,कोई पुजारी ,कोई माली तो कोई संत।
उन्हीं में से एक वृद्धा ने कटोरा हाथ में लिया व अपनी वेशभूषा के अनुरूप वह भीख माँगने लगी।
फैंसी ड्रेस का माहौल ही बदल गया। सबके हाथ पीछे हट गए,आँखे पनीली हो गईं,ह्रदय करूण भाव से भर गया ।सभी के मन के एक कोने में एक पछतावा, एक पश्चाताप सा जाग गया।सब यही सोच रहे थे ओह! ये हमने क्या कर दिया।सबकी संवेदना ने विचारों पर ताला लगा दिया ये दृश्य…
Added by Mamta on August 13, 2015 at 5:30pm — 8 Comments
Added by Seema Singh on August 13, 2015 at 2:38pm — 6 Comments
आज भी आँख खुलते ही रोज की ही तरह सुबह -सुबह इंतज़ार किया उसका । दरवाजा खोला ही था कि सायकिल पर चढा दुबला सा लडका दरवाजे पर चेतना की चाबी फेंक गया । रोज की ही तरह ऐसे लपककर स्वागत किया मानो बरसों से इंतज़ार किया हो उसका । अंदर ले आया और टेबल पर फैला कर परत -दर- परत तहों को खोलता गया ।चेतना मन- पौध खुलकर कुलबुलाती हुई जन्म से परिपक्व होने तक का सफर शनैः शनैः तय करने लगी ।तहें अब अपने आखिरी विराम को पहुँच , मन को गहन चिंतन में डाल ...... चेतना अपने सम्पूर्ण यौवन में स्थापित थी । तभी सहसा घड़ी…
ContinueAdded by kanta roy on August 13, 2015 at 2:00pm — 4 Comments
स्कूल में मध्यांतर हुआ |सब बच्चे अपने अपने टिफिन बॉक्स लेकर मैदान में जमा थे |रीना बड़े चाव से दादी के हाथ के बने आलू के पराठे खा रही थी |उसकी सहेली कुहू टिफिन खोल कर चुपचाप बैठी थी|
“कुहू जल्दी से टिफिन ख़त्म करो, घंटी बजने वाली है “
“रीना मुझे गणित का सवाल नहीं आया |देखना, मुझे शून्य अंक मिलेगा और घर पर मम्मी की डांट पड़ेगी| “
“हाँ कल मुझे भी नहीं आ रहा था| तुमने नेट पर सर्च किया था?”
“किया था |अर्जुन अकादमी व मैथ्स ऑन लाइन दोनों पर उदाहरण देखे थे |मैं बार बार गलती…
ContinueAdded by Manisha Saxena on August 13, 2015 at 1:30pm — 3 Comments
चेप्टर-२ -कुछ क्षणिकाएँ :
1.
वो साकार है या निराकार है
पता नहीं
वो है
मगर दिखता नहीं
फिर भी वो
जीवन का आधार है
शायद उसी को
दुनिया कहती है
ईश्वर
………………............
2.
कितना विचित्र है
हमारा साथ होना
एक लम्बी चुप
सांसें भी निःशब्द
एक दूसरे के वास्ते
भाव शून्यता
पत्थर सा प्यार
दम तोड़ते सात फेरों के वादे
उठायेंगे सात जन्म
जर्जर होता …
Added by Sushil Sarna on August 13, 2015 at 12:30pm — 2 Comments
Added by सूबे सिंह सुजान on August 13, 2015 at 10:08am — 5 Comments
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