मित्रों गोपियों के विरह को और उनके कृष्ण प्रेम को महसूस करने की कोशिश की है ....... आशा है आपको यह गीत पसंद आएगा
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प्रेम तत्व का सार कृष्ण है जीवन का आधार कृष्ण है |
ब्रह्म ज्ञान मत बूझो उद्धव , ब्रह्म ज्ञान का सार कृष्ण हैं ||
मुरली की धुन सामवेद है , ऋग् यजुर आभा मुखमंडल
वेद अथर्व रास लीला है ,शास्त्र ज्ञान कण कण…
Added by Manoj Nautiyal on February 6, 2013 at 1:00pm — 11 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 6, 2013 at 11:29am — 15 Comments
रोज़ ढलते सूरज के साथ,
जन्म लेने लगती कुछ बूँदें
रोज़ सुबह उठ, उन बूँदों को भी मै पाता हूँ,
पर खो जाती,वो चढ़ते सूरज के साथ....
तब पूछता मै खुद से....
सूरज ही तो था इनका जनक, फिर...फिर
क्यों कर मिटा दी उसने अपनी ही उत्त्पत्ति?
सोचते-सोचते उभर आती फिर कुछ बूंदे
पर होती नहीं वो ओंस....
और इस तरह ....ढलने लगता ...एक और सूरज
और जन्म लेने लगती फिर कुछ…
Added by Vivek Shrivastava on February 6, 2013 at 11:00am — 16 Comments
मैंने तो सिर्फ एक ही रंग माँगा था चटक रंग तुम्हारे प्यार का और तुम पूरा इंद्र धनुष ही उठा लाये कैसे सम्भालूँगी ये…
ContinueAdded by rajesh kumari on February 6, 2013 at 10:30am — 25 Comments
एक और ताज़ा गज़ल आपकी खिदमत में पेश करता हूँ... लुत्फ़ लें ...
आप खुश हैं, कि तिलमिलाए हम |
आपके कुछ तो काम आए हम |
खुद गलत, आपको ही माना सहीह,
जाने क्यों आपको न भाए हम |
आपके फैसले गलत कब थे,
और फिर, सब…
Added by वीनस केसरी on February 6, 2013 at 4:30am — 20 Comments
"छंद त्रिभंगी "
उठ नींद से गहरी , अर्जुन प्रहरी, नयना अपने, खोल ज़रा
पद साथ बढ़ा के , चाप चढ़ा के , इन्कलाब तो, बोल ज़रा
या छोड़ दिखावा, ये पहनावा, भगवा धारण, तुम कर लो
बन संत तजो सब, मौन रहो अब, मन का मारण,तुम कर लो
,,,,,,,दीप ............
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 5, 2013 at 9:42pm — 16 Comments
विकास तो बहोत किये ,
फिर भी हम पिछड़ गये ,
पाना था जो उत्कर्ष ,
उससे ही बिछड़ गये !!
प्रयास के उपरांत भी ,
ऐसा क्यूँ होता है !
जिसको हँसना चाहिए ,
वह स्वयं रोता है !
स्वच्छता की बात करने वाला ,
खुद गन्दगी नहीं धोता है ,
जिसको जागना चाहिए ,
वही अब सोता है!!
एक नई सोच ,
एक नई लालसा !
दिल में लिए हुये,
पाट रहा हूँ फासला !!
हारना नहीं है मुझे ,
लड़ता ही रहूँगा !
संघर्ष ही जीवन है,
प्रयास करता…
Added by ram shiromani pathak on February 5, 2013 at 8:30pm — 2 Comments
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 5, 2013 at 4:30pm — 23 Comments
बह्रे हज़ज़ मुसम्मन सालिम
१२२२-१२२२-१२२२-१२२२
दिमाग़ी सोच से हट कर मैं दिल से जब समझता हूँ;
ज़माने की हर इक शै में मैं केवल रब समझता हूँ; (१)
ख़ुशी बांटो सभी को और सबसे प्यार ही करना,
यही ईमान है मेरा यही मज़हब समझता हूँ; (२)
मरुस्थल है दुपहरी है न कोई छाँव मीलों तक,
ये दुनिया जिसको कहती है वो तश्नालब समझता हूँ; (३)
कभी गाली, कभी फटकार तेरी, सब सहा मैंने,
मिला है आज हंस कर तू, तेरा मतलब समझता हूँ; (४)
फ़ितूर इस को कहो चाहे सनक या…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on February 5, 2013 at 3:30pm — 17 Comments
मित्रों, कई दिन के बाद एक ग़ज़ल के चंद अशआर हो सके हैं, आपकी मुहब्बतों के नाम पेश कर रहा हूँ
वो हर कश-म-कश से बचा चाहती है |
वो मुझसे है पूछे, वो क्या चाहती है |
यूँ तंग आ चुकी है इन आसानियों से,
हयात अब कोई मसअला चाहती है |…
ContinueAdded by वीनस केसरी on February 5, 2013 at 10:00am — 17 Comments
भारत माँ की जय बॊलॊ
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प्रॆम प्रणय कॆ अनुबंधॊं सॆ, मॆरा कॊई संबंध नहीं हैं !!
बिंदिया पायल कंगन कजरा, मॆरॆ तट बन्ध नहीं हैं !!
ना कॊई खॆल खिलौनॆ, ना गुब्बारॆ भर कर लाया हूँ !!
आज तुम्हारॆ चरणॊं मॆं, बस अंगारॆ लॆ कर आया हूँ !!
मिट्टी की अजब मिठास कहॆगी, भारत माँ की जय बॊलॊ !!
मॆरॆ जीवन की हर सांस कहॆगी, भारत माँ की जय बॊलॊ !!१!!
मॆरी कविता की बस कॆवल, इतनी ही परिभाषा है !!
श्रृँगार-सुरा कॆ बॊल नही यह,दिनकर वाली भाषा है !!…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on February 4, 2013 at 9:17pm — 10 Comments
ये शब्द समर्पित उन भावनाओं को,
जो अव्यक्त रह गयी.
उस रुपहले संसार को,
जो ख्वाब बनकर रह गया.
ये शब्द समर्पित उस रिश्ते को,
जो बेनाम रह…
ContinueAdded by RAJESH BHARDWAJ on February 4, 2013 at 5:44pm — 4 Comments
आते हुये लोग ,
जाते हुये लोग !
जीवन का सुख दुःख ,
आनंद और भोग !!
असली आनंद विदेशों में ,
विदेश यात्रा का सुख ,
खुश और कृत कृत हो जाऊ ,
भूलूं जीवन भर का दुःख !!
वहां का…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on February 4, 2013 at 1:28pm — 7 Comments
मौलिक / अप्रकाशित
खरी-खरी खोटी-खरी, खरबर खबर खँगाल ।
फरी-फरी फ़रियाँय फिर, घरी-घरी घंटाल ।
घरी-घरी घंटाल, मीडिया माथा-पच्ची ।
सिद्ध होय गर स्वार्थ, दबा दे ख़बरें सच्ची ।
परमारथ का ढोंग, बे-हया देखे खबरी ।
करें शुद्ध व्यवसाय, आपदा क्यूँकर अखरी ??
Added by रविकर on February 4, 2013 at 1:25pm — 9 Comments
तुम्हारी झुकी पलकें जो देखी
तो शृंगार रस में डुबोकर तूलिका,
मन में कोई छवि बना ली
कि यकायक तुमने पलकें उठा ली ,
भाव बदला, रस बदला
आंखों में सुर्ख डोरों को देख
तूलिका का रंग बदला
सब समझ गया मैं रुप का पुजारी
जिसके अंग-अंग पर तूलिका चलती थी
तू नहीं रही अब वो नारी
नही बचा तुझमें स्पंदन
हंत ! व्यथित है चित्रकारी
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Added by rajesh kumari on February 4, 2013 at 1:00pm — 13 Comments
उन्होंने अवकाश हेतु आवेदन पहुँचाया
अधिकारी का सर चकराया
लिखा था प्रार्थी की मां का स्वास्थ वेहद नाजुक है
स्थिति अत्यंत गंभीर है
कोई रिस्पांस नहीं दे रही है
बस अंतिम सांसे ले रही है
त्याग दिया हे जल अन्न
बिलकुल हे मरणासन्न
चिकित्सकों के सारे प्रयास व्यर्थ है
अतः हम आगामी पांच दिवस कार्यालय आने में असमर्थ है
अधिकारी ने उनके अवकाश का रिकॉर्ड खुलवाया
व बिगत दो बर्षों में उनकी दो माताओं को मृत…
Added by Dr.Ajay Khare on February 4, 2013 at 1:00pm — 3 Comments
Added by ram shiromani pathak on February 4, 2013 at 12:59pm — 6 Comments
ग़ज़ल
(बह्र: बहरे मुजारे मुसमन अखरब)
(वज्न: २२१, २१२२, २२१, २१२२)
दुष्कर्म पापियों का भगवान हो रहा है,
जिन्दा हमारे भीतर शैतान हो रहा है,
जुल्मो सितम तबाही फैली कदम-२ पे,
अपराध आज इतना आसान हो रहा है,…
Added by अरुन 'अनन्त' on February 4, 2013 at 11:00am — 8 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 4, 2013 at 10:00am — 9 Comments
आत्म-खोज
( यह उन सभी को सादर समर्पित है जिन्होंने दर्द को
भले एक क्षण के लिए भी पास से छुआ है, पीया है,
यह उनको आस और प्रोत्साहन देने के लिए है )
कहाँ ले जाएगा यह प्रकंपित…
ContinueAdded by vijay nikore on February 4, 2013 at 6:30am — 16 Comments
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