वैलेंटाइन फ्लू (व्यंग)
त्राहिमाम कर रही दिल्ली, फ़ैल रहा स्वाईंन फ्लू,
दूजे सर चढ़ के बोल रहा सबके वैलेंटाइन फ्लू.
कही मरीजों की है, कतारें लम्बी अस्पतालों में,
और हम हैं की खोये हैं प्रेमिका के ख्यालों में.
कही परिजन चीत्कार कर रहे छाती पीटकर,
प्रेम पत्र लिख रहे हम उसपर इतर छिटकर.
पड़ोस में एक बीमार पड़े ,मदद को हैं बुलाते,
पर गुलाब लिए हाथ में हम गीत हैं गुनगुनाते.
क्यों औरों का दुःख अपनाऊँ…
Added by praveen singh "sagar" on February 10, 2013 at 12:42pm — 6 Comments
ज़हर भर चुका है दिलों में हमारे
सभी सो रहे है खुदा के भरोसे
जुबां बंद फिर भी अजब शोर-गुल है
हैं जाने कहाँ गुम अमन के नज़ारे
धरम बेचते हैं धरम के पुजारी
हमें लूटते हैं ये रक्षक हमारे
भला कब हुआ है कभी दुश्मनी से
बचा ही नहीं कुछ लुटाते-लुटाते
बटा घर है बारी तो शमशान की अब
यूँ लड़ते हुये हम कहाँ तक गिरेंगे
धरम का था मतलब खुदा से मिलाना
खुदा को ही बांटा धरम क्या निभाते
Added by नादिर ख़ान on February 10, 2013 at 12:30am — 7 Comments
इन दिनों वो अपने आस पास रेशम बुनने लगी थी | बहुत ही महीन मगर चमकीली, हर समय बस एक ही धुन सवार हो गयी थी उस को रेशम बुनने कि | जहाँ भी वो रहती बस रेशम के धागों में उलझी हुई रहती |
कई कई बार वो घायल हो जाती, मगर वो रेशम बुनने में ही तल्लीन रहती उसके घायल मन से बना रेशम बहुत ही खूबसूरत होता |
वो पहले ऐसी नहीं थी | कितना तो काम होता था उसके पास, उसकी होड…
ContinueAdded by दिव्या on February 9, 2013 at 7:30pm — 16 Comments
Added by Abhinav Arun on February 9, 2013 at 3:35pm — 6 Comments
मौलिक -अप्रकाशित
सत्तावन "जो-कर" रहे, जोड़ा बावन ताश ।
महल बनाया दनादन, "सदन" दहलता ख़ास ।
सदन दहलता ख़ास, किंग को नहला पंजा।
रानी दहला जैक, कसे हर रोज शिकंजा ।
धक्का इक्का खाय, हिले नहिं पाया-पत्ता ।
खड़ा ताश का महल, शक्तिशाली कुल सत्ता ।।
Added by रविकर on February 9, 2013 at 10:40am — 11 Comments
जब कभी ख़ुद रोना होगा ,
मेरी याद आयेगी तब तुझको !
बेइज्ज़त करेंगे अपने बेईमान कहकर ,
बेवफ़ा वो ख़ुद बेवफ़ा कहेंगे जब तुझको!
अँधेरे में पड़े रहोगे हमेशा,
लोग उजाला कहेंगे जब तुझको!
टूटी हुई कश्ती भी धोखा देगी ,
निगल जायेगा दर्द का समंदर जब तुझको!
दर्द आँखों में सीने में घाव होगा,
ज़िन्दगी ओढ़ा देगी जब कफ़न तुझको!
राम शिरोमंनी पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on February 8, 2013 at 7:19pm — 2 Comments
लोकायुक्त का छापा
नाम से ज़्यादा अहम, होता कवियों का उपनाम
उपनाम कवियों को देते,एक नई पहचान
सलिल, सरल, प्यासा, घायल, आहत, अटल, अचल
एक कवि ने नाम में जोड़ा, कवि करोड़ीमल
कवि करोड़ीमल थे फक्कड़ और बिंदास
पैसा रुपया धन दौलत न…
Added by Dr.Ajay Khare on February 8, 2013 at 12:30pm — 7 Comments
जब शिवजी का ध्यान भंग करने के लिए मदनदेव को कहा गया तो वे राजी तो हो गए किंतु उनका मन गहरी सोच में पड़ गया उनकी कशमकश को दर्शाने के लिए चौपाईयां लिखी जिसमें आवश्यक सुधार आदरणीय अम्बरीष जी ने सुझाया जिसके बाद इसे ओबीओ के पटल पर रखने का साहस कर पा रहा हूं ।…
Continue
Added by राजेश 'मृदु' on February 8, 2013 at 12:07pm — 5 Comments
वसंत जाने कहाँ उड़ गया है ...।
मौसम का मिजाज बिगड़ गया है ।।
बारिस ने ऐसा कहर ढा दिया है ;
कोयल से सुर ही बिछड़ गया है ...।।
बर्फ इतने गिरे, मेघ रुकते नही ;
जैसे धरा से गगन झगड़ गया है ।।
जितना दूषित जल, उतना ही पवन ;
बनकर दानव प्रदूषण अकड़ गया है ...।।
छोड़ विज्ञान की, बातें भगवान् की
अपना ही मंदिर उजड़ गया है ......।।
Added by श्रीराम on February 7, 2013 at 11:00pm — 3 Comments
इक प्रयोग "पञ्च चामर ग़ज़ल"
बुरा न बोलिए उसे अगर कठिन गुजर हुआ
सिवाय वक़्त के बता न कौन हमसफ़र हुआ
तलाशते रहा जिसे रखे मिलन कि तिश्नगी
सुनी नहीं सदा अजीज यार बे-खबर हुआ
बदल नहीं सके उसे कहा सनम जिसे कभी
सनम रहा सनम बने न प्यार का असर हुआ
बढीं तमाम गर्दिशें चली हवा गुमान की
बुझा चिराग प्यार का निजाम बेअसर हुआ
गुरूर जिस्म पे कभी न कीजिये हुजूर यूँ
उसूल सुन हयात का मनुज नहीं अमर हुआ
न राह दिख रही मुझे न "दीप" मंजिलें…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 7, 2013 at 8:17pm — 13 Comments
इक प्रयोग "पञ्च चामर ग़ज़ल"
झुके कभी कभी उठे नज़र बड़ी कमाल है
अदायगी ग़ज़ब कि बेनजीर बेमिसाल है
इधर उधर घुमा घुमा अजीब घूर घूर के
जबाब मांगती नज़र बड़ा गहन सवाल है
तराश नाजुकी भरी कि लब लगें गुलाब से
महक रही नफस नफस हसीं शबे विसाल है
नदी नहीं दिखे यहाँ समा रहा जिगर जहाँ
सियाह चश्म झील से गुमा हुआ गजाल है
सदैव सत्य बोलना बुरा भले रहे मगर
जरूर आजमाइए असर भरा ख़याल है
जहर भरा हरेक हर्फ़ चख सकीं न दीमकें
इसी…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on February 7, 2013 at 7:51pm — 10 Comments
एकनिष्ठ हों कोशिशें, भाई-चारा शर्त |
भाग्योदय हो देश का, जागे आर्यावर्त |
जागे आर्यावर्त, गर्त में जाय दुश्मनी |
वह हिंसा-आमर्ष, ख़तम हों दुष्ट-अवगुनी |
संविधान ही धर्म, मर्ममय स्वर्ण-पृष्ठ हो |
हो चिंतन एकात्म, कोशिशें एकनिष्ठ हों ||
Added by रविकर on February 7, 2013 at 2:34pm — 5 Comments
तुम पास नहीं हो तो दिल मेरा बहुत उदास है !
हर पल दिल में तेरा ही अहसास है !
जिधर देखूं बस तुम ही तुम नज़र आते हो !
और पलक झपकते ही ओझल हो जाते हो !
दिल की धड़कन से तेरी आवाज़ आती है !
मेरी हर सांस से तेरी आवाज़ आती है !
न जाने क्या हो गया है मुझे !
मैं बात करती हूँ , आवाज़ तेरी आती है !
जबसे तुमसे मिले हैं हम खुद से पराये हो गए हैं !
तेरी ही यादों में कुछ ऐसे दीवाने हो गए हैं !
सबके बीच रहते हुए भी तनहा हो गए हैं…
ContinueAdded by Parveen Malik on February 7, 2013 at 1:00pm — 7 Comments
तू तू मैं मैं
पति पत्नीं में होता प्यार वेसुमार
प्यार ही प्यार में होती तकरार
तकरार से संबंधों में आता निखार
तकरार से धुल जाता दिल का गुबार
प्राय: पति सदैव रहता खामोश
बस यदा कदा ही जताता आक्रोश
आपके कारण जिन्दगी मेरी नाश हो गई
हर बक्त तुम चुभने वाली फाँस हो गई
पल पल जलाती हो तुम मेरा खून
नहीं रहा जीवन में चैनोंसुकून
खुशहाल जिन्दगी उदास…
ContinueAdded by Dr.Ajay Khare on February 7, 2013 at 1:00pm — 8 Comments
122, 122 22 (ग़ज़ल)
जमाया हथौड़ा रब्बा
कहीं का न छोड़ा रब्बा
बना काँच का था नाज़ुक
मुकद्दर का घोड़ा रब्बा
हवा में उड़ाया उसने
जतन से था जोड़ा रब्बा
तबाही का आलम उसने
मेरी और मोड़ा रब्बा
बेरह्मी से दिल को यूँ
कई बार तोड़ा रब्बा
रगों से लहू को मेरे
बराबर निचोड़ा रब्बा
चली थी कहाँ मैं देखो
कहाँ ला के छोड़ा रब्बा
मुकद्दर पे ताना कैसे
कसे मन निगोड़ा रब्बा
लगे ए …
ContinueAdded by rajesh kumari on February 7, 2013 at 10:00am — 27 Comments
आलीशान वाहन में देखा ,
बैठा था एक सुन्दर पिल्ला !
खाने को इधर रोटी नहीं ,
गटक रहा था वह रसगुल्ला !
इर्ष्या हुयी पिल्ले से ,
क्रोध आ रहा रह-रह कर !
मै भूख से मर रहा ,
यह खा रहा पेट भरकर !
देख रहा ऐसी नज़रों से,
मानों समझ रहा भिखारी
सोचने पर मजबूर था ,
इतनी दयनीय दशा हमारी!
आदमी मरेगा भूख से ,
पिल्ला रसगुल्ला खायेगा !
किसी ने सच ही कहा है ,
ऐसा कलयुग आयेगा!
राम शिरोमणि पाठक "दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on February 6, 2013 at 8:30pm — 1 Comment
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 6, 2013 at 5:30pm — 20 Comments
गीत :
आशियाना ...
संजीव 'सलिल'
*
धरा की शैया सुखद है,
नील नभ का आशियाना ...
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना ...
*
जोड़ता तू फिर रहा है,
मोह-मद में घिर रहा है।
पुत्र है परब्रम्ह का पर
वासना में तिर रहा है।
पंक में पंकज सदृश रह-
सीख पगले मुस्कुराना ...
*
उग रहा है सूर्य नित प्रति,
चाँद संध्या खिल रहा है।
पालता है जो किसी को,
वह किसी से पल रहा…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on February 6, 2013 at 5:00pm — 8 Comments
(My First Poetry on OBO )
शून्य में मैं ढूँढ रहा हूँ
अपने जीवन के सारांश
बिखरी बिखरी यादों के पल रीते रीते बिन रहा हूँ
बीती बातें बीती यादें
बीते सपने बीती राहें
हर बीते दिन की अकुलाहट थामे
शून्य में मैं ढूँढ रहा हूँ
अपने जीवन के सारांश
बिखरी बिखरी यादों के पल
रीते रीते बिन रहा हूँ
आँखो मे फैला अंधियारा
नवचेतन का मार्ग नही
तुमसे ही मेरा जीवन था
तुमसे परे कोई मार्ग नही
तुमको मुझमे ढूँढ रहा…
ContinueAdded by Nitish Kumar Pandey on February 6, 2013 at 4:00pm — 8 Comments
*मध्यमेधा का
एक चम्मच सूरज उठाए
कर्मनाशा आहूतियों को
जब भी मढ़ना चाहा
राग हिंडोल के वर्क से
अतिचारी क्षेपक
हींस उठे
पिनाकी नाद से
और डहक गया
सारा उन्मेष.......
तकलियां.....
बुनती ही रहीं
कुहासाछन्न आकाश
बिना किसी अनुरणन के
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
*मध्यमेधा- मध्यम वर्ग की मेधा (बांग्ला शब्दार्थ)
Added by राजेश 'मृदु' on February 6, 2013 at 1:53pm — 10 Comments
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