जीने के आसार ले गए,
जीवन का आधार ले गए,
भूखों की पतवार ले गए,
लूटपाट घरबार ले गए,
छीनछान व्यापार ले गए,…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on January 3, 2013 at 11:59am — 14 Comments
हर अध्याय
अधूरे किस्से
कातर हर संघर्ष
प्रणय, त्याग
सब औंधे लेटे
सिहराते स्पर्श
कमजोर गवाही
देता हर दिन
झुठलाती हर शाम
आस की बडि़यां
खूब भिंगोई
पर ना आई काम
इन बेखौफ लकीरों ने सबको किया तमाम
फलक बुहारे
पूनो आई
जागा कहां अघोर
मरा-मरा
आकाश पड़ा था
हुल्लड़ करते शोर
किसकी-किसकी
नजर उतारें
विधना सबकी वाम
हिम्मत भी
क्या खाकर मांगे
निष्ठुर दे ना दाम
इन बेखौफ…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on January 2, 2013 at 4:30pm — 8 Comments
भोर के पंछी
तुम ...
रहस्यमय भोर के निर्दोष पंछी
तुमसे उदित होता था मेरा आकाश,
सपने तुम्हारे चले आते थे निसंकोच,
खोल देते थे पल में मेरे मन के कपाट
और मैं ...
मैं तुम्हें सोचते-सोचते, बच्चों-सी,
नींदों में मुस्करा देती थी,
तुम्हें पा लेती थी।
पर सुनो!
सुन सकते हो क्या ... ?
मैं अब
तुम्हें पा नहीं सकती थी,
एक ही रास्ता…
Added by vijay nikore on January 2, 2013 at 2:30pm — 28 Comments
अंततः हम एकल ही थे
स्मृति में कहाँ रही सुरक्षित
जन्म लेने की अनुभूति
और ना होशो हवास में
मौत को जी पायेंगे
समस्त
कौतुहल विस्मय
अघात संताप
रणनीति कूटनीति तो
मध्य में स्थित
मध्यांतर की है
उसमे भी
जब तुमने
ज़मीन छीनकर ये कहा की
सारा आकाश तुम्हारा
मैंने पैरों का मोह त्याग दिया
और परों को उगाना सीख लिया
अब बाज़ी मेरे हाथ में थी
लेकिन हुकुम का इक्का
अब भी तुम्हारे…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on January 2, 2013 at 9:33am — 12 Comments
दामिनी तुम जिंदा हो
हर औरत का हौंसला बनकर
न्याय की आवाज़ बनकर
वक्त की ज़रूरत बनकर
आस्था की पुकार बनकर
एकता की मिसाल बनकर
तुम लाखों दिलों में जिंदा हो
न्याय की उम्मीद बनकर…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on January 1, 2013 at 10:25pm — 8 Comments
मुल्क की इस पाक माटी को मुबारक हो ये साल
संग सी वीरों की छाती को मुबारक हो ये साल
चल पडा है कारवाँ अधिकार अपने मांगने
इस बगावत करती आंधी को मुबारक हो ये साल
आग हर दिल में जला दी फूंक के डर का कफ़न
हो चली रुखसत जो बेटी को मुबारक हो ये साल…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on January 1, 2013 at 4:00pm — 7 Comments
हाँ हमें कुछ शर्म करना चाहिये
या हमें अब डूब मरना चाहिये
देश क्यों बदला नहीं कुछ आज तक
देश को क्यों और धरना चाहिये
दर्द ही है जख्म की संवेदना
क्यों भला इससे उभरना चाहिये
रों रही है माँ बहन औ बेटियां
जिन्दगी इनकी सवरना…
ContinueAdded by अमि तेष on January 1, 2013 at 11:47am — 12 Comments
छंद हरिगीतिका :
(चार चरण प्रत्येक में १६,१२ मात्राएँ चरणान्त में लघु-गुरु)
शुभकामना नववर्ष की सत,-संग औ सद्ज्ञान हो.
करिये कृपा माँ शारदा अब, दूर सब अज्ञान हो.
हर बालिका हो लक्ष्मी धन,-धान्य का वरदान हो.
सिरमौर हो यह देश अब हर, नारि का सम्मान हो.
सादर,
--अम्बरीष श्रीवास्तव
Added by Er. Ambarish Srivastava on January 1, 2013 at 10:00am — 28 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 31, 2012 at 7:30pm — 13 Comments
तार-तार विश्वास, मगर जीवन चलता है.. .…
Added by Saurabh Pandey on December 31, 2012 at 7:30pm — 28 Comments
माननीय अटलबिहारी जी की एक रचना की प्रसिद्ध पंक्ति "आओ फिर से दिए जलाएं "से प्रेरित
टूटे मन के खँडहर तन में
सूने अंतर के आँगन में …
ContinueAdded by seema agrawal on December 31, 2012 at 12:30pm — 15 Comments
चाँद सितारों से लड़ना आसान नहीं
क्या होगा अब हश्र कोई अनुमान नहीं
वक़्त निभाएगा अपना दायित्व "अजय "
मेरे हांथों में अब कोई सामान नहीं................
.
जो बांटा करता है सबको जीवन रस ,
पीने को बस गरल मिला केवल उसको
जो पथ पर तेरे फूलों का बना बिछौना ,
काँटों का इक सेज मिला केवल उसको
कैसी हैं हम सन्तति , हम पूत कहा के ,
बचा सके इक जननी का सममान नहीं
वक़्त निभाएगा अपना दायित्व "अजय "
मेरे हांथों में अब कोई सामान नहीं…
Added by ajay sharma on December 31, 2012 at 12:30am — 4 Comments
अमरावती सी अर्णवनेमी पुलकित करती है मन मन को ,
अरुणाभ रवि उदित हुए हैं खड़े सभी हैं हम वंदन को .
अलबेली ये शीत लहर है संग तुहिन को लेकर आये …
ContinueAdded by shalini kaushik on December 30, 2012 at 8:33pm — 3 Comments
पुराना जब भी जाता है नया इक साल आता है,
नया जब साल आता है उम्मीदे साथ लाता है/
कोई इक बार आकर के व्यथा उनसे भी तो पूछो,
जिन्हें आते हुए नव साल का इक पल न भाता है/
कभी तुम झाँक लो देखो जरा उस मन की तो बूझो,…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on December 30, 2012 at 7:36pm — 13 Comments
जिन्दा हूँ इसलिए की कुछ और पाप कटे ,
वर्ना ये जिंदगी से मौत ही भली।
मिल जाते हैं हर मोड़ पर दुआ सलाम वाले ,
खैर ख्वाहों की गिनती में रहती उंगलियाँ खाली।
हर कदम पे मेरे रोड़े बहुत मिले ,
काश उनको मैं पहचानता नहीं।
मैं भी जानता बहुत को इसी जिंदगी में ,
काश रोज रोजलोग बदलते नहीं।
जिन्दा हूँ इसलिए की सभी पाप कटे
फिर ये जिंदगी मुझे गवारा नहीं।
Added by ashutosh atharv on December 30, 2012 at 6:30pm — 4 Comments
ध्वजा को झुका दो कि क्रंदित है जन गण,
सन्नाटा पसरा यूँ गुमसुम है प्रांगण.
गुलशन उजड़ने से
सहमीं हैं कलियाँ,
पंखों को सिमटाये
दुबकी तितलियाँ,
कर्कश सा चिल्लाये भंवरा क्यों हर क्षण,…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on December 30, 2012 at 2:30pm — 24 Comments
व्यंग्य रचना:
हो गया इंसां कमीना...
संजीव 'सलिल'
*
गली थी सुनसान, कुतिया एक थी जाती अकेली.
दिखे कुछ कुत्ते, सहम संकुचा गठी थी वह नवेली..
कहा कुत्तों ने: 'न डरिए, श्वान हैं इंसां नहीं हम.
आंच इज्जत पर न आयेगी, भरोसा रखें मैडम..
जाइए चाहे जहाँ सर उठा, है खतरा न कोई.
आदमी से दूर रहिए, शराफत उसने है खोई..'
कहा कुतिया ने:'करें हडताल लेकर एक नारा.
आदमी खुद को कहे कुत्ता नहीं हमको गवारा..'
'ठीक कहती हो बहिन तुम, जानवर कुछ तुरत बोले.
मांग हो…
Added by sanjiv verma 'salil' on December 30, 2012 at 9:08am — 11 Comments
गीत:
झाँक रही है...
संजीव 'सलिल'
*
झाँक रही है
खोल झरोखा
नए वर्ष में धूप सुबह की...
*
चुन-चुन करती चिड़ियों के संग
कमरे में आ.
बिन बोले बोले मुझसे
उठ! गीत गुनगुना.
सपने देखे बहुत, करे
साकार न क्यों तू?
मुश्किल से मत डर, ले
उनको बना झुनझुना.
आँक रही
अल्पना कल्पना
नए वर्ष में धूप सुबह की...
*
कॉफ़ी का प्याला थामे
अखबार आज का.
अधिक मूल से मोह पीला
क्यों कहो ब्याज का?
लिए बांह में बांह…
Added by sanjiv verma 'salil' on December 30, 2012 at 8:56am — 8 Comments
भोर भई अरु सांझ ढली दिन बीत गया अरु रात गई रे.
बात चली कुछ दूर गयी अरु जीवन हारत मौत भई रे,
मानत हैं नर नार प्रजा सब दामिनी नेह सहोद तई रे,
जीवन देकर ज्ञान दियो परखो नज़रें यह सीख दई रे/
सीख दई कछु ज्ञान दियो,पर जीव बचा नहि जान गई रे,…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on December 30, 2012 at 12:56am — 7 Comments
एक जोरदार झटका,
और शुरू हो गया विचारो का मंथन,
कई मंचो पर चिल्लाने लगे बुद्धिजीवी,
सियार की तरह,
कैसे हुआ ये ?
क्यों हुआ ?
अरे पकड़ो,
कौन है जिम्मेदार ?
लटका दो फांसी पर,
बना दो नपुंसक उन पिशाचो को,
जिन्होंने नरेन्द्र, गाँधी, बुद्ध की भूमि को,
कलंकित किया है |
पर कोई नहीं बात करता,
और न करना चाहता,
इस सतत, स्वाभाविक, जन्मजात मानवीय विकृति को,
जिसको हराया था गाँधी ने, नरेन्द्र ने और…
Added by DRx Ravi Verma on December 30, 2012 at 12:30am — 4 Comments
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