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ईद कैसी आई है!

ईद कैसी आई है ! ये ईद कैसी आई है !

ख़ुश बशर कोई नहीं, ये ईद कैसी आई है !

जब नमाज़े - ईद ही, न हो, भला फिर ईद क्या,

मिट गये अरमांँ सभी, ये ईद कैसी आई है!

दे रहा कोरोना कितने, ज़ख़्म हर इन्सान को,

सब घरों में क़ैैद हैं, ये ईद कैसी आई है!

गर ख़ुदा नाराज़ हम से है, तो फिर क्या ईद है,

ख़ौफ़ में हर ज़िन्दगी, ये ईद कैसी आई है!

रंज ओ ग़म तारी है सब पे, सब परीशाँ हाल हैं,

फ़िक्र में रोज़ी की सब, ये ईद कैसी आई…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on May 25, 2020 at 6:00am — 9 Comments

आपने मुझ पे न हरचंद  नज़रसानी की (१०५ )

(2122 1122 1122 22 /112 )

.

आपने मुझ पे न हरचंद  नज़रसानी की

फिर भी हसरत है मुझे  इश्क़ में  ज़िन्दानी की

**

दिल्लगी आपकी नज़रों में  हँसी खेल मगर

मेरी नज़रों में है ये बात परेशानी की

**

मौत जब आएगी जन्नत के सफ़र की ख़ातिर

कुछ ज़रूरत न पड़ेगी सर-ओ-सामानी की

**

या ख़ुदा ऐसा कोई काम न हो मुझ से कभी

जो बने मेरे लिए वज्ह पशेमानी की

**

जिस तरह चाल वबा ने है चली दुनिया में

हर बशर के लिए है बात ये हैरानी…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 24, 2020 at 3:00pm — 4 Comments

मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

कहते भरे हुए हैं अब भण्डार तो बहुत

लेकिन गरीब भूख से लाचार तो बहुत।१।

**

फिरता है आज देखिए कैसे वो दरबदर

जिसने बनाये खूब  यूँ सन्सार तो बहुत।२।

**

मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ

रेलों बसों को  कर  रहे  तैयार तो बहुत।३।

**

बनता दिखा न आजतक हमको भवन कोई

रखते  गये  हैं  आप  भी  आधार  तो  बहुत।४।

**

सारे अदीब चुप  हुए  संकट  के दौर में

सुनते थे यार उनका है बाजार तो बहुत।५।

**

मजदूर सह किसान  से  जाने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 24, 2020 at 11:11am — 13 Comments

उस बेवफ़ा से (ग़ज़ल)

221 / 2121 / 1221 / 212

उस बेवफ़ा से दिल का लगाना बहुत हुआ

मजबूर दिल से हो ये बहाना बहुत हुआ [1]

छोड़ो ये ज़ख़्म-ए-दिल का फ़साना बहुत हुआ

ये आशिक़ी का राग पुराना बहुत हुआ [2]

चलते ही चलते दूर निकल आये इस क़दर

ख़ुद से मिले हुए भी ज़माना बहुत हुआ [3]

ख़ुद से भी कोई रोज़ मुलाक़ात कीजिये

ये दूसरों से मिलना मिलाना बहुत हुआ [4]

तस्कीन दे न पाएँगे काग़ज़ पे कुछ निशाँ

लिख लिख के उसका नाम मिटाना बहुत हुआ [5]

अब इक…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on May 24, 2020 at 10:32am — 8 Comments

ग़ज़ल ( नहीं था इतना भी सस्ता कभी मैं....)

(1222 1222 122)

नहीं था इतना भी सस्ता कभी मैं

बशर हूँ ,था बहुत मंहगा कभी मैं

अभी जिसने रखा है घर से बाहर

उसी के दिल में रहता था कभी मैं

जिसे कहते हो तुम भी झोपड़ी अब

मिरा घर है वहीं पर था कभी मैं

वहाँ पर क़ैद कर रक्खा है उसने

जहाँ देता रहा पहरा कभी मैं

सड़क पर क़ाफिला है साथ मेरे

नहीं इतना रहा तन्हा कभी मैं

मुझे भी तुम अगर तिनका बनाते

हवा के साथ उड़ जाता कभी…

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Added by सालिक गणवीर on May 24, 2020 at 8:30am — 8 Comments

सफेद कौवा(लघुकथा)



कौवा तब सफेद था।बगुलों के साथ आहार के लिए मरी हुई मछलियां, कीड़े वगैरह ढूंढ़ता फिरता। फिर बगुलों ने जीवित मछलियों का स्वाद चखा।वह उन्हें भा गया। अब वे जीवित मछलियां ही उड़ाने लगे।सोचते कि भला कौन मुर्दों की खिंचाई करे।उन्हें भी तो चैन नसीब हो।जिंदगी भर हुआ कि नहीं,किसे पता।अहले सुबह वे कुछ मरी हुई छोटी छोटी मछलियां और कीड़े मकोड़े लिए तालाब के ऊपर मंडराने लगते।उनके टुकड़े कर पानी में फेंकते...मछलियां अपने आहार की खातिर झुंड के झुंड पानी की सतह पर आतीं....फिर बगुले झपट्टा…

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Added by Manan Kumar singh on May 24, 2020 at 6:30am — 4 Comments

उनको न मेरी  फ़िक्र न रुसवाई का है डर(१०४ )

एक बे-रदीफ़ ग़ज़ल

( 221 1221 1221 122 )

.

उनको न मेरी  फ़िक्र न रुसवाई का है डर

पत्थर का जिगर रखते हैं सब  यार सितमगर

**

बर्बाद हुआ देख के भी दिल न भरा था

साहिल को रहा देखता गुस्से में समंदर

**

सब लोग हों यक जा नहीं मुमकिन है जहाँ में

हाथों की लकीरें  भी न होतीं हैं  बराबर

**

आईने जहाँ भी हों वहाँ  जाता नहीं मैं

वो नुक़्स  मेरे जग  को बता देते हैं  अक्सर

**

इन्सान को  हालात बना…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 23, 2020 at 11:00am — 6 Comments

ग़ज़ल - इस तरफ इंसान कड़की में

बह्र - फाइलातुन फाइलातुन फा

2122 2122 2

इस तरफ इंसान कड़की में

उस तरफ भगवान कड़की में

एक पल को भी नहीं भटका

राह से ईमान कड़की में

लाक डाउन में गई रोजी

सब बिके सामान कड़की में

ज़िन्दगी रफ्तार से दौड़े

हैं नहीं आसान कड़की में

हैं बहुत बीमार हफ्तों से

घर में अम्मी जान कड़की में

भूल बैठे सब हंसी ठठ्ठा

गुम हुई मुस्कान कड़की में

क्या कहें बरसात से पहले

ढह गया…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 23, 2020 at 9:11am — 6 Comments

रंग काला :

रंग काला :

जाने कितने रंग सृष्टि के

अद्भुत लेकिन है रंग काला

काली अलकें काली पलकें

काले नयन लगें मधुशाला

काला भँवरा

हुआ मतवाला

काला टीका नज़र उतारे

काला धागा पाँव सँवारे

काली रैना चंदा ढूंढें

अपना शिवाला

काले में हैं सत्य के साये

हर उजास के पाप समाए

रैन कुटीर सृष्टि की शाला

रंग सपनों को

भाए काला

काले से तो भय व्यर्थ है

इसमें जीवन का अर्थ है

आदि अंत का ये…

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Added by Sushil Sarna on May 22, 2020 at 7:48pm — 6 Comments

किसी का दिल से जो ख़ुश-आमदीद होता है (१०३ )

( 1212 1122 1212 22 /112 )

किसी का दिल से जो ख़ुश-आमदीद होता है

तो आँखों आँखों में गुफ़्त-ओ-शुनीद होता है

**

किसी के रू ब रू मुमकिन कहाँ है इश्क़ कभी

गवाह प्यार का कब चश्म-दीद होता है

**

नसीब में कहाँ मिलते हैं जश्न के मौक़े

कभी कभी कोई मौक़ा सईद होता है

**

जो पैरहन से ही दिखता जदीद है अक्सर

वो सिर्फ़ कहने की ख़ातिर जदीद होता है

**

चले जो शख़्स हमेशा रह-ए-सदाक़त पर

वही बशर तो जहाँ में मजीद होता है

**

उसी…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 22, 2020 at 7:00pm — 4 Comments

गुरूर- लघुकथा

लगभग दो महीने होने को आये थे इस भयानक त्रासदी को और राकेश इस पूरे समय में लोगों की मदद के लिए हर समय तैयार था. दिन हो या रात, सुबह हो या शाम, बस किसी भूखे या परेशान के बारे में पता चलते ही वह अपनी टीम या कभी कभी अकेले ही निकल पड़ता था.

"भाई, तुम तो हर तरफ छा गए हो, समाचार पात्र हो या लोकल टी वी, जिसे देखो वही तुम्हारी बात कर रहा है", दोस्त का फोन आया तो वह मुस्कुरा पड़ा.

"देखो यार, ऐसा मौका जीवन में जब भी आये, अपनी तरफ से सब कुछ झोंक देना चाहिए. आखिर हम कुछ लोगों की तो मदद करने में…

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Added by विनय कुमार on May 21, 2020 at 6:08pm — 6 Comments

ग़ज़ल ( अंधी गली के मोड़ पर.....)

 (221 2121  1221 212)

अंधी गली के मोड़ पे सूना मकान है

तन्हा-सा आदमी अब इस घर की शान है

हमसे उन्होंने आज तलक कुछ नहीं कहा

हर बार उससे पूछा है जो बेज़बान है

हालात-ए- माज़ूर यक़ीनन हुये बुरे

ऊपर चढ़ाई है वहीं नीचे ढलान है

बदक़िस्मती का ये भी नमूना तो देखिये

गड्ढे नहीं मिले थे जहाँ पर खदान है

मरने के बाद भी तो फ़राग़त नहीं मिली

सारे बदन पे बोझ है मिट्टी लदान है

*मौलिक एवं…

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Added by सालिक गणवीर on May 21, 2020 at 6:00pm — 6 Comments

मौन सरोवर ....

मौन सरोवर ....

जुदा न होना

मेरे होकर

कैसे कह दूँ तुम स्वप्न हो

मेरी श्वास का तुम दर्पण हो

बोलो प्रिय

कहाँ गए तुम

मेरी पलक में सपने बो कर

जीवनतल की अकथ कथा तुम

प्रेम पलों की मधुर ऋचा तुम

तुम बिन देखो

सूख न जाएँ

अभिलाषा के मौन सरोवर

अभी यहाँ थे अभी नहीं हो

मेरी क्षुधा की सुधा तुम्हीं हो

जीवन दुर्लभ

तुमको खोकर

तुम अंतस की अमर धरोहर

सुशील सरना

मौलिक एवं…

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Added by Sushil Sarna on May 20, 2020 at 7:49pm — 6 Comments

अब नहीं- लघुकथा

"पापा, अब तो आप नहीं जाओगे ना?, बेटा पिता को पकड़े हुए कह रहा था, साल भर बाद उसने पिता को देखा था.

उसके सामने पिछले सात दिन का खौफनाक मंजर छा गया, कभी पैदल, कभी ट्रक में, कभी किसी टेम्पो में चलते हुए बस वह आ गया था. उसके एक दो साथी तो रास्ते में ही चल बसे थे.

उसने पत्नी की तरफ देखा, जिसकी आँखें मानो कह रही थीं "तुम बस सलामत रहो, दो वक़्त की रोटी तो हम खा ही लेंगे".

उसने अपने भविष्य की चिंता को झटकते हुए कहा "अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा बेटा, यहीं रहूँगा, तुम्हारे पास".

बेटा खुश…

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Added by विनय कुमार on May 19, 2020 at 6:28pm — 8 Comments

बेगैरत

वो मेरा करीबी था, मैं मगर फरेबी था

इश्क़ वो वफाओं वाली, चाह बन के रह गयी

जो भी सितम हुए, सब मैंने ही सनम किए

टोकड़ी दुआओं वाली, आह बनके रह गयी

 

था मेरा गरूर उसको, मेरा था शुरूर उसको

साथ जब मैंने छोड़ा, आंखे नम रह गयी

सपनों का था  एक क़िला, मिलने का वो सिलसिला

तोड़ा उसके दिल को मैंने, पल मे सारी ढह गयी

वादे उसकी सच्ची थी, मेरी डोर कच्ची…

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Added by AMAN SINHA on May 19, 2020 at 1:46pm — 4 Comments

सिर्फ़ सन्नाटा है ता-हद्द-ए-नज़र अब मेरी(१०२ )

( 2122 1122 1122 22 /112 )

सिर्फ़ सन्नाटा है ता-हद्द-ए-नज़र अब मेरी

ख़्वाब की दुनिया गई यार बिखर अब मेरी

झूठ निकला मेरा दावा कि तेरे बिन न रहूँ

हिज्र के साथ है क्या ख़ूब गुज़र अब मेरी

नाख़ुदा है ही नहीं जब तो मुझे क्या मालूम

मौज ले जाएगी कब नाव किधर अब मेरी

कैसा माज़ी था मुहब्बत ही मुहब्बत से भरा

देखने की नहीं हिम्मत है उधर अब मेरी

फ़र्क सेहत पे न कुछ उसके है पड़ने वाला

जाती है जाये भले जान अगर अब…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on May 18, 2020 at 9:30pm — 9 Comments

मजदूर अपने गाँव के सस्ते नहीं गये -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२

पथ से खुशी के दुख भरे काँटे नहीं गये

निर्धन के पाँव से  कभी  छाले नहीं गये।१।

**

दसकों गुजर गये हैं ये नारा दिये मगर

होगी  गरीबी  दूर  के  वादे  नहीं  गये।२।

**

जिन्दा नहीं तो मरके वो पाये हैं लाख जो

मजदूर  अपने  गाँव  के  सस्ते  नहीं  गये।३।

**

कहते हैं इसको  आपदा  चाहे जरूर वो

शासन से इसके पर कभी रिश्ते नहीं गये।४।

**

किस्मत गरीब की रही झोपड़ ही घास की

आँगन में जिसके  फूल  के  डाले नहीं…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 18, 2020 at 4:03pm — 7 Comments

बेहतर तो

भीगी दुःखती ऑखे लेकर,

हम सपनों को पाने निकले,

मन के चिटके दप॔ण में,

गीला अक्स सजाने निकले।

जीवन शतरंज की गोटी, सिर्फ

हराए हरेक चाल पर,ऊपर बैठा

गजब खिलाड़ी ,हम भी

क्या दीवाने निकले ।

ऑख तौलती भार स्वप्न का,

होंठ हंसी की परिधि नापते,

सौदागर इस बस्ती में, क्या- क्या तो

कमाने निकले ।

महज उदासी पाई मन ने,

अपनेपन के रिश्तों में,

कुछ कदमों तक साथ चले थे,

बेहतर तो बेगाने निकले।





अन्विता ।

मौलिक एवं…

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Added by Anvita on May 18, 2020 at 12:30pm — 4 Comments

ताना-बाना

उलझे-उलझे से,ताने-बाने को
फिर- फिर
नये रंग में रंगता है,
मेरी किस्मत का रंगरेज,
पल-पल
रंग
बदलता है ।
उजला कभी,कभी स्याह
पीला कभी नीला,जैसे
सुखःदुख;
मन की हांड़ी में,
धींमे-धींमे खदकता है,
छल की रेशमी
चादरों में, लिपटे
सुनहरे,रूपहले सपने उलट-पलट
मिलाता है;पर,
नियति का,बल.....
नहीं
निकलता है ।


अन्विता ।


मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Anvita on May 18, 2020 at 8:13am — 7 Comments

कुछ क्षणिकाएँ :

कुछ क्षणिकाएँ :

सीख लिया शब्दों ने

जीना और मरना

बिना परिधान बदले

देह का

साथ रहकर

व्योम को

सूक्ष्म से अलंकृत करो

कि स्वप्न भी

कल्पना हैं

अचेतन मन की

कह दिया काँपती लौ ने

दिए से

आज मैं सो जाऊंगी

तुम्हारी गोद में

क्रूर पवन के वेग से आहत होकर

शायद मेरा उजाला

अंधेरों को

नहीं भाया

मिट गई

जीत की आकांक्षा

तिमिर में

इक दूजे से

हारते हुए

हम के…

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Added by Sushil Sarna on May 17, 2020 at 9:37pm — 6 Comments

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