‘दो टिकट बछरावां के लिए’ –मैंने सौ का नोट देते हुए बस कंडक्टर से कहा I
‘टूटे दीजिये, मेरे पास चेंज नहीं है I’
‘कितने दूं ?’
‘बीस रुपये ‘
मैंने उसे बीस रूपए दे दिये और पर्स सँभालने में व्यस्त हो गया I वह रुपये लेकर आगे बढ़ गया I
-'क्या कंडक्टर ने टिकट दिया ?'- सहसा मैंने पत्नी से पूछा i
‘नहीं तो ‘ उसने चौंक कर कहा I तभी बगल की सीट पर बैठा एक अधेड़ बोल उठा –‘टिकट भूल जाइये साहेब , बछरावां के दो टिकट तीस रुपये के हुए उसने आपसे बीस ही तो लिए i दस का…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 21, 2015 at 8:39pm — 19 Comments
Added by Samar kabeer on February 20, 2015 at 11:14pm — 42 Comments
Added by Neeraj Nishchal on February 20, 2015 at 8:00pm — 22 Comments
आवाज़ का रहस्य (कहानी )
प्रशिक्षु चिकित्सक के रूप में दिनेश और मुझे कानपुर देहात के अमरौली गाँव में भेजा गया था |नया होने के कारण हमारी किसी से जान-पहचान ना थी इसलिए हमने अस्पताल के इंचार्ज से हमारे लिए आस-पास किराए पर कमरा दिलाने को कहा |उसने हमे गाँव के मुखिया से मिलवाया |
“ किराए पे तो यहाँ कमरा मिलने से रहा |तुम अजनबी भी हो और जवान भी | परिवार भी नहीं है !ऐसे में कोई गाँव वाला - - - “
“ ऐसे में ये लड़के चले जाएंगे |फिर गाँव वालों का ईलाज - - - - कितनी बार लिखने…
ContinueAdded by somesh kumar on February 20, 2015 at 11:12am — 4 Comments
Added by दिनेश कुमार on February 20, 2015 at 7:04am — 27 Comments
“मंत्री जी, शानदार पुल बनकर तैयार है, आपके नाम की शिला भी रखवा दी है, बस जल्दी से उद्घाटन कर दीजिये !”
“अरे यार देख रहे हो कितना व्यस्त चल रहा हूँ आजकल, लेन-देन तो हो गया है न, फिर तुम्हे उद्घाटन की इतनी चिंता क्यों है ?”
“साहब, चिंता उद्घाटन की नहीं है, बारिश की है !”
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Added by Hari Prakash Dubey on February 20, 2015 at 3:13am — 31 Comments
वो आज है नही मेरी दुनिया में
फिर भी बसती है मेरे जिया में
लगता है आज भी याद करती है
मुझे पाने की फ़रियाद करती है
शायद खुश है ,जिन्दा है
क्यूंकि उसे कुछ हुआ है
वो आज जो है, जैसी है ,पीछे मेरी दुआ है |
मन करता है फिर से पाऊं उसे
दर्द भरी दुनिया से चुराऊं उसे
वो चली गयी पर कुछ कशिश तो है
चिराग न सही ,पर माचिस तो है
एहसास हो रहा है , उसने ख़त छुआ है
वो आज जो है, जैसी है ,पीछे मेरी दुआ है…
ContinueAdded by maharshi tripathi on February 19, 2015 at 10:30pm — 16 Comments
' मौन को भी जवाब ही समझें '
2122 1212 112 / 22
***************************
जिन्दगी को हुबाब ही समझें
संग काँटे, गुलाब ही समझें
बदलियों ने चमक चुरा ली है
पर उसे माहताब ही समझें
शर्म आखों में है अगर बाक़ी
क्यों न उसको नक़ाब ही समझें
इक दिया भी जला दिखे घर में
तो उसे आफ़ताब ही समझें
ठीक है , टूटता बिखरता है
पर उसे आप ख़्वाब ही समझें
दस्ते रस से अगर है दूर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 19, 2015 at 10:25am — 42 Comments
“शुभम|”
“यस सर|”
“ज्ञानू|”
“यस सर|”
“दुर्योधन|”
“हाजिर सSड़|”
यूँ तो पंचम ब वर्ग का ये अंतिम नाम था |परंतु परम्परा से परे प्राचीन महाकाव्य खलनायक का स्मरण
कर और हाजिरी देने के उसके लहजे से ध्यान बरबस ही उसकी तरफ टिक गया |
“दुर्योधन मेरे पास आओ|” मैंने आदेशात्मक लहजे में कहा |
लंबे चेहरे वाला वो लड़का सकुचाता सा मेरे सामने खड़ा हो गया |मैंने अपनी तीसरी कक्षा और पंचम के छात्रों को कार्य दिया |इस बीच वो गर्दन झुकाए ,जमीन को देखता…
ContinueAdded by somesh kumar on February 19, 2015 at 10:00am — 12 Comments
2122 2122 212
****************************
दोष ऐसा आ गया अब शील में
फासले कदमों के बदले मील में
***
भर लिया तम से मनों को इस कदर
रोशनी भी कम लगे कंदील में
****
देह होकर देह सा रहते नहीं
टाँगते खुद को वसन से कील में
****
युग नया है रीत भी इसकी नई
आचरण से ध्यान जादा डील में / डील-दैहिक विस्तार
****
अब बचे पावन न रिश्ते दोस्तो
तत तक बदले है खुद को चील में
***
भय सताता क्या …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 19, 2015 at 7:00am — 25 Comments
" बाई , कल से काम पर मत आना "|
" लेकिन मेमसाब , मैंने तो कुछ नहीं किया "|
कहना तो चाहती थी " हाँ , तुमने तो कुछ नहीं किया लेकिन साहब को तो नहीं कह सकती मैं ", लेकिन जुबाँ ने साथ नहीं दिया |
बाई हिकारत से देखती हुई चली गयी , उसके अंदर कुछ दरक सा गया |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on February 18, 2015 at 10:17pm — 20 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ |
नज़र के फेर में कितने फ़साने रोज बनते हैं | |
कहीं राधा कहीं मोहन बने लाचार जलते हैं | |
नज़ारा और होता है खिले जब फूल डाली में , |
कहीं खुशबू… |
Added by Shyam Narain Verma on February 18, 2015 at 5:30pm — 13 Comments
आँज गगन का नील निगाहें
लगती गहरी झील निगाहें
माँस बदन पर दिख जाये तो
बन जाती है चील निगाहें
आन टिकी है मुझ पर सबकी
चुभती पैनी कील निगाहें
बंद गली के उस नुक्कड़ पर
करती है क्या डील निगाहें
इक पल में तय कर लेती है
यार हज़ारों मील निगाहें
बाँध सकेगा मन क्या इनको
देती मन को ढील निगाहें
दिखने दे ‘खुरशीद’ नज़ारे
किरणों से मत छील निगाहें
मौलिक व…
ContinueAdded by khursheed khairadi on February 18, 2015 at 3:30pm — 18 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on February 18, 2015 at 1:32pm — 25 Comments
विश्व पुस्तक मेला-2015
मेट्रो की घड़घड़ाहट
और ज़िंदगी की फड़फड़ाहट के बीच
कुछ शब्द उभरकर आते हैं
जब-
वरिष्ठ नागरिकों के लिए
आरक्षित आसन पर
नए युग का प्रेमी युगल
चुहल करता है
और-
अतीत की झुर्रियों का फ़ेशियल लिए
लड़खड़ाती हड्डियों का
बेचारा ढाँचा
अवज्ञा की उंगली पकड़कर
अपने गौरवमय यौवन का
सौरभ लेता हुआ
कुछ पल के लिए खो जाता है;
मेट्रो की घड़घड़ाहट थमने लगती है
हड्डियों का ढाँचा
हड़बड़ाहट में चौकन्ना होता…
Added by sharadindu mukerji on February 18, 2015 at 12:00pm — 19 Comments
22 / 22 / 22 / 22 / 22 / 2 |
------------------------------------------- |
बादल जब बेज़ार किसी से क्या कहना |
फिर कैसी बौछार किसी से क्या कहना |
|
ख़ामोशी,… |
Added by मिथिलेश वामनकर on February 18, 2015 at 10:30am — 32 Comments
कौन पी गया जल मेघों का …..
कौन पी गया जल मेघों का …..
और किसने नीर बहाये //
क्योँ बसंत में आखिर …
पुष्प बगिया के मुरझाये //
प्रेम ऋतु में नयन देहरी पर …
क्योँ अश्रु कण मुस्काये //
विरह का वो निर्मम क्षण ….
धड़कन से बतियाये //
वायु वेग से वातायन के ….
पट क्योँ शोर मचाये //
छलिया छवि उस निर्मोही की …
तम के घूंघट से मुस्काये //
वो छुअन एकान्त की ….
देह विस्मृत न कर पाये //
तृषातुर अधरों से विरह की ….
तपिश सही न जाए…
Added by Sushil Sarna on February 17, 2015 at 7:42pm — 26 Comments
दशाश्वमेध घाट पर
कुछ उत्तर आधुनिक भारतीय
कर रहे थे स्नान
शैम्पू और विदेशी साबुन के साथ
दूर –दूर तक फैलकर झाग
धो रहा था अमृत का मैल
गंगा ने उझक कर देखा
फिर झुका लिया अपना माथ
साक्षी तो तुम भी हो
काशी विश्वनाथ !
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 17, 2015 at 4:16pm — 24 Comments
121--22--121--22--121--22--121—22
------------------------------------------------
हमें इज़ाज़त मिले ज़रा हम नई सदी को निकल रहे है
जवाँ परिंदे उड़ानों की अब, हर इक इबारत बदल रहे हैं।*
गुलाबी सपने उफ़क में कितने मुहब्बतों से बिखर गए है
नया सवेरा अज़ीम करने, किसी के अरमां मचल रहे है।
मिले थे ऐसे वो ज़िन्दगी से, मिले कोई जैसे अजनबी से
हयात से जो मिली है ठोकर जरा - जरा हम संभल…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 2:30pm — 31 Comments
जीवन का ताना
अकेला उदास डोलता रहा
बाना कहाँ मिला
बुनने को
सच के ताने को
झूठे बानों से
बुनते रहे
एक जख्मी चादर
फरेब के सर पर ओढ़ा
सब्र के कारवाँ चलते रहे
जीने की रिवायत से
समझोता करते रहे
बिन प्यार की
बेरंग चादर ओढ़े
मुखोटों की मुस्कुराहटों का
दम भरते रहे
काश बाना
प्यार की सच्चाई से
खिलता कोई
तो एक सतरंगी चदरिया
बुन लेता
और बस…
ContinueAdded by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on February 17, 2015 at 11:21am — 12 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |